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Updated: 16 फरवरी, 2023 09:06 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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बहाना जो भी हो, लेकिन अमित शाह (Amit Shah) की कॉल आने और लालू यादव की वापसी के बाद नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की हालत सैंडविच जैसी हो गयी है. 11 फरवरी को ही लालू यादव सिंगापुर से लौटे थे, और उसी दिन अमित शाह ने नीतीश कुमार को फोन भी किया था - हो सकता है नीतीश कुमार की राजनीति में ये महज संयोग हो, लेकिन अमित शाह की तरफ से तो ये प्रयोग ही लगता है.

लालू यादव (Lalu Yadav) की वापसी की खबर तो सबको उनकी बेटी रोहिणी आचार्य ने ट्वीट कर दी थी, लेकिन अमित शाह के फोन की जानकारी तो नीतीश कुमार ने ही दी है. अव्वल तो दोनों ही मामले बिहार के मुख्यमंत्री का मानसिक तनाव बढ़ाने वाले लगते हैं, लेकिन जिस तरीके से नीतीश कुमार ने अमित शाह के साथ बातचीत की जानकारी दी है - वो असल में हर संबंधित पक्ष को कोई खास मैसेज देने की कोशिश भी लगती है.

नीतीश कुमार के पास अमित शाह के फोन आने की बात लालू यादव और तेजस्वी यादव के लिए अलर्ट जैसी भी समझी जा सकती है, लेकिन जेडीयू नेता ने, ऐसा भी लगता है, अपनी तरफ से उपेंद्र कुशवाहा को भी संदेश देने की कोशिश की है.

किसने किसे फोन किया, ये काफी महत्वपूर्ण है. लेकिन ये भी कोई कम अहम बात नहीं है कि छह महीने बाद ही सही नीतीश कुमार और अमित शाह के बीच सीधा संवाद हुआ तो है. बातचीत के कई चैनलों का जिक्र समय समय पर होता रहा है, लेकिन तत्व की बात तो यही है कि सीधे संवाद की सार्वजनिक जानकारी दी गयी है.

नीतीश कुमार चाहते तो टाल भी जाते. सवाल तो बिहार के राज्यपाल को लेकर ही पूछा गया था. राज्यपाल कोई भी हो, अगर केंद्र में भी अपनी पसंद की सरकार नहीं है तो किसी मुख्यमंत्री के लिए क्या ही महत्व रखता है.

जैसे बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव की दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मुलाकात को लेकर पूछे गये सवाल को वो टाल गये थे, ये बोल कर कि छोड़िये न उन बातों को - नीतीश कुमार राज्यपाल के मामले में भी ऐसे ही किनारा कर सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं किया. बल्कि, ऐसे रिएक्ट किया जैसे ऐसे मौके का ही इंतजार रहा हो.

9 अगस्त, 2022 को नीतीश कुमार ने अपने तरीके से अगस्त क्रांति दिवस मनाया था. और अगले ही दिन बीजेपी का साथ छोड़ कर महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी - और तभी से अमित शाह के साथ साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मिलने से कतराते रहे.

छह महीने के दौरान नीतीश कुमार के सामने जब भी ऐसी नौबत आती कि मोदी-शाह से आमना-सामना करना ही पड़ेगा, बचने का जुगाड़ फिट कर देते. जैसे 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद जीतनराम मांझी को मोर्चे पर लगा दिया था, इस बार तेजस्वी यादव से काम चला रहे थे. एक बार तो ऐसी ही एक मीटिंग में डीजीपी को ही भेज दिया था.

प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री की मीटिंग में एक मुख्यमंत्री अपने डिप्टी सीएम या किसी प्रतिनिधि को तो भेज सकता है, लेकिन जब मोदी या शाह को बात करनी हो तो वे तो सीधे नीतीश कुमार से ही संपर्क करेंगे - अमित शाह ने यही तो किया है.

चिढ़ तो अमित शाह के मन में भी मची होगी, लेकिन राजनीति में भी हर कोई 'मन की बात' कर भी तो नहीं सकता. रोजाना की मुश्किलों से जूझ रहे नीतीश कुमार को भी अमित शाह के फोन का इंतजार रहा ही होगा - और ऐसा भी तो हो सकता है कि मोदी-शाह को भी ऐसे ही किसी मजबूत बहाने जरूरत महसूस हो रही हो.

और राज्यपालों की नियुक्ति के बाद केंद्र और गैर बीजेपी सरकारों के मुख्यमंत्रियों से संवाद का मौका आ ही गया. बाकियों से ऐसे संवाद रस्मअदायगी हो सकते हैं. ये भी हो सकता है संदेशवाहक के जिम्मे भी ये काम दे दिया गया हो, लेकिन नीतीश कुमार का मामला तो राजनीतिक रूप से ज्यादा महत्वपूर्ण रहा - और अमित शाह ने एक झटके में नीतीश कुमार के मन से संकोच खत्म करते हुए आगे का रास्ता खोल दिया है.

अमित शाह ने फोन क्यों किया?

समाधान यात्रा में भले ही तमाम व्यवधान आते रहे हों, लेकिन नीतीश कुमार अपने लिए रास्ता निकाल ही लेते हैं. कहने को तो समाधान यात्रा बिहार सरकार के विकास के कामों की समीक्षा पर फोकस रही है, लेकिन असल में ये नीतीश कुमार के लिए ऐसा टाइमपास है जब वो घूमते फिरते आगे की रणनीतियां बनाते रहते हैं.

nitish kumar, amit shah, lalu yadavनीतीश कुमार के लिए अमित शाह का फोन किसी एनर्जी ड्रिंक जैसा ही है

ऐसे में जबकि विपक्षी खेमे में भी नीतीश कुमार को कोई पूछ नहीं रहा हो, समाधान यात्रा नीतीश कुमार के लिए खुद को चर्चा में रखने और लोगों के बीच बने रहने का अच्छा बहाना भी साबित हो रही है - और हर मोड़ पर राजनीति करने का स्कोप भी बना रहता है.

औरंगाबाद में ऐसा ही एक मौका आया जब नीतीश कुमार से राज्यपाल बदल जाने को लेकर सवाल पूछा गया था. जिस अंदाज में नीतीश कुमार ने जवाब दिया, उन दिनों की याद आ गयी जब बिहार में जातीय जनगणना को लेकर राजनीति जोर पकड़ी हुई थी. तब नीतीश कुमार ऐसे ही मौके निकाल कर अपडेट दिया करते थे. कभी बताते कि कैसे वो प्रधानमंत्री से प्रतिनिधिमंडल के साथ मुलाकात की लगातार कोशिश कर रहे हैं, कभी किसी और तरीके से जताने की कोशिश करते कि बिहार में जातीय जनगणना तो होगी ही. जैसे कह रहे हों - मैं हूं ना.

फागू चौहान के बिहार से ट्रांसफर के बारे नीतीश कुमार को कैसे मालूम हुआ, कुछ ऐसा बताया, 'परसों ही हमको सूचना दी थी गृहमंत्री जी ने... उन्होंने ही बताया था... हमने कहा कि ठीक है कीजिए... फिर ये जा रहे थे... इनसे बात हुई थी कि जा रहे हैं... ये तो बेचारे का साढ़े तीन साल ही हुआ था.'

फागू चौहान का नाम तो यूं ही लेना पड़ा. नीतीश कुमार तो बस ये बताने की कोशिश कर रहे थे कि अमित शाह का फोन आया था - और पूरी कोशिश यही रही कि हर संबंधित राजनीतिक व्यक्ति तक उनका संदेश सही तरीके से पहुंच जाये.

मतलब, अमित शाह का फोन उनके पास आता है. मतलब, अमित शाह से उनकी बात होती है. मतलब, कोई ये न समझे कि महागठबंधन में आने के बाद से बीजेपी नेतृत्व के साथ उनका कोई संपर्क नहीं रहा - मतलब, ये कि मोदी-शाह के साथ उनका संवाद अब भी कायम है.

ताजा बातचीत की जानकारी तो नीतीश कुमार ने दी है, लेकिन इससे पहले वाली फोन वार्ता के बारे में अमित शाह ने बताया था. अमित शाह और नीतीश कुमार की इससे पहले 7 अगस्त को बातचीत हुई थी - नीतीश कुमार के पाला बदलने से महज दो दिन पहले.

अमित शाह ने बताया था कि नीतीश कुमार के मन बदलने को लेकर उनके मन में भी सवाल रहा, लिहाजा सोचा कि सीधे बात कर पूछ ही लेते हैं. अमित शाह का कहना था कि नीतीश कुमार ने भरोसा दिलाया था कि वो कहीं नहीं जा रहे हैं.

हो सकता है, तब अमित शाह ने बातचीत को लेकर राजनीतिक बयान जारी किया हो. और अब नीतीश कुमार भी अपनी तरफ से बिहार के राजनीतिक हालात को देखते हुए राजनीतिक बयान जारी कर रहे हों.

उपेंद्र कुशवाहा क्या कर रहे हैं?

नीतीश कुमार की अमित शाह से हुई बातचीत लालू यादव के लिए तो महत्वपूर्ण है ही, ऐन उसी वक्त वो उनके ही साथी जेडीयू नेता उपेंद्र कुशवाहा के लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण लगती है - जीतनराम मांझी तो घाट घाट का पानी पीकर शांत हो गये, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा को उम्मीदों की कुछ सुनहरी किरणें दिखायी पड़ रही हैं.

बिहार की राजनीति में उपेंद्र कुशवाहा को ऑपरेशन लोटस से प्रभावित नेता के तौर पर देखा जाने लगा है. कुछ लोगों को उपेंद्र कुशवाहा में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे का अक्स देखा जा रहा है - एकनाथ शिंदे ऑपरेशन लोटस के लेटेस्ट मॉडल हैं.

लेकिन ज्यादातर के मन में सवाल ये है कि नीतीश कुमार सब जानते समझते हुए भी उपेंद्र कुशवाहा के आक्रामक हो जाने के बावजूद एक्शन क्यों नहीं ले रहे हैं?

अगर उपेंद्र कुशवाहा जेडीयू के इतने विधायक तोड़ सकें कि बीजेपी की सरकार बन जाये तो उनका सपना भी आसानी से पूरा हो सकता है - और बिहार में तो कोई देवेंद्र फडणवीस भी नहीं हैं कि बीजेपी को समझौता करना पड़े. सुशील कुमार मोदी को किनारे लगा दिये जाने के बावजूद बिहार में बीजेपी के पास अभी दो-दो डिप्टी सीएम मौजूद हैं. फिलहाल तो उनके नाम के साथ पूर्व लगा हुआ है.

कुछ दिन पहले की ही बात है, जब उपेंद्र कुशवाहा को डिप्टी सीएम बनाये जाने की खूब चर्चा रही. जब पूछा जाता तो उपेंद्र कुशवाहा के चेहरे पर भी वैसी ही रौनक देखने को मिलती जैसी सपा-बसपा गठबंधन के दौर में मायावती के सामने अखिलेश यादव से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के सवाल पर देखने को मिलता था. नीतीश कुमार ने एक ही झटके में उपेंद्र कुशवाहा के अरमानों पर पानी फेर दिया था. एक तो नीतीश कुमार खुद ऐसा नहीं चाहते होंगे, दूसरे तेजस्वी यादव की बराबरी में भला लालू यादव ऐसा होने भी देते क्या?

अभी की स्थिति देखें तो उपेंद्र कुशवाहा को ऐसा ऑफर तो लालू यादव की तरफ से भी दिया जा सकता है. बशर्ते वो जेडीयू को तोड़ कर तेजस्वी यादव को सीएम बनवाने भर विधायकों का इंतजाम कर दें.

उपेंद्र कुशवाहा के हिसाब से देखें तो फिलहाल उनके दोनों हाथों में लड्डू है. जिसके साथ जाने का मन बना लें, अगर वास्तव में जेडीयू के कुछ विधायकों का उनको सपोर्ट हासिल हो.

एकनाथ शिंदे की तरह बीजेपी तो उपेंद्र कुशवाहा को मुख्यमंत्री भी बना सकती है, लेकिन लालू यादव डिप्टी सीएम से ज्यादा शेयर नहीं करने वाले हैं. क्योंकि मुख्यमंत्री तो तेजस्वी यादव ही बनेंगे - और ये बात उपेंद्र कुशवाहा भी अच्छी तरह जानते भी हैं.

अमित शाह के फोन का सार्वजनिक तौर पर जिक्र कर नीतीश कुमार अपनी तरफ से उपेंद्र कुशवाहा को अपनी तरफ से आगाह भी कर रहे हैं - अगर आप अमित शाह के संपर्क में हो तो फोन मेरे पास भी आता है!

लालू कितना दबाव बना पाएंगे?

ये तो साफ साफ नजर आने लगा है कि नीतीश कुमार फिलहाल अमित शाह और लालू यादव के बीच पिसने लगे हैं. अगर ये कोई आवश्यक बुराई जैसी स्थिति है तो आपदा में अवसर के तौर पर भी देख सकते हैं. नीतीश कुमार तो पक्के तौर पर ऐसा ही सोचते होंगे, अगर वाकई ऐसी ही सूरत बन रही हो तो.

लालू यादव तो बस इतना ही चाहते हैं कि नीतीश कुमार बिहार से झोला उठाकर निकल पड़े - और ऐसा करने के लिए उनको विपक्ष को एकजुट करने के लिए देश भर की यात्रा पर भेजना चाहते हैं.

छह महीने पहले नीतीश कुमार ने जो किया था, उसके बाद माना जाने लगा था कि नीतीश कुमार के सामने कोई भी विकल्प नहीं है, और लालू यादव ही राजनीति के रिंग मास्टर बने रहेंगे. तेजस्वी यादव को महागठबंधन का अगला नेता और ऐसे ही कई वाकयों में अपनी अदा से वो लालू परिवार का भरोसा बढ़ाते भी जा रहे थे.

कुछ दिन पहले की ही बात है, नीतीश कुमार ने कहा था कि वो मर जाएंगे, लेकिन बीजेपी के साथ कभी नहीं जाएंगे. अमित शाह का फोन आने का सबसे बड़ा फायदा ये है कि वो अपना बयान डिलीट भी कर सकते हैं - और लालू यादव के लिए ऐसी स्थिति आने देना अभी तो अंतिम विकल्प ही होगा.

लालू यादव के हिसाब से समझें तो नीतीश की मदद से तेजस्वी यादव के लिए राह बनाना ज्यादा आसान है, लेकिन लालू यादव के पास नीतीश की तरह पलटी मारने का ऑप्शन नहीं है.

अगर लालू यादव ने 2015 में जहर का घूंट पीया था, तो क्या बीजेपी भी एक बार पीना नहीं चाहेगी. बेशक 2024 में बीजेपी को मोदी लहर का भरोसा है, लेकिन नीतीश को साथ लेकर राह आसान तो बनायी ही जा सकती है.

आगे जो भी हो, लेकिन 25 फरवरी के बाद ये समझना ज्यादा आसान हो सकता है - देखना होगा कि अमित शाह और नीतीश कुमार अपनी अपनी रैलियों के मंच से एक दूसरे के खिलाफ क्या कहते हैं?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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