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Updated: 14 अक्टूबर, 2018 04:06 PM
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प्रोफेसर जीडी अग्रवाल की मौत से गंगा की फिक्र करने वाले बेहद निराश हैं, तो हरिद्वार के मातृ सदन में शोक व्याप्त है. प्रोफेसर जीडी अग्रवाल ने मातृ सदन के संत ज्ञानानंद से ही दीक्षी ली थी - और गंगा की सेवा के लिए सन्यासी बन गये थे. तभी से नाम भी बदल गया - स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद. मातृ सदन की तो अब उम्मीदें भी टूटने लगी हैं. गंगा को बचाने में मातृ सदन के तीसरे संत की मौत हो चुकी है. गंगा को लेकर ही 2011 में 115 दिन के अनशन के बाद स्वामी निगमानंद ने दम तोड़ दिया था.

मातृ सदन के प्रमुख स्वामी शिवानंद सरस्वती का तो सीधा इल्जाम है कि स्वामी सानंद की सरकार के इशारे पर हत्या की गयी है. सोशल मीडिया पर भी लोगों ने प्रोफेसर अग्रवाल की मौत को हत्या ही करार दिया है.

हैरानी की बात तो ये है कि जिस सरकार में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं बल्कि उमा भारती और नितिन गडकरी जैसे उनके कैबिनेट साथी भी गंगा को लेकर सबसे ज्यादा फिक्रमंद होने का दावा करते हों - उसके शासन में गंगा को बचाने के लिए जूझ रहे एक संन्यासी को मरने के लिए छोड़ दिया जाता है? ऐसा कैसे हो सकता है?

प्रोफेसर अग्रवाल की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है और ऐसी दूसरी बातें अपनी जगह हैं - लेकिन एक सीधा सा सवाल ये भी है कि क्या प्रोफेसर अग्रवाल की जिंदगी बचायी नहीं जा सकती थी?

गंगा पर उमा भारती का MeToo

जिस दिन प्रोफेसर जीडी अग्रवाल को जबरन अस्पताल में भर्ती कराया गया, उसी दिन केंद्र सरकार के दो मंत्री प्रेस कांफ्रेंस कर गंगा और नदियों को लेकर सरकारी उपलब्धियों का बखान कर रहे थे. प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के अनशन के सवाल पर नितिन गडकरी ने कहा कि उनकी 70-80 फीसदी मांगें मान ली गई हैं - जिसे लेकर उन्हें पत्र लिखा गया है.

कभी गंगा के लिए जान की बाजी तक लगा देने जैसे दावे करने वाली उमा भारती सरकारी प्रयासों की शेखी बघारने के चक्कर में नितिन गडकरी की तारीफों के पुल बांधती रहीं और फिर बातों बातों में ही गंगा सफाई अभियान को MeToo कैंपेन से जोड़ दिया. नमामि गंगे!

उमा भारती ये समझाने की कोशिश कर रही थीं कि गंगा और यमुना की सफाई का मिशन जब पूरा हो जाएगा तो दुनिया भर की नदियां 'MeToo-MeToo' शोर मचा रही होंगी.

uma bharti, modiयहां भी #MeToo!

उमा भारती बोलीं, "नदियों को बचाने की दृष्टि से... अब ये नदियों का अभियान चलने वाला है बहुत बड़ा... अभी ये गंगा के लिए होगा... यमुना के लिए भी होगा... और फिर देश की और दुनिया की सारी नदियां अब पुकार लगाने वाली हैं - #MeToo. मतलब अब मेरे लिए भी अभियान शुरू करो."

प्रेस कांफ्रेंस में ही नितिन गडकरी ने ये भी कहा कि उन्हें भरोसा है कि प्रोफेसर अग्रवाल अपना अनशन खत्म कर देंगे. मगर अफसोस, ऐसा नहीं हुआ. अगले ही दिन 11 अक्टूबर को प्रो. अग्रवाल की मौत हो गयी. प्रोफेसर अग्रवाल 111 दिन से अनशन पर थे और मौत से दो दिन पहले उन्होंने जल भी त्याग दिया था.

नितिन गडकरी ने अनशन खत्म करने का भरोसा तो जताया लेकिन क्या प्रोफेसर की जान बचाने की भी कोई कोशिश की? अगर प्रशासन को जबरन अस्पताल ले जाना ही था तो इतनी देर क्यों हुई कि प्रोफेसर अग्रवाल की जान पर बन आयी?

प्रोफेसर अग्रवाल को मरने क्यों दिया?

प्रोफेसर अग्रवाल कोई गुमनाम या मामूली व्यक्ति नहीं थे. उनकी शख्सियत और काबिलियत ऐसी रही कि गंगा पुत्र से लेकर उन्हें आधुनिक भगीरथ तक की संज्ञा दी जाती रही. प्रोफेसर अग्रवाल ने गंगा को बचाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था. फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखते वक्त उन्हें अपना विस्तृत परिचय देना पड़ा. शायद इस वजह से कि कहीं सरकारी मशीनरी उन्हें भी दूसरे धंधेबाज बाबाओं की तरह न समझ लिया जाये.

प्रोफेसर अग्रवाल ने प्रधानमंत्री के नाम अपने पत्र में लिखा, "मैं आईआईटी में प्रोफेसर, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का सदस्य होने साथ गंगाजी पर बने सरकारी संगठनों का सदस्य रहा हूं. इन संस्थाओं का हिस्सा होने के चलते इतने सालों से अर्जित अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि आपकी सरकार के चार सालों में गंगाजी को बचाने की दिशा में किए गए एक भी कार्य को फलदायक नहीं कहा जा सकता है."

prof gd agrawalएक गंगा पुत्र की मौत के बाद...

केंद्रीय मंत्री उमा भारती से मुलाकात के दौरान प्रोफेसर अग्रवाल ने अपनी तीसरी और आखिरी चिट्ठी उनके हाथ में सौंप दी. वो प्रधानमंत्री से आश्वासन चाहते थे. प्रोफेसर अग्रवाल को न तो नितिन गडकरी पर भरोसा हो रहा था, न उमा भारती पर. गंगा की सफाई वाले विभाग की मंत्री रहते उमा भारती ने बड़े बड़े दावे किये थे - अंतिम नतीजा ये रहा कि संतोषजनक प्रगति न होने के कारण कैबिनेट फेरबदल में वो विभाग नितिन गडकरी को सौंप दिया गया. अपनी मौत से पांच दिन पहले पत्र में प्रोफेसर अग्रवाल ने प्रधानमंत्री मोदी को बहुत सारी बीती बातें याद दिलाने की कोशिश भी की, "मुझे काफी भरोसा था कि प्रधानमंत्री बनने के बाद आप गंगाजी के बारे गंभीरता से सोचेंगे. क्योंकि आपने 2014 चुनावों के दौरान बनारस में स्वयं कहा था कि आप वहां इसलिए आए हैं क्योंकि आपको मां गंगाजी ने बुलाया है... इस विश्वास के चलते मैं पिछले साढ़े चार साल से शांति से इंतजार कर रहा था."

और फिर आखिरी चेतावनी भी दे डाली, "3.08.2018 को केंद्रीय मंत्री साध्वी उमा भारती जी मुझसे मिलने आई थीं. उन्होंने फोन पर नितिन गडकरी जी से मेरी बात कराई, लेकिन प्रतिक्रिया की उम्मीद आपसे है. इसीलिए मैने सुश्री उमा भारती जी को कोई जवाब नहीं दिया. मेरा यह अनुरोध है कि आप निम्नलिखित चार वांछित आवश्यकताओं को स्वीकार करें जो मेरे 13 जून 2018 को आपको लिखे गए पत्र में सूचीबद्ध है. यदि आप असफल रहे तो मैं अनशन जारी रखते हुए अपना जीवन त्याग दूंगा."

क्या प्रोफेसर अग्रवाल की ये बातें प्रधानमंत्री तक पहुंच पायी थीं? सरकार प्रोफेसर अग्रवाल को लेकर इतनी गंभीर थी कि एक मंत्री को उनके पास भेजा गया - और दूसरे मंत्री से फोन पर बात करायी गयी, लेकिन उसके बाद?

पांच दिन कम नहीं होते हैं. प्रधानमंत्री को पत्र लिखने के पांच दिन बाद तक प्रोफेसर अग्रवाल जिंदा रहे. यही वजह रही कि ट्विटर पर प्रधानमंत्री मोदी के शोक जताने पर लोगों का गुस्सा और भड़क उठा कि सरकारी मशीनरी ने एक काबिल प्रोफेसर, और गंगा के प्रति जिंदगी समर्पित कर देने वाले संत को यू्ं ही मरने दिया और अब शोक जताया जा रहा है.

क्या काला धन वापस लाने से भी मुश्किल था?

फिल्म 'मांझी: द माउंटेनमैन' के एक संवाद में दो मुश्किलों की तुलना है. जब एक किरदार अखबार निकालने को कठिन काम बताता है तो तो मांझी के किरदार में नवाजुद्दीन सिद्दीकी का सवाल होता है, "पहाड़ काटने से भी..."

अगर विदेशों से काला धन लाने की मुश्किल से प्रोफेसर जीडी अग्रवाल की जान बचाने की तुलना करें तो वैसा ही सवाल उठता है - काले धन की वापसी से मुश्किल तो नहीं था प्रोफेसर अग्रवाल की जान बचाना!

लोगों की मौत के बाद सूईसाइड नोट मिलते हैं, प्रोफेसर अग्रवाल ने तो एक मंत्री के हाथों में प्रधानमंत्री के नाम पत्र लिख कर अपनी मौत की घोषणा कर रखी थी, फिर भी मरने के लिए छोड़ दिया गया - आखिर क्यों?

प्रोफेसर जीडी अग्रवाल की मौत के एक दिन बाद मुंबई में आयोजित एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी का सवाल था, "चुनाव जीतने के बाद कहां लुप्त हुआ सेवाभाव? क्या सत्ता प्राप्ति का यही एकमात्र उद्देश्य है?"

ऐसे सवाल-जवाब तो होंगे ही, हिसाब-किताब होने में भी अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है. अगर किसी ने भेजा भी नहीं था और कोई अपने से पहुंचा भी नहीं था - तो बुलाने वाली मां गंगा सवाल भी जरूर पूछेंगी?

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