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Updated: 25 मई, 2016 03:17 PM
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राहुल गांधी अक्सर कहते रहे हैं कि मनमोहन सिंह उनके राजनीतिक गुरु हैं, लेकिन कभी उनके जैसा आचरण करके नहीं दिखाया. अगर एक बार वो गुरुजी की तरह आचार, विचार और व्यवहार करने का फैसला कर लें - फिर तो कांग्रेस की सारी समस्याएं ही खत्म हो जाएं. उसके बाद न तो कॉस्मेटिक सर्जरी की जरूरत पड़ेगी, न हार्ट ट्रांसप्लांट की और न ही किसी और बात की.

टैलेंट पर भरोसा करें

राहुल गांधी को इस बात की जरा भी परवाह नहीं करनी चाहिए कि सोशल मीडिया पर क्यों और कौन लोग उन्हें पप्पू बताते रहते हैं? वो इस बात की जरा भी परवाह न करें कि कैप्टन अमरिंदर सिंह और शीला दीक्षित जैसे नेता उन्हें आलाकमान मानने को तैयार क्यों नहीं होते? वो इस बात की भी बिलकुल परवाह न करें कि अरुण जेटली ये कह कर ताने मारते हैं कि जाने कब वो कुछ सीखेंगे. 'कुछ सीखेंगे भी या नहीं!'

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अब राहुल गांधी को क्या पड़ी कि जो कुछ सीखा है उसके बारे में उन्हें बताएं या उसका सार्वजनिक प्रदर्शन भी करें. क्या उन्हें नहीं पता कि एक बार का सीखा जीवन भर काम आता है - और जब मौका आएगा तो देखी जाएगी.

और वैसे भी काबिलयत कोई डिग्री थोड़े ही है कि लाइव टीवी पर उसका प्रदर्शन किया जाए. अब उन्हें कौन समझाए कि डिग्री इंसान को अहंकार से भर देती है - और काबिलियत उसे फलों से लदे वृक्ष की तरह विनम्र बनाए रखती है. अब ये तो निजी फैसले की बात है कि कोई डिग्री में यकीन रखता है या अनुभव जनित काबिलियत में.

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आपकी इनायत है...

राहुल गांधी पर उंगली उठाने वालों को ये क्यों नहीं दिखता कि इतना सीखने के बाद भी राहुल ने कभी किसी को इस बात अहसास तक नहीं होने दिया कि उन्होंने इतने बरसों में क्या क्या सीखा है.

दिग्विजय पर दारोमदार

दिग्विजय सिंह राहुल गांधी के लंबे अरसे तक चीफ एडवाइजर रहे हैं. वही इन दिनों सर्जरी की बात कर रहे हैं. उनकी इस बात पर भी लोग सवाल खड़े कर रहे हैं. फिर भी उन्हें हार नहीं माननी चाहिए, वैसे वो मानने वाले भी नहीं हैं.

लेकिन अब वो वक्त आ गया है कि दिग्विजय को जामवंत बनना होगा. राहुल गांधी को वो लाइन सुनानी होगी - 'पवन तनय बल पवन समाना...'

उनके पास तो मां है

'मेरे पास मां है.' इस फिल्मी डायलॉग के साथ राहुल गांधी के पोस्टर से सोशल मीडिया पटा पड़ा है. अब कोई इस बात को मजाक में लेता है तो वो मूर्ख है. अगर समझ नहीं आता तो उन्हें संजय बारू की किताब 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' जरूर पढ़नी चाहिए. अगर कोई गलतफहमी है तो सब की सब दूर हो जाएंगी. ऐसी और भी किताबें हैं बाजार में. अमेजॉन और फ्लिपकार्ट पर रिलेटेड लिंक पर एक बार नजर डालने की जरूरत है.

जब मनमोहन सिंह जैसी नामचीन हस्ती खामोशी से 10 साल गुजार दे - फिर उस शख्सियत की काबिलियत पर ब्लाइंड फेथ न करने का कोई मतलब नहीं बनता. बनता है क्या? नहीं ना?

बस, खामोशी जरूरी है

राहुल गांधी बहुत एक्सपेरिमेंट कर चुके हैं - एस्केप वेलॉसिटी की स्पीड से विकास के फॉर्मूले तक का प्रस्ताव दे चुके हैं. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक वो हर लीलावती और कलावती से मिल चुके हैं जिनके बारे में लोग सिर्फ सत्यनारायण स्वामी की कथा में ही सुना करते होंगे.

वो सरेआम गुस्से का इजहार कर चुके हैं. कभी पब्लिक मीटिंग में तो कभी प्रेस कांफ्रेंस में धावा बोल कर कागजों के टुकड़े टुकड़े कर चुके हैं.

वो कई बार बता भी चुके हैं - 'प्रधानमंत्री डरपोक है.' 'वे लोग हमसे डरते हैं.' 'हमे सवाल भी नहीं पूछने देते.' 'ये सूट बूट की सरकार है.'

इन बातों पर पहली दफा यकीन नहीं होता. लेकिन जब वो भरी संसद में हाथ से लिखे नोट्स लहराते हैं - और अगली ही बार डंके की चोट पर इकबालिया एलान करते हैं - हां, मेरा भाषण कोई और लिखता है. ऑफिस में एक लड़का भी है जो कहानियां भी सुनाता है - और वही कहानियां वो लोगों को सुनाया करते हैं. अपने नेता की इस इमानदारी पर भला कौन कार्यकर्ता इतराने से खुद को रोक पाएगा?

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अब बहुत हो चुका. "सौ वक्ता, न एक चुप." बतौर सीख ये देहाती मुहावरा दादी सुनाया करती थीं. बरसों बाद ये बात देश के प्रधानमंत्री के मुहं से सुन कर बड़ा अच्छा लगा. वाकई बात में दम है.

एक बार अगर राहुल गांधी ये तय कर लें तो शायद ही किसी सर्जरी की जरूरत पड़े. ये फॉर्मूला पुरानेवाले बाबा रामदेव की कपालभाति से भी ज्यादा असरदार है. पुरानेवाले इसलिए क्योंकि अब तो वो सिर्फ नूडल्स और दूसरी खाने पीने की चीजों की बातें करते हैं. वैसे भी इतनी कसरत कर चुके हैं कि कई साल तक उनका असर कायम रहनेवाला है - और कुछ नहीं तो अगले चुनाव तक की तो गारंटी है ही.

अगर राहुल गांधी सिर्फ इतना तय कर लें कि गुरु के दिखाये रास्ते पर चलना है, उसके बाद तो चाहे जो जी में आए, करें.

काम कैसे करना है? क्या काम करना है? किस फाइल पर दस्तखत करनी है? ये सब बताने के लिए लोग तो हैं ही. वे लोग पूछ पूछ कर बताते रहेंगे. फिर तो वो मीटिंग में चाहे डॉगी से खेलें या आईपैड पर, शायद ही कोई हिमंत बिस्वा सरमा इस बात पर ध्यान देगा और बाद में दुनिया को ऐसे किस्से सुनाएगा. वैसे भी हिमंत, कलिखो पुल और विजय बहुगुणा के जाने के बाद बोझ काफी कम हो चुका है. बाकी लोगों को अपनी नौकरी प्यारी है या नहीं!

खामोशी का ये फॉर्मूला बरसों से आजमाया हुआ नुस्खा है. इसी को अनुभूत योग भी कहते हैं. बाबा रामदेव इसके बारे में विस्तार से बता सकते हैं, अगर बिजनेस में बिजी हो जाने के कारण वो भूल न गये हों. जब लालू प्रसाद को क्रीम लगा आए तो किसी न किसी दिन वहां भी पहुंचेंगे ही.

तो फिर काहे की किचकिच? आखिर गुरु का ज्ञान किस दिन काम आएगा. बिलकुल मुफ्त की सलाह है. एक बार मां के मन की बात भी तो सुनिए. कुछ देर के लिए ही सही जरा मनमोहन बन कर तो देखिए.

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