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Updated: 27 जुलाई, 2015 03:55 PM
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भारत की सबसे तेजी से बढ़ती राजनैतिक पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के नाम से ही साफ हो जाता है कि इस दल की कोशिश किसी एक वर्ग में अपनी पैठ बनाने की है. पार्टी के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी अपना लक्ष्य जानते हैं. ओवैसी जैसा नेता अपनी सीमा भी जानता है और ताकत भी.

ओवैसी जानते हैं उनके मतदाता वर्ग में वैसे मुस्लिम शामिल हैं जिनका मानना है कि याकूब मेमन को केवल इसलिए फांसी दी जा रही है क्योंकि वह एक मुसलमान है. या वैसे कुछ लोग जो सल्तनत और दिल्ली दरबार के जमाने की पीढ़ियों से आते हैं और अब उस चकाचौंध से दूर कर दिए गए हैं. ओवैसी ऐसी मानसिकता को बखूबी समझते हैं. उनकी पार्टी ने पिछले साल महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव में 24 उम्मीदवार उतारे और दो सीटों पर उन्हें कामयाबी भी मिली. आठ उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहे और पाच लाख से ज्यादा मत महाराष्ट्र में AIMIM के खाते में गए. यह अपने आप में बड़ी कामयाबी है.

ओवैसी अगले साल पश्चिम बंगाल और 2017 में उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव में भी उम्मीदवारों को उतारने की तैयारी कर रहे हैं. बिहार में भी इस साल उनकी पार्टी कुछ सीटों पर भाग्य आजमा सकती है.

ऐसा लगता नहीं कि अपनी रणनीति और समाज के केवल एक वर्ग तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिश में जुटी AIMIM पार्टी जल्द किसी राज्य में सत्ता हासिल कर सकेगी. लेकिन अपनी रणनीति से यह पार्टी अपने धुर विरोधी बीजेपी को मदद जरूर कर रही है.

ओवैसी की AIMIM पार्टी ने दिखा दिया है कि वे कैसे खुद को सेकुलर कहने वाली पार्टियों जैसे कांग्रेस, एनसीपी और लेफ्ट से मुस्लिम वोटों को छीनने और उसे बांटने का काम कर सकते हैं. हो सकता है कल यही पार्टी नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, ममता बैनर्जी, मुलायम सिंह यादव या अरविंद केजरीवाल के वोट भी काटे. इस लिहाज से देखें तो ओवैसी अघोषित तौर पर बीजेपी के सबसे बड़े सहयोगी नजर आने लगते हैं. उनकी नीति न केवल धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के वोट बैंक में सेंध लगाती है बल्कि हिंदू वोट को भी एनडीए की ओर आकर्षित करने का काम कर रही है.

ओवैसी जब भी बोलते हैं, उनके शब्द भगवा ताकतों को आरएसएस के 'गुरुजी' एमएस गोलवलकर के शब्दों के इर्द-गिर्द एकजुट कर देते हैं. गोलवलकर ने कभी कहा था, 'क्या यह सही है कि पाकिस्तान के सभी हितैशी सीमा के उस पार चले गए? हिंदू बहुल प्रातों में रहने वाले मुसलमानों ने पाकिस्तान की मांग का झंडा बुलंद किया. उत्तर प्रदेश के मुस्लिमों ने इसनें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. पाकिस्तान बन गया लेकिन इसके बावजूद वे लोग अब भी यहां रह रहे हैं.'

ओवैसी में तो उन हिंदुओं का भी ध्रुवीकरण करने की क्षमता है जिन्होंने गोलवाल्कर को नहीं पढ़ा है या उनकी सोच को ज्यादा तवज्जो नहीं देते. बंगाल में 26 प्रतिशत मुस्लिम हैं और चार जिलों में उनकी संख्या 35 से 64 फीसदी है. वहीं, उत्तर प्रदेश में भी 20 से 30 जिलों में ओवैसी राजनीतिक तस्वीर बदलने की कोशिश कर सकते हैं. लेकिन इस बीच यह देखना दिलचस्प होगा कि सेकुलर पार्टियां AIMIM से कैसे निपटती हैं. वे पार्टियां ओवैसी के ढर्रे पर भी नहीं चल सकती क्योंकि इससे उनकी हिंदू वोटों पर असर पड़ेगा. जाहिर तौर पर इन सेकुलर पार्टियों के सामने बड़ूी चुनौती है. साथ ही यह भी सही है कि AIMIM की लाइन पर चलना उनके लिए विकल्प नहीं हो सकता.

लगातार मिल रही नाकामी के बाद कांग्रेस की एक आत्मविश्लेषण समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि अल्पसंख्यकों की ओर ज्यादा झुकाव और एंटी-हिंदू की उभरती इमेज पार्टी की हार का बड़ा कारण रही. अब यही कारण था या कुछ और, इमेज बदलने के लिए राहुल गांधी को केदारनाथ की यात्रा करनी पड़ी. अगर वह पार्टी के प्रमुख बनाए जाते हैं तो क्या पता उनके राजतिलक की जगह हरिद्वार नगरी हो सकती है.

ओवैसी और बदरुद्दीन अजमल के राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ते कदम से कम से कम वे सेकुलर पार्टियां अपनी रणनीति पर दोबारा से विचार करने के लिए बाध्य होंगी जो अब तक अल्पसंख्यक वोट बैंक के लिए राजनीति करती रही हैं. उन्हें फिर से सोचना होगा कि वे कैसे हिंदू वोट को अपनी ओर आकर्षित करें जिस पर आज के दौर में मुख्य रूप से बीजेपी का ही कब्जा है.

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