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Updated: 26 अक्टूबर, 2017 01:28 PM
बिजय कुमार
बिजय कुमार
  @bijaykumar80
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विधानसभा के भीतर और बाहर मचे सियासी बवाल के बाद राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने विवादित अध्यादेश को सिलेक्ट कमिटी को भेज दिया है. कह सकते हैं की इस विवादास्पद कानून पर चौतरफा हमले और विपक्ष के हंगामे के बाद वसुंधरा राजे को बैकफुट पर जाने पर मजबूर होना पड़ा है. राजे ने प्रदेश के वरिष्ठ मंत्रियों से इस मसले पर बातचीत के बाद यह फैसला लिया.

उनके इस फैसले का स्वागत करते हुए बीजेपी नेता और राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यन स्वामी ने कहा कि, "बिल को विधानसभा की सिलेक्ट कमिटी को भेजा जाना एक स्मार्ट मूव है. ऐसा करके राजे ने अपने लोकतांत्रिक स्वभाव का परिचय दिया है."

उन्होंने यहां तक कहा की वसुंधरा को मुख्यमंत्री के तौर पर एक और मौका मिलना चाहिए.

बता दें कि इससे पहले इस अध्यादेश का विरोध करते हुए उन्होंने वसुंधरा राजे की आलोचना भी की थी. इस अध्यादेश का विरोध पार्टी के राजस्थान से कुछ और नेता भी कर रहे हैं.

इस विवादित अध्यादेश ने प्रदेश में विपक्षी पार्टियों को अचानक ही एक मुद्दा दे दिया है. मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी ने ट्वीट कर वसुंधरा सरकार पर तंज कसते हुए कहा कि, "मैडम सीएम, हम 1817 नहीं, 2017 में रह रहे हैं." 

कांग्रेस विधायकों ने मुंह पर काली पट्टी बांधकर विधानसभा तक मार्च किया और विधानसभा सत्र के पहले दिन ही जमकर विरोध किया. इसके बाद फिर सदन से वॉकआउट किया. पार्टी ने इस अध्यादेश को दुर्भाग्यपूर्ण और दोषियों को बचाने वाला बताकर इसे तुरंत वापस लेने की मांग की है. पार्टी के नेता सचिन पायलट ने विरोध में अपनी गिरफ़्तारी भी दी. उन्होंने कहा है कि- अगर ये अध्यादेश वापस नहीं लिया जाता है तो वो इसके खिलाफ कोर्ट भी जायेंगे.

आप पार्टी के नेता कुमार विश्वास ने भी इसका विरोध करते हुआ वसुंधरा सरकार पर हमला बोला.

ऐसा नहीं है कि केवल राजनीतिक दल ही इसका विरोध कर रहे हैं. बल्कि मीडिया ने भी इस कानून का विरोध किया है. जयपुर के एक वकील अजय जैन ने प्रस्तावित क़ानून को संविधान के ख़िलाफ़ बताते हुए हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी है. वहीं पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने कहा है कि वे इस विधेयक को अदालत में चुनौती देंगे.

इस अध्यादेश के तहत सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता व भारतीय दंड संहिता में संशोधन किया है. इसके अनुसार राज्य सरकार की मंजूरी के बिना शिकायत पर जांच के आदेश देने और जिसके खिलाफ मामला लंबित है, उसकी पहचान सार्वजनिक करने पर रोक लगायी गई है. इसकी अनदेखी करने पर 2 साल की कैद और जुर्माने का प्रावधान भी है. बता दें कि 7 सितम्बर को ये अध्यादेश जारी किया गया था. इसके मुताबिक, सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत अदालत शिकायत पर सीधे जांच का आदेश नहीं दे सकेगी. अदालत, राज्य सरकार से अनुमति मिलने के बाद ही जांच के आदेश देगी.

vasundhra rajeकहीं आप तुगलक तो नहीं?

बात करें इस फैसले से नफा-नुकसान की तो इससे मौजूदा राजस्थान सरकार की छवि को ही नुकसान होगा. क्योंकि अब तक बीजेपी, कांग्रेस पार्टी पर इमरजेंसी को लेकर हमला बोलती रही है और इस फैसले ने अब कांग्रेस को हमला करने का मौका दे दिया. प्रदेश में अगले साल चुनाव भी होने हैं. ऐसे में विपक्षी दलों को कोई मौका नहीं देना ही सरकार के लिए उचित होता. क्योंकि प्रदेश में विपक्षी दल किसानों के मुद्दे को भी नहीं भुना पा रहे थे, वो तो खुद किसान ही थे जिन्होंने हाल ही में विरोध प्रदर्शन कर सरकार को काफी परेशान किया था.

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लेखक

बिजय कुमार बिजय कुमार @bijaykumar80

लेखक आजतक में प्रोड्यूसर हैं.

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