शाज़िया बनाम केजरीवाल?
राजनीति भी अजीब चीज है जो अपनो को भी पराया बना देती है. कल तक एक दूसरे का कदम-कदम पर साथ देने वाली शख्सियतें अब आमने-सामने हैं.
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राजनीति भी अजीब चीज है जो अपनो को भी पराया बना देती है. कल तक एक दूसरे का कदम-कदम पर साथ देने वाली शख्सियतें अब आमने-सामने हैं. कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव तक अरविंद केजरीवाल का साथ देने वाली शाज़िया इल्मी अब उनके खिलाफ चुनाव लड़ेंगी.
पिछले कुछ समय से दोनों अलग-थलग थे और शाज़िया ने केजरीवाल पर गंभीर आरोप लगाए थे. उनका कहना था कि वह लोकतांत्रिक तरीके से पार्टी चलाने की बजाय तानाशाही वाला रवैया अपना रहे हैं. दरअसल दोनों में मतभेद तो लोकसभा चुनाव में ही हो गए थे जब शाज़िया को सोनिया गांधी के खिलाफ राय बरेली से खड़ा होने को कहा गया था और उन्होंने साफ इनकार कर दिया था. उन्होंने दिल्ली से टिकट मांगा था लेकिन गाजियबाद से लड़ने को विवश की गईं. उस चुनाव में भी उन्हें केजरीवाल का साथ नहीं मिला क्योंकि वह तो वाराणसी में मोदी के खिलाफ खड़े होकर पब्लिसिटी बटोर रहे थे. वहां से ही दोनों के संबंध कटु होते गए. अब हालात यह है कि शाज़िया बीजेपी की ओर झुक गई हैं. यह बात उनके स्वच्छ भारत अभियान के दौरान ही सामने आने लगी थीं.
बहरहाल प्रश्न यह है कि आम आदमी पार्टी की नींव रखने वाले सदस्य एक-एक करके दूर क्यों होते गए? पार्टी के प्रवक्ता चाहे कुछ भी कहें, सच्चाई तो यही है कि इस नई पार्टी में अंदर कुछ ठीक नहीं है. जो सबसे बड़ी आलोचना मुखर हो रही है कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं दिखता है. सदस्यों की शिकायत यह रही है कि वहां मुट्ठी भर लोग ही पार्टी में हावी हैं.
अरविंद केजरीवाल के पास इतना वक्त नहीं कि वह अपने सदस्यों की बात सुनें. वह एक मंजे हुए राजनीतिज्ञ की बजाय किसी ब्यूरोक्रैट की तरह ज्यादा लगते हैं. उनके आलोचकों का कहना है कि वह सभी को विश्वास में लेने का प्रयास नहीं करते. इन बातों में कितना दम है यह कहना मुश्किल है लेकिन यह तो लगता है कि आम आदमी पार्टी में कुल मिलाकर वन मैन शो है. सारे फैसले और सारी बातें केजरीवाल के इर्द-गिर्द घूमती हैं.
अब आम आदमी पार्टी की असली अग्नि परीक्षा है. अगर इस चुनाव में पार्टी विजयी होकर निकली तो उसका न केवल कद बढ़ेगा बल्कि देश भर में छा जाने की महत्वाकांक्षी योजना को पर लग सकेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो पार्टी का क्या होगा, कहना मुश्किल है.

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