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Updated: 13 नवम्बर, 2022 08:20 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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बीजेपी नेतृत्व यानी मोदी-शाह (Modi-Shah) की जोड़ी की उदारता की जैसी मिसाल महाराष्ट्र में देखने को मिल रही है, बिहार में भी बिलकुल वैसा ही मामला लगता है - महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे खेमे से आ रहे इशारों और बिहार को लेकर चिराग पासवान के ताजा बयान से तो ऐसा ही लगता है.

महाराष्ट्र की राजनीति में राज्य सभा सांसद संजय राउत की रिहाई और दिवाली के मौके पर देवेंद्र फडणवीस के बयान को नये समीकरणों की तरफ बढ़ते देखा जाने लगा है. जेल से रिहा होने के बाद जिस तरह से संजय राउत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिलने और महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस की तारीफ की है - उद्धव ठाकरे की शिवसेना के भी बीजेपी खेमे में घर वापसी के संकेत माने जाने लगे हैं.

तभी तो इंडिया टुडे कॉनक्लेव में आदित्य ठाकरे से बीजेपी के साथ फिर से जाने की संभावना को लेकर सवाल पूछ लिया गया. आदित्य ठाकरे ने सवाल को काल्पनिक परिस्थितियों का बता कर पल्ला झाड़ने की कोशिश की, लेकिन हाल ही में शिवसेना मुखपत्र सामना में प्रकाशित एक लेख में देवेंद्र फडणवीस की तारीफ से पहले ही साफ हो गया था कि अंदर ही अंदर कोई खिचड़ी तो पक ही रही है.

जैसे उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र में बीजेपी के बिछड़े हुए सहयोगी हैं, ठीक वैसे ही बिहार में चिराग पासवान (Chirag Paswan) नजर आते हैं. वैसे उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) के मुकाबले चिराग पासवान और बीजेपी के रिश्तों को लेकर तस्वीर ज्यादा साफ नजर आ रही है - खास कर चिराग पासवान और अमित शाह की मुलाकात के बाद.

बिहार की दो सीटों मोकामा और गोपालगंज पर हुए उपचुनाव को लेकर चिराग पासवान और अमित शाह के बीच एक लंबी मीटिंग हुई थी, जिसके बाद चिराग पासवान ने दोनों ही उपचुनावों में बीजेपी उम्मीदवार के समर्थन का ऐलान किया था. अब बात ऐसे आगे बढ़ी है कि 5 दिसंबर को होने जा रहे कुढ़नी विधानसभा उपचुनाव को लेकर चिराग पासवान की पार्टी की तरफ से दावेदारी जतायी जा रही है, लेकिन अंतिम फैसला तो बीजेपी नेतृत्व ही करेगा.

वैसे भी जिस दौर से चिराग पासवान और उद्धव ठाकरे की राजनीति गुजर रही है, बीजेपी के अलावा संकट से उबारने वाला कोई और मददगार भी नजर नहीं आ रहा है. बिहार में तो चिराग पासवान की किस्मत नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ते ही लगभग चमकनी शुरू हो गयी थी, लेकिन महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की राह में मुश्किलें काफी हैं.

उद्धव ठाकरे और चिराग पासवान अलग अलग समय पर अलग अलग मकसद के चलते मोदी-शाह के राजनीतिक प्रयोगों के ही शिकार बने हैं, लेकिन दोनों के ही सर्वाइवल किट में जिंदा बचे रहने के अलावा कोई खास चीज नहीं बची है - और दोनों को ही धीरे धीरे बीजेपी नेतृत्व की तरफ ही शरणागत होते देखा जा सकता है.

ये तो है कि बीजेपी दोनों ही नेताओं और उनकी राजनीतिक पार्टियों को पहले की तरह ही खड़ा होने में मदद कर सकती है, लेकिन शर्तें भी तो बीजेपी नेतृत्व ही लागू करेगा - और वो शर्तें उद्धव ठाकरे और चिराग पासवान दोनों को ही मानने होंगे.

जहां तक महाराष्ट्र की बात है, तो वहां मामला एकतरफा ही लगता है. बीजेपी को जो चाहिये था उद्धव ठाकरे से बदला लेते हुए एकनाथ शिंदे को तोड़ कर मोदी-शाह हासिल कर चुके हैं, और अब उद्धव ठाकरे को राजनीतिक अस्तित्व बचाये रखने के लिए संघर्ष करना है. वो चाहें तो ये अपने दम पर भी कर सकते हैं, लेकिन अगर बीजेपी का साथ मिल जाये तो चीजें तो थोड़ी आसान हो सकती हैं.

chirag paswan, modi shah, uddhav thackerayचिराग पासवान हों या उद्धव ठाकरे दोनों के ही मामले में बीजेपी रिंग मास्टर बने रहना चाहती है

बिहार के मामले में बदले हालात में सिर्फ चिराग पासवान को ही नहीं, बल्कि बीजेपी को भी उनकी उतनी ही जरूरत है. नीतीश कुमार के बारे में भले ही लग रहा हो कि उनकी राजनीति खत्म होने के कगार पर है, लेकिन लालू यादव के साथ हाथ मिलाकर नीतीश कुमार ने बीजेपी का पूरा प्लान ही बिगाड़ दिया है.

बिहार को लेकर चिराग पासवान का जो भी सपना हो, लेकिन बीजेपी नीतीश कुमार की तरह तो चिराग पासवान का सपोर्ट नहीं ही करने वाली है. हां, जैसे बिहार चुनाव 2020 में चिराग पासवान के जरिये नीतीश कुमार को डैमेज किया था - वो सिलसिला आगे भी जारी रहेगा.

चिराग की घर वापसी पर बातचीत चालू है

बिहार में हुए दो विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव ने चिराग पासवान को बीजेपी नेतृत्व के काफी करीब ला दिया है - और लगता है महीने भर के अंतराल पर होने जा रहा तीसरा उपचुनाव बाकी बची कसर भी पूरी कर देगा.

चिराग पासवान और बीजेपी के रिश्तों के खराब होने में मुख्य भूमिका नीतीश कुमार की रही है. ये नीतीश कुमार ही हैं जिनको कमजोर करने के लिए बीजेपी ने चिराग पासवान को खास रणनीति के तहत बिहार चुनाव में जेडीयू के खिलाफ इस्तेमाल किया था. चुनाव बाद वाद के हिसाब से बीजेपी ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री तो बनाया ही, नाराजगी दूर करने के लिए चिराग पासवान से दूरी बना ली.

रामविलास पासवान की बनायी लोक जनशक्ति पार्टी को तोड़ने में नीतीश कुमार और बीजेपी दोनों ही बराबर भूमिका रही. फर्क ये रहा कि नीतीश कुमार ने ललन सिंह के जरिये आग लगायी और भनक लगते ही बीजेपी ने फायर ब्रिगेड बन कर आग बुझा दी, लेकिन मौके का पूरा फायदा भी उठाया. साजिश के इस ज्वाइंट वेंचर में चिराग पासवान और भी ज्यादा कमजोर हो गये - एलजेपी संसदीय दल का नेता पद भी हाथ से चला गया.

जैसे तैसे चिराग पासवान अकेले दम पर अस्तित्व बचाये रखने के लिए चुनावी राजनीति में हाथ आजमाते रहे, लेकिन किसी भी उपचुनाव में उम्मीदवारों का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा - और फिर नीतीश कुमार का अचानक पाला बदल लेना चिराग पासवान के लिए बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने जैसा रहा. धीरे धीरे असर भी नजर आने लगा है.

चिराग पासवान ने अपनी तरफ से तो कभी इस बात से इनकार नहीं किया था कि वो मोदी के हनुमान नहीं रहे, लेकिन बार बार ये बोलना जरूर बंद कर दिया था. और उस दौरान आरजेडी के साथ भी नजदीकियां देखी जाने लगी थीं. तेजस्वी यादव को चिराग पासवान अपना छोटा भाई बताते रहे हैं.

नीतीश कुमार के महागठबंधन में जाने का वक्त चिराग पासवान के लिए काफी महत्वपूर्ण रहा. चिराग पासवान को तभी स्टैंड लेना था कि वो बीजेपी विरोध वाली राजनीति का हिस्सा बनना चाहते हैं या फिर एनडीए से अपने रास्ते के कांटा साफ हो जाने का फायदा उठाना चाहते हैं. बिहार की एक इफ्तार पार्टी में जिस तरीके से चिराग पासवान और नीतीश कुमार की भेंट हुई और जेडीयू नेता ने उनके प्रति जो स्नेह भाव दिखाया, बहुतों को नये समीकरण दिखायी देने लगे थे, लेकिन चिराग पासवान ने वैसा कुछ नहीं किया.

चिराग पासवान ने नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ते ही बीजेपी के सपोर्ट में खड़े होने का फैसला लिया - और उपचुनाव में चुनाव प्रचार का मौका देकर बीजेपी ने चिराग पासवान के अपने साथ खड़े होने की बात पर मुहर तो लगा ही दी है. थोड़ी बहुत चीजें कुढ़नी उपचुनाव के बाद सामने आ जाएंगी.

एनडीए में वापसी को लेकर चिराग पासवान की बातों से ऐसा लगता है जैसे बातचीत काफी आगे बढ़ चुकी है, कुछ चीजें ऐसी हैं जो पेंच फंसाये हुए हैं और उन पर ही अंतिम फैसला होना बाकी है. एक इंटरव्यू में चिराग पासवान बताते हैं, अभी चर्चा चल रही है... उपचुनाव से पहले समर्थन को लेकर हमने घोषणा की... समर्थन भी दिया... गठबंधन को लेकर अभी कई बातें हैं जिन पर चर्चा होनी बाकी है.'

चिराग पासवान की अमित शाह के साथ 45 मिनट से ज्यादा की मुलाकात रही और इस दौरान लोक सभा और विधानसभा चुनावों पर भी बात हुई. साथ ही, चिराग पासवान ने वे मुद्दे भी उठाये जिनकी उनको फिक्र है. स्वाभाविक भी है.

बीजेपी के पास सुलह का एक ही फॉर्मूला है

चिराग पासवान को लेकर तो बीजेपी का रुख करीब करीब साफ हो ही चुका है, उद्धव ठाकरे के लिए भी मोदी-शाह के पास बिलकुल वही फॉर्मूला है - ठीक है, फिर से साथ आ जाओ... हम माफ कर देंगे. जाहिर है जिसके पास ताकत होती है, ऐसा ही व्यवहार करता है. भले ही ताकतवर का रवैया गलत है, लेकिन कमजोर से ही माफी मंगवाता है और माफ कर देने का एक और एहसान थोप देता है.

बगावत और विवाद के बाद शिवसेना और लोक जनशक्ति पार्टी दोनों का ही हाल एक जैसा ही हुआ है. चुनाव आयोग ने दोनों ही दलों के दोनों गुटों को अलग अलग नाम और सारी जरूरी चीजें दे दी हैं - फिर भी दोनों दलों के मामले में एक बड़ा फर्क भी है. और दोनों के मामले में एक प्वाइंट पर बीजेपी का रुख भी अलग है.

बीजेपी के उद्धव ठाकरे और चिराग पासवान से अलग अलग व्यवहार की वजह भी साफ है. चिराग पासवान ने बीजेपी नेतृत्व को कभी उद्धव ठाकरे की तरह चैलेंज नहीं किया है. उद्धव ठाकरे ने तो एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिला कर बीजेपी को औकात बताने जैसा काम किया है, लेकिन चिराग पासवान तो बहुत कुछ गवां कर भी कभी पलट कर जवाब तक नहीं दिया है. जाहिर है जो जैसा करेगा, सलूक भी उसके साथ वैसा ही होगा.

महाराष्ट्र के मामले में अभी ये तो साफ नहीं हो सका है कि बीजेपी उद्धव ठाकरे की शिवसेना के साथ अलग से गठबंधन करना चाहती है या एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे गुट दोनों को मिला कर - जबकि चिराग पासवान से बीजेपी को अपेक्षा है कि वो अपने चाचा पशुपति कुमार पारस से सुलह कर लें.

सवाल है कि सुलह का तौर तरीका क्या होगा? लोक जनशक्ति पार्टी का नेता कौन होगा? क्या चिराग पासवान, चाचा को नेता मान पाएंगे? या फिर पशुपति कुमार पारस अब भी भतीजे का नेतृत्व स्वीकार कर पाएंगे?

पशुपति कुमार पारस देखा जाये तो अपने हिस्से का सब कुछ हासिल कर चुके हैं. बिहार का मुख्यमंत्री बनने की स्थिति में तो रामविलास पासवान भी कभी नहीं पहुंच पाये, लेकिन जिस तरह केंद्र में वो ज्यादातर सरकारों में मंत्री बने रहे, पशुपति कुमार पारस ने वो मजा तो ले ही लिया है.

पशुपति कुमार पारस का अलग से अपना कोई राजनीतिक आधार कभी नहीं बन सका, क्योंकि वो सिर्फ भाई के संपर्क सूत्र बने रहे. पशुपति कुमार पारस की स्थिति भी यूपी के शिवपाल यादव की राजनीति से ही मिलती जुलती लगती है. हालांकि, शिवपाल यादव को अलग से पारस जैसा फायदा उठाने का मौका अब तक नहीं मिल सका है. फिर भी शिवपाल यादव लगातार बीजेपी के आस पास ही मंडराते नजर आते रहे हैं.

ये सही है कि उपचुनावों में चिराग पासवान कोई करिश्मा नहीं दिखा पाये हैं, लेकिन बिहार में रामविलास पासवान के समर्थक अभी तक उनको ही अपना नेता मानते लगते हैं. अगर किसी रूप में चिराग पासवान और पशुपति कुमार पारस के बीच बिहार की जमीन पर पासवान समुदाय के बीच आमने सामने का मुकाबला हो तो चिराग पासवान ही भारी पड़ेंगे, ऐसा लगता है - और अगर बीजेपी भी इस जमीनी हकीकत से वाकिफ है तो वो किसी एक को इग्नोर कर दूसरे के साथ तो नहीं ही जाएगी.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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