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Updated: 09 जून, 2016 08:01 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
  @rmisra
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अब से कुछ ही घंटों में भारतीय जनता पार्टी की अहम वार्षिक राष्ट्रीय कार्यकारिणी इलाहाबाद में शुरू होने वाली है. वैसे तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्य में दो अहम आम सभा करके चुनावी बिगूल फूंक दिया है लेकिन माना जा रहा है कि इस अधिवेशन से पार्टी चुनाव की तैयारी को टॉप गियर में डाल देगी. ऐसे में क्या असम का कार्ड दोहराते हुए बीजेपी राज्य में मुख्यमंत्री पद के लिए अपने उम्मीदवार की घोषणा भी कर सकती है? पार्टी के पास स्मृति ईरानी और वरुण गांधी के अलावा एक नाम को और आगे बढ़ाने का विकल्प है. वह है केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह का. आश्चर्य हुआ तो जरा गौर करें...

लोकसभा चुनावों के वक्त राजनाथ सिंह पार्टी के अध्यक्ष थे और उनकी अध्यक्षता में ही पार्टी ने उत्तर प्रदेश में 71 सीटों पर जीत दर्ज की. यह बात अलग है कि चुनाव की रणनीति और प्रचार का दारोमदार खुद नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथ में था और जीत के बाद पारितोषिक भी अमित शाह को अध्यक्ष बना कर दिया गया. लेकिन यह भी राजनीतिक हकीकत है कि पार्टी से राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके राजनाथ सिंह प्रदेश के सबसे कद्दावर नेता भी हैं. और दूसरी हकीकत यह भी है कि 2014 के आम चुनावों के नतीजे आने से पहले राजनीतिक गलियारों में यह भी कयास लग रहा था कि यदि बीजेपी और उसकी समर्थित एनडीए को सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या नहीं मिलती तो बाहर से दलों का समर्थन लेने की स्थिति में मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से बीजेपी को समझौता करना पड़ सकता है. इस स्थिति में सर्वसम्मतति से प्रधानमंत्री के तौर पर राजनाथ सिंह का नाम शीर्ष पर था. लेकिन, चुनाव के नतीजों ने इस कयास को पूरी तरह बेमानी कर दिया और मोदी लहर के नाम पर बीजेपी को एक शक्तिशाली मैनडेट मिला, जिसके बाद मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी से रोकना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो गया.

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नरेंद्र मोदी और अमित शाह

नतीजों के फौरन बाद राजनाथ सिंह ने संगठन और पार्टी की जिम्मेदारी संभालने की मंशा जाहिर की. लेकिन केन्द्र की सत्ता संभालते ही मोदी ने राजनाथ सिंह को गृह मंत्री का पद देते हुए उन्हें सरकार में दूसरे नंबर का नेता बना दिया और फिर पार्टी के अध्यक्ष पद पर अपने विश्वसनीय अमित शाह को बैठा दिया. मोदी का यह प्लान सटीक था क्योंकि उनके इस मास्टर स्ट्रोक से सरकार के साथ-साथ पार्टी पर भी उनका अधिपत्य बन गया. वहीं राजनाथ सिंह न चाहते हुए भी इससे इंकार नहीं कर सके क्योंकि मोदी ने पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को मार्गदर्शक मंडल का रास्ता दिखाने का भी मन बना लिया था. लेकिन समय-समय पर उन्होंने अपनी असहजता संघ और खुलेआम जाहिर करने से संकोच भी नहीं किया.

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अब उत्तर प्रदेश का चुनाव नजदीक आते ही सबसे पहले केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी का नाम सुर्खियों में आया. वह इसलिए कि स्मृति प्रधानमंत्री की सबसे नजदीकी मंत्री होने के साथ-साथ 2014 लोकसभा चुनावों में अपनी आहूति राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी से चुनाव लड़ कर दे चुकी हैं. गांधी परिवार के सदस्यों का प्रखर विरोध करने से उन्हें बिलकुल संकोच नहीं रहा है और प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह और बहुजन समाज पार्टी की मायावती से भी उनका रिश्ता टकराव का ही रहा है. लेकिन इन कयासों के बावजूद पार्टी इस नाम पर आगे बढ़ने के फैसले से कतरा गई क्योंकि पहला केन्द्रीय कैबिनेट में उनका कोई विकल्प नहीं था और दूसरा वह उत्तर प्रदेश के बाहर की नेता है. लिहाजा पार्टी को डर है कि अगर 2017 विधानसभा चुनावों में बाहरी उम्मीदवार का मुद्दा उठा तो उसकी रणनीति ही कहीं उसके लिए परेशानी का सबब न बन जाए.

उत्तर प्रदेश की कमान के लिए स्मृति की उम्मीदवारी को दरकिनार करने के बाद दूसरा नाम वरुण गांधी का उछला. इसमें कोई शक नहीं है कि वरुण गांधी और मेनका गांधी उस समय से पार्टी में हैं जब बीजेपी को अटल और अडवाणी की पार्टी कहा जाता था और मोदी खेमा सशक्त नहीं हुआ था. लिहाजा, यह भी साफ है कि वरुण गांधी का नाम भी मोदी खेमे के बाहर से उछाला गया और पार्टी नेतृत्व का मानना है कि इसके लिए राज्य के ही वरिष्ठ नेता जिम्मेदार हैं. गौरतलब है कि वरुण गांधी पहले सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि वे अटल बिहारी बाजपेयी का अक्स राजनाथ सिंह में देखते हैं. वरुण के मुताबिक राजनाथ सिंह न सिर्फ उत्तर प्रदेश में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं. ठीक उसी तरह जैसे बिहार बीजेपी में शत्रुघन सिंहा लाल कृष्ण आडवाणी के लिए दावा करते हैं.

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एक बात तय है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति प्रधानमंत्री मोदी समेत अमित शाह को असहज करने का दम खम रखती है. ऐसा इसलिए भी कि राज्य की राजनीति में पार्टी न तो पहले नंबर की पार्टी हौ और न ही दूसरे नंबर की. भले पार्टी को लोकसभा चुनावों में 71 सीट मिली हो लेकिन यहां केन्द्र के चुनाव और राज्य के चुनाव में अलग-अलग इंजीनियरिंग काम करती है. लिहाजा, बीजेपी को अगर यहां असम फैक्टर का इस्तेमाल करना है तो उसे एक उपयुक्त कैंडिडेट के नाम साथ-साथ इंजीनियरिंग का विशेष ध्यान देना पड़ेगा. इस स्थिति में वह प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर केशव प्रसाद मौर्या को पहले ही सामने कर राज्य में पिछड़े वर्ग के वोटरों में सेंध लगाने का काम कर चुकी है. अब राजनाथ के जरिए वह सवर्ण वोटों को साधने का काम कर सकती है. लिहाजा यहां कल्याण सिंह और उमा भारती के नाम को भी वह दरकिनार कर देगी. लेकिन अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या मोदी और शाह की जोड़ी प्रदेश में राजनाथ सिंह पर दांव खेलेगी?

राजनीतिक सूझबूझ तो यही कहती है कि विरोधियों के लिए हमेशा चुनौती तैयार रखनी चाहिए. इस हकीकत से मोदी और शाह वाकिफ हैं कि राजनाथ सिंह केन्द्रीय कैबिनेट में असहज महसूस कर रहे हैं. शायद इसीलिए पार्टी को उत्तर प्रदेश के लिए रणनीति बनाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. लिहाजा, इस स्थिति में वह राजनाथ सिंह को प्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार भेज कर उन्हें केन्द्र की राजनीति से दूर करने का काम कर सकते हैं. इस फैसले से जहां वह पार्टी कैडर की उम्मीदों पर खरे भी उतरेंगे. वहीं चुनाव जीत जाने की स्थिति में रणनीति की सफलता वापस अमित शाह के नाम होगी और राजनाथ सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर काबिज हो जाएंगे. वहीं, हार की स्थिति में सारा दारोमदार उत्तर प्रदेश में असम फैक्टर के विफल होने और उसके लिए राजनाथ सिंह पर जिम्मेदारी डालकर उनके राजनीतिक सफर को अस्त करने का मौका मिल जाएगा. अब इस स्थिति में यदि राजनाथ सिंह पर फैसले की घोषणा इलाहाबाद की कार्यकारिणी में कर दिया जाता है तो जाहिर है यह प्रधानमंत्री मोदी का प्रदेश की राजनीति में दूसरा मास्टर स्ट्रोक होगा जहां चित भी उन्हीं की और पट भी उन्हीं का होगा.

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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