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Updated: 22 सितम्बर, 2015 06:21 PM
अभिषेक पाण्डेय
अभिषेक पाण्डेय
  @Abhishek.Journo
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देश के सभी नागरिकों को एक विशेष पहचान मुहैया कराने के लिए शुरू की गई आधार योजना को निस्संदेह एक बेहतरीन कोशिश कहा जा सकता है. इंफोसिस के संस्थापक नंदन नीलेकणि के दिमाग की उपज आधार का यह मत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट थोड़े से लालच और लापरवाही के कारण सबसे बड़ी त्रासदी में तब्दील होकर रह गया. शायद आधार की ऐसी ही हालत को देखते हुए इसे सभी तरह के पहचान पत्रों के विकल्प मानने के अनुरोध को सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया. आखिर क्यों यह बेहतरीन प्रोजेक्ट विवादों की अंतहीन दास्तां बनकर रह गया, आइए जानें...

क्या है आधार योजनाः
आधार योजना को यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूआईडीएआई) के नाम से भी जाना जाता है. भारत सरकार ने इसकी शुरुआत देश के सभी नागरिकों की बायोमैट्रिक और भौगोलिक जानकारी को इकट्ठा करके उसका एक सेंट्रलाइज्ड डेटाबेस तैयार करने के लिए की थी. दुनिया का सबसे बड़ा नागरिक पहचान नंबर प्रोजेक्ट कहा जाता है.

आधार को नहीं मिली सुप्रीम कोर्ट की मंजूरीः
अगस्त 2015 को दिए अपने एक आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि आधार का प्रयोग सार्वजनिक वितरण प्रणालियों, किरोसिन और एलपीजी वितरण प्रणाली के अलावा किसी और चीज के लिए नहीं किया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने 2 सितंबर 2013 को अपने एक अंतरिम आदेश में कहा कि किसी भी नागरिक को इस बात के लिए उसके पास आधार नहीं है सरकार कोई भी सेवा देने से इंकार नहीं कर सकती है. कोर्ट ने कहा था कि आधार स्वैच्छिक है, अनिवार्य नहीं.

आधार से जुड़ते रहे हैं विवादः आधार योजना की शुरुआत के समय से ही इसके साथ विवाद जुड़ते रहे हैं. अब इसमें एक और ताजा विवाद जुड़ा है. इसके मुताबिक यूपीए सरकार ने 13,663 करोड़ की भारीभरकम राशि‍ आधार योजना के नाम पर बिना किसी टेंडर के ही प्राइवेट कंपनियों में बांट दी. इतना ही नहीं इनमें से 6562 करोड़ रुपये की रकम ठेकेदार कंपनियों को अदा भी की जा चुकी है. हालांकि सरकार ने यह काम टीसीएस, एचपी, महिंद्रा सत्यम जैसी जानीमानी कंपनियों को दिया था, लेकिन फिर भी सवाल तो उठता है कि क्यों सरकारी काम देते समय टेंडर मंगवाने की प्रक्रिया नहीं अपनाई गई और इसे बिना किसी टेंडर के ही निजी हाथों में सौंप दिया गया. इससे पहले भी इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जाते रहे हैं. सिटीजन फोरम फॉर सिविल लिबर्टीज और इंडियन सोशल ऐक्शन फोरम (INSAF) जैसे कुछ नागरिक स्वतंत्रता समूहों ने सुरक्षा के मुद्दे पर इसका विरोध किया है, जिसके कारण इस पर लाया जाने वाला विधेयक अब भी संसद में अटका है.

समाने आईं थीं हैरान करने वाली गड़बड़ियां
इस बेहतरीन योजना को कितनी लापरवाही से अंजाम दिया गया इसके एक नहीं कई उदाहरण हैं. कर्नाटक में आधार कार्ड में 4 साल की लड़की से लेकर 7 से 15 साल के बच्चों तक को ट्रांसजेंडर बता दिया गया तो जयपुर में तो बजरंगबली तक का आधार कार्ड बनाने का मामला सामने आया. मजेदार बात ये कि इस आधार कार्ड के पते में नाम हनुमान जी पुत्र पवन देव लिखा था. इसी तरह के एक और मामले में तमिलनाडु में आधार कार्ड बनाने के लिए खींची जाने वाली फोटो के लिए लड़कियों को दुपट्टे पहनकर आना अनिवार्य करने पर विवाद हुआ था. इसी तरह वाराणसी में एक शख्स को कुत्ते का आधार कार्ड बनवाने की कोशिश के लिए अरेस्ट किया गया था. इन सब उदाहरणों से पता चलता है कि सरकार ने इतने संवेदनशील काम को करने के लिए कितनी लापरवाही से काम किया और एक अच्छी योजना की साख पर बट्टा लगा दिया.

अच्छी योजना का किया गया कबाड़ा
आधार की योजना को निश्चित तौर पर शानदार सोच कहा जा सकता है. इससे देश के सभी नागरिकों की बायोमैट्रिक पहचान का डेटाबेस बनाने में मदद मिलती. लेकिन इस योजना को पूरा करने के लिए सरकार ने जैसा रवैया अपनाया उससे इसकी विश्वसनीयता तार-तार हो गई. यही कारण है कि इसे सुप्रीम कोर्ट का भरोसा भी नहीं मिल पाया. सरकार ने आधार कार्ड बनाने का काम बिना टेंडर के ही प्राइवेट कंपनियों को सौंप दिया. साइबर एक्सपर्ट्स मानते हैं कि देश के 125 करोड़ लोगों की बायोमैट्रिक जानकारी को निजी हाथों में सौंपना निश्चित तौर पर खतरनाक है. साथ ही किसी विश्वसनीय एजेंसी को आधार कार्ड बनाने का काम न सौंपकर सरकार ने इस योजना को फूलप्रूफ बनाने का मौका गंवा दिया. जिस योजना को देश के नागरिकों को पहचान देने के लिए मील का पत्थर साबित होना चाहिए था, वह खुद ही अपनी ही विश्वसनीयता पर उठे सवालों के बीच फंसकर रह गई.

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लेखक

अभिषेक पाण्डेय अभिषेक पाण्डेय @abhishek.journo

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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