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Updated: 19 सितम्बर, 2015 04:35 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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काल के हिसाब और लिहाज से बनारस भले ही बूढ़ा हो चला हो, मगर उसका मिजाज बिलकुल जवान है - और आगे भी बना रहेगा. इस मिजाज का राज भी शायद बनारसी मस्ती में छुपा हुआ है. ये मस्ती का ही आलम है जो शहर के आन बान और शान का चौतरफा बखान करता है - और दुनिया के कोने कोने से लोग खुद ब खुद खिंचे चले आते हैं.

काश, काशी ही रहने देते

कांग्रेस के कमलापति त्रिपाठी का जमाना लद जाने के बाद, बनारस बीजेपी का गढ़ बन गया. 84 की इंदिरा लहर में श्यामलाल यादव ने मोर्चा जरूर संभाला लेकिन फिर अयोध्या आंदोलन के दौरान श्रीशचंद्र दीक्षित ने झटक लिया. उसके बाद तो शंकर प्रसाद जायसवाल कुंडली मार कर ही बैठ गए. बीच में राजेश मिश्रा ने सेंध लगाई लेकिन फिर मुरली मनोहर जोशी आ डटे - उसके बाद तो नरेंद्र मोदी ने कमान संभाल ली - और प्रधानमंत्री बननेवाले बनारस के दूसरे सांसद बने.

1977 में चंद्रशेखर वाराणसी लोक सभा सीट से सांसद चुने गए थे जो बाद में कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने. हालांकि, तब वो बलिया से सांसद रहे. जब 2014 में मोदी ने वाराणसी से नामांकन दाखिल किया तो हुआ कि तरक्की की राह गुजरात मॉडल से होकर गुजरेगी. फिर चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनने के बाद जब मोदी जापान गए तो काशी को क्योटो की तरह विकसित किए जाने की बात सुनी जाने लगी.

चुनाव जीतने के बाद पहली बार जब मोदी बनारस पहुंचे तो घाट पर खड़े होकर उन्होंने गंगा को प्रदूषण से निजात दिलाने का संकल्प लिया. राजीव गांधी के गंगा एक्शन प्लान से निराश हो चुके बनारस के लोगों को कुछ होने की उम्मीद बंधी. मोदी को एक्टिव होते देख अखिलेश सरकार भी सक्रिय नजर आने लगी. जब असी नदी को लेकर हर कोशिश बेजान नजर आई तो वरुणा को ही संवारने का ख्याल आया. फिर वाराणसी लखनऊ के फरमान पर शहर को अतिक्रमण से काफी हद तक निजात दिलाने वाले डीएम प्रांजल यादव को सेंटियागो भेजा गया. फिर तो बनारस को सेंटियागो बनाने की भी बात चल पड़ी. बाद में यादव का तबादला भी हो गया.

ज्यादा दिन नहीं हुए. अभी बरसात में ही बनारस के लोग घर से बाहर निकलने के लिए भी जूझते रहे. गलियों में घुटने तक पानी तो शहर की सड़कों पर लंबे जाम. फिलहाल तो यही बनारस के लिए हर रोज की रवायत है.

सेंटर और सूबे की सरकार में फंसा पेंच

लोक सभा चुनाव में डेढ़ साल बीत चुके हैं - और विधानसभा चुनाव में अभी दो साल बाकी हैं. ऐसे में केंद्र की मोदी सरकार और राज्य की अखिलेश सरकार में क्रेडिट लेने और गलतियों के लिए दूसरे को जिम्मेदार ठहराने की कवायद चलती रहती है. प्रधानमंत्री ने इंटीग्रेटेड पावर प्रोजेक्ट लांच कर दिया है, बीएचयू के ट्रॉमा सेंटर का भी आखिरकार उद्घाटन हो चला है - लेकिन सिर्फ इतने से क्या क्या हो सकता है.

लोक सभा चुनावों में बीजेपी को तो भारी कामयाबी मिली लेकिन सत्ता में होने के बावजूद समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के परिवार के लोग ही अपनी सीट बचा पाए. चुनाव बीता ही था कि बिजली को लेकर बनारस के लोग बेहाल हो उठे. इस पर बीजेपी कार्यकर्ताओं ने हंगामा मचाना शुरू कर दिया. आरोप था कि जिन सीटों पर मुलायम की पार्टी को जीत मिली है उन्हें छोड़ कर बाकियों को बिजली के बहाने सबक सिखाया जा रहा है. बनारस के लोग भी इसीलिए बिजली कटौती के शिकार हो रहे हैं.

खैर, बाद में बनारस को वीआईपी क्षेत्र के नाम पर 24 घंटे बिजली देने की बाद हुई - जो ज्यादातर कागजों तक ही सीमित रही क्योंकि हाल तक हकीकत में 7-8 घंटे की बिजली कटौती तो आम बात बताई जा रही है. अब चाहे गेहूं की फसल का सीजन रहा हो या धान का मौसम, आम लोग हों या कारोबारी - सभी की एक ही जैसी मुश्किल है.

मोदी सरकार उन्हीं जगहों पर कार्यक्रम तक आयोजित करती है जो केंद्र के अधिकार क्षेत्र में आते हैं. मोदी का ताजा कार्यक्रम या तो कैंटोमेंट में रहा या फिर रेलवे के डीएलडब्ल्यू में. या फिर बीएचयू से जुड़ा जो केंद्र के अधीन हैं. बीजेपी का आरोप है कि सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट में भी लोचा इसलिए है क्योंकि उस पर केंद्र की नहीं चलती - और किसी न किसी बहाने उसमें लगातार पेंच फंसा दिया जाता है.

हालांकि, ऐसे आरोप कई बार यूं ही हजम भी नहीं होते. जब संसद में गतिरोध खत्म करने में मोदी सरकार को मुलायम सिंह का साथ मिल जाता है, बिहार में उनके महागठबंधन से हटने से सहूलियत मिल जाती है - फिर बनारस पहुंच कर पेंच कहां फंस जाता है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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