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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 24 मई, 2023 09:43 PM
अशोक भाटिया
अशोक भाटिया
 
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दिल्ली विधानसभा के बाद पंजाब विधानसभा की जीत के बाद आप पार्टी के सर्वेसर्वा अरविन्द केजरीवाल अपने आप को कांग्रेस का विकल्प मानाने लगे थे और अकेले प्रधानमंत्री मोदी का सामना करने की बात करने लगे थे .पर अब गुजरात व कर्नाटक में हार के बाद और आप के अब तक 5 मंत्रियों को अलग-अलग मामलों में गिरफ्तार कर जेल भेजे जाने के बाद उनका रुख बदला हुआ है . दिल्ली में अफसरों की ट्रांसफर-पोस्टिंग के मुद्दे पर मोदी सरकार और केजरीवाल सरकार एक-दूसरे की बांह मरोड़ने में जुटी हैं. दिल्ली के अधिकारी किसकी सुनेंगे ये फैसला 11 मई को सुप्रीम कोर्ट में 5 जजों की बेंच ने कर दिया. जिसमें साफ कहा गया कि पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और जमीन को छोड़कर उप-राज्यपाल बाकी सभी मामलों में दिल्ली सरकार की सलाह और सहयोग से ही काम करेंगे. यानी दिल्ली की बॉस केजरीवाल सरकार है. 8 दिन बाद ही केंद्र सरकार एक अध्यादेश लाई जिसमें सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलट दिया गया. यानी दिल्ली के बॉस वापस लेफ्टिनेंट गवर्नर बन गए. अब इस अध्यादेश को कानून बनने से रोकने के लिए अरविंद केजरीवाल सरकार विपक्ष के बड़े नेताओं से मिल रहे हैं.

Arvind Kejriwal, Aam Aadmi Party, Delhi, Chief Minister, Ordinance, Supreme Court, BJP, Oppositionअब अब अपनी ही बातों में फंसते हुए नजर आ रहे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल

2015 में दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों की लड़ाई हाईकोर्ट पहुंची. हाईकोर्ट ने इस मामले में 2016 में फैसला राज्यपाल के पक्ष में सुनाया. इसके बाद आप सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की. 5 मेंबर्स वाली संविधान बेंच ने जुलाई 2016 में आप सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया. कोर्ट ने कहा कि मुख्यमंत्री ही दिल्ली के एग्जीक्यूटिव हेड हैं. उपराज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता के बिना स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकते.

इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों पर नियंत्रण जैसे कुछ मामलों को सुनवाई के लिए दो सदस्यीय रेगुलर बेंच के पास भेजा. इस बेंच के फैसले में दोनों जजों की राय अलग थी.जजों की राय में मतभेद के बाद यह मामला 3 मेंबर वाली बेंच के पास गया. उसने केंद्र की मांग पर पिछले साल जुलाई में इसे संविधान पीठ के पास भेज दिया. संविधान बेंच ने जनवरी में 5 दिन इस मामले पर सुनवाई की और 18 जनवरी को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया.

अब 11 मई को सुप्रीम कोर्ट ने अफसरों पर कंट्रोल का अधिकार दिल्ली सरकार को दे दिया. साथ ही कहा कि उपराज्यपाल सरकार की सलाह पर ही काम करेंगे. अब इसी फैसले को केंद्र ने अध्यादेश के जरिए पलट दिया है. भारत में कानून सिर्फ संसद के जरिए ही बन सकता है. आमतौर पर संसद के साल में 3 सत्र ही होते हैं, लेकिन कानून की जरूरत तो कभी भी पड़ सकती है. यहां पर रोल आता है अध्यादेश का.

अगर सरकार को किसी विषय पर तुरंत कानून बनाने की जरूरत है और संसद नहीं चल रही तो अध्यादेश लाया जा सकता है. संसद सत्र चलने के दौरान अध्यादेश नहीं लाया जा सकता है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 123 में अध्यादेश का जिक्र है. केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर राष्ट्रपति के पास अध्यादेश जारी करने का अधिकार है. ये अध्यादेश संसद से पारित कानून जितने ही शक्तिशाली होते हैं. अध्यादेश के साथ एक शर्त जुड़ी होती है.

अध्यादेश जारी होने के 6 महीने के भीतर इसे संसद से पारित कराना जरूरी होता है.अध्यादेश के जरिए बनाए गए कानून को कभी भी वापस लिया जा सकता है. अध्यादेश के जरिए सरकार कोई भी ऐसा कानून नहीं बना सकती, जिससे लोगों के मूल अधिकार छीने जाएं. केंद्र की तरह ही राज्यों में राज्यपाल के आदेश से अध्यादेश जारी हो सकता है.

दिल्ली में अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया, वह केजरीवाल सरकार के पक्ष में था. ऐसे में इसे कानून में संशोधन करके या नया कानून बनाकर ही पलटा जाना संभव था. संसद अभी चल नहीं रही है, ऐसे में केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर इस कानून को पलट दिया. अब 6 महीने के अंदर संसद के दोनों सदनों में इस अध्यादेश को पारित कराना जरूरी है.

सीएम अरविंद केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली में अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग के मामले में केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर सीधे सुप्रीम कोर्ट को चुनौती दी है. यह देश की सबसे बड़ी अदालत की इंसल्ट और उसके पावर को चैलेंज है. यह अध्यादेश अलोकतांत्रिक है और देश के फेडरल सिस्टम के लिए खतरनाक है. ऐसे में दिल्ली सरकार सुप्रीम कोर्ट में अध्यादेश को चुनौती देगी.

वैसे अध्यादेश तो राष्ट्रपति जारी करते हैं तो क्या राष्ट्रपति के आदेश को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है?इसका जवाब 1970 में आरसी कूपर बनाम भारत संघ के केस के फैसले में मिलता है. इस केस में फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति के निर्णय को चुनौती दी जा सकती है. इस मामले में संविधान बेंच बनाएं या नहीं, यह तय करने का अधिकार चीफ जस्टिस के पास होता है.

ऐसे में साफ है कि कानूनी तौर पर केजरीवाल इस फैसले को कोर्ट में चुनौती दे सकते हैं. अध्यादेश को 6 महीने के अंदर संसद के दोनों सदनों से पास कराना जरूरी होता है. लोकसभा में भाजपा और इसके गठबंधन दलों के पास बहुमत है. यहां आसानी से ये अध्यादेश पारित हो जाएगा, लेकिन राज्यसभा में इस अध्यादेश को पारित करवाना मुश्किल होगा.

इसकी वजह ये है कि भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां के पास राज्यसभा में बहुमत से 8 सदस्य कम हैं. ऐसे में इन्हें दूसरे दलों के मदद की जरूरत होगी. विपक्षी एकता के जरिए केजरीवाल राज्यसभा में इस अध्यादेश को हर हाल में रोकना चाहते हैं. राज्यसभा में कुल सदस्यों की संख्या 245 है. इनमें एनडीए के पास कुल 110 सदस्य हैं. फिलहाल 2 मनोनीत सदस्यों की सीट खाली है.

संभावना है कि भाजपा इस अध्यादेश पर वोटिंग कराने से पहले इन सीटों को भर दे.इस तरह एन डी ए के पास राज्यसभा में 112 सदस्य हो जाएंगे. इस तरह राज्यसभा में प्रभावी संख्या 238 हो जाएगी. इस हिसाब से देखें तो राज्यसभा में बहुमत के लिए 120 सदस्यों का समर्थन चाहिए होगा. एन डी ए के पास 8 सदस्य कम पड़ेंगे. यानी इस अध्यादेश को पास कराने के लिए एन डी ए के अलावा दूसरे दलों के समर्थन की भी जरूरत होगी.

इस बात की संभावना जताई जा रही है कि भाजपा आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से समर्थन मांग सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने सारी अहम पावर दिल्ली की चुनी हुई सरकार को दी थी. 8वें दिन केंद्र ने अध्यादेश लाकर दिल्ली सरकार को पंगु बनाकर सारी अहम ताकत उप-राज्यपाल को दे दी. भाजपा इस अध्यादेश को बिल की तरह लेकर सदन में आएगी.

अगर उस समय सभी विपक्षी दल एकजुट हो जाएं तो इस अध्यादेश को कानून बनने से रोका जा सकता है. एक तरह से देखा जाए तो विपक्षी दलों के लिए 2024 चुनाव से पहले ये एक सेमीफाइनल जैसा है.ये बात रविवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और डिप्टी मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव से मुलाकात के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कही है.

केजरीवाल ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले विपक्षी दल एकजुट हैं या नहीं, इस बात की भी परीक्षा हो जाएगी.अभी हाल ये है कि आम आदमी पार्टी को लेकर कई विपक्षी दलों का दलों का स्टैंड क्लियर नहीं है. नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने अध्यादेश को लेकर केजरीवाल का समर्थन किया है. बीते दिनों नवीन पटनायक, ममता बनर्जी और राहुल गांधी से उन्होंने मुलाकात की है.

हालांकि नवीन पटनायक की भाजपा से भी ज्यादा खटास नहीं है.ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि इस मामले में केजरीवाल को उनका समर्थन मिलता है या नहीं.केजरीवाल ने कांग्रेस पार्टी का भी समर्थन मांगा है, हालाँकि, उनकी कुछ पिछली राजनीतिक गतिविधियां सवालों के घेरे में हैं. उनकी पार्टी ने भाजपा के साथ एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से हमारे प्रिय राजीव जी से भारत रत्न वापस लेने का अनुरोध किया.

इसके अलावा, केजरीवाल ने जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह भाजपा का समर्थन किया. यह समर्थन तब मिला, जब जम्मू-कश्मीर को विभाजित किया गया और उसे एक केंद्रशासित प्रदेश में परिवर्तित कर दिया गया, जिससे यहाँ के लोगों को पांच साल के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया गया. केजरीवाल ने विभिन्न आरोपों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर महाभियोग चलाने के दौरान भी भाजपा का समर्थन किया.

जस्टिस लोया की मौत की संदिग्ध परिस्थितियों की जांच के लिए सीजेआई ने एक जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था. यह उल्लेखनीय है कि केजरीवाल विवादास्पद किसान विरोधी कानूनों को लागू करने वाले पहले व्यक्ति थे. उनकी पार्टी ने राज्यसभा के उपसभापति के लिए विपक्ष के उम्मीदवार का भी विरोध किया और इसके बजाय भाजपा द्वारा प्रायोजित उम्मीदवार का समर्थन किया.

गुजरात, गोवा, हिमाचल, असम, उत्तराखंड में भाजपा के लिए केजरीवाल का समर्थन और हाल के कर्नाटक चुनावों में, जहां उन्होंने कांग्रेस पार्टी के खिलाफ उम्मीदवार खड़े किए . अब मध्यप्रदेश , राजस्थान व छत्तीसगढ़ में भी वह अपने उम्मीदवार उतरने जा रही है . उससे यह सवाल भी उठता है कि केवल उन्हीं राज्यों में वह ऐसा क्यों करते हैं, जहां कांग्रेस मुख्य विपक्षी या सत्ताधारी पार्टी है.

लेखक

अशोक भाटिया अशोक भाटिया

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक एवं टिप्पणीकार पत्रकारिता में वसई गौरव अवार्ड – 2023 से सम्मानित, वसई पूर्व - 401208 ( मुंबई ) फोन/ wats app 9221232130 E mail – vasairoad.yatrisangh@gmail।com

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