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Updated: 15 सितम्बर, 2017 02:49 PM
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क्या संघ भी आम लोगों की तरह सोचने लगा है? या संघ आम लोगों की सुनने लगा है? या फिर, संघ आम लोगों की आवाज सुनकर डरने लगा है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मोदी सरकार के लिए खतरे की घंटी सुनी है. खतरे की इस घंटी की आवाज कुछ वैसी है जैसी उसने 2004 में सुनी थी - और वाजपेयी सरकार शाइनिंग इंडिया की चकाचौंध में गुम गयी थी.

शाइनिंग इंडिया का अक्स!

संघ की नजर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोगों के वैसे ही चहेते बने हुए हैं जैसे वो 2014 में रहे, लेकिन उनकी सरकार को लेकर लोगों का जोश ठंडा पड़ने लगा है. संघ को लगता है कि ये बिलकुल वैसा ही है जैसा 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी सरकार का हाल था. तब वाजपेयी की लोकप्रियता में तो कोई कमी नहीं थी, लेकिन जब आम चुनाव हुए तो वे वोटों में तब्दील नहीं हो पाये.

द टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के अनुसार संघ अपने विभिन्न संगठनों से फीडबैक लेने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा है. रिपोर्ट से पता चलता है कि आम लोग मोदी सरकार के बारे में ऐसे सवाल पूछ रहे हैं और बहसों में हिस्सा ले रहे हैं जो किसी भी हिसाब से ठीक नहीं माना जा सकता. संघ ने मोदी सरकार के सीनियर नेताओं को इस बात से आगाह कर दिया है - और ये मथुरा में तीन दिन का समन्वय कार्यक्रम के दौरान की बात है.

mohan bhagwat, amit shah'मोदी लोकप्रिय, लेकिन वोट की गारंटी नहीं...'

वैसे ये बातें कई सांसदों की ओर से भी उठाई जाती रही हैं. नोटबंदी के मामले में भी कई मीटिंग में सांसदों ने कहना चाहा कि ये जल्दबाजी में लिया गया फैसला रहा. खबरों से मालूम हुआ कि उन्हें जबरदस्ती चुप करा दिया गया. महाराष्ट्र के एक सांसद के हवाले से भी रिपोर्ट आई थी कि मोदी राज में सांसदों को बोलने की आजादी तक नहीं मिलती. हाल ही में एक मीटिंग में तो खुद मोदी ने भी कह ही दिया कि 2019 में सबको देख लूंगा. जाहिर है संघ इन बातों पर भी नजर बनी ही रहती होगी. वैसे भी ये सारी बातें मीडिया में आती ही रहती हैं.

atal bihari vajpayee2004 में नहीं चल सकी शाइनिंग इंडिया मुहिम

तो क्या इन बातों को इस रूप में समझा जाय कि संघ मोदी सरकार के बुलेट ट्रेन जैसे प्रोजेक्ट में वाजपेयी सरकार के शाइनिंग इंडिया का अक्स देख रहा है? जवाब काफी हद तक हां में ही मिलता है, लेकिन कई पहलू ऐसे भी हैं जो वाजपेयी युग से अलग हैं और टीम मोदी को वाजपेयी के मुकाबले ज्यादा मजबूत बनाते हैं.

भारी पड़ रहा फेक न्यूज!

व्हाट्सऐप पर चलताऊ मैसेज शुद्ध देसी मनोरंजन हैं, ये तो जगजाहिर है. ज्यादातर फेक न्यूज ही होते हैं, अगर किसी भरोसेमंद सोर्स से नहीं निकले हैं तब. हालांकि, कई मैसेज ऐसे भी हैं जिन्हें दीवार पर लिखी इबारतों की तरह साफ पढ़ा भी जा सकता है. लाख फेक होने के बावजूद उनमें भी कोई न कोई संदेश भी छुपा होता है. लगता है संघ ने ऐसे ही मैसेजों में मोदी सरकार के लिए संदेश के तौर पर डिकोड किया है. संघ के कार्यकर्ता आम लोगों में घुले मिले होते हैं - और उनके बीच रह कर उनकी बातों को समझने की कोशिश करते हैं. ये बात अलग है कि किसे कितनी बातें समझ आती हैं.

एक बानगी देखिये - 'यूपीए सरकार में जिसे 'महंगाई डायन' कहते थे, मोदी सरकार में उसे 'विकास' कहते हैं. ऐसे मैसेज लगातार लोग एक दूसरे को फॉरवर्ड कर रहे हैं. हजारों ग्रुपों में शेयर किये जा रहे हैं. कई बार तो एक ही या एक जैसे ही मैसेज दिन में न जाने कितने बार लोग एक ही ग्रुप में शेयर कर रहे हैं.

narendra modi'मोदी-मोदी' के बावजूद निराशा...

एक तरफ, सोशल मीडिया पर बात बात में 'मोदी-मोदी' हो रहा है, तो दूसरी तरफ चाय की दुकानों से लेकर तमाम छोटी छोटी बैठकों में ऐसे मैसेज और उस तथाकथित 'विकास' पर लगातार चर्चाएं भी हो रही हैं. संघ के कार्यकर्ताओं ने ऐसी ही चर्चाओं पर गौर फरमाया है. मोदी सरकार के विरोधी समर्थकों द्वारा फेक न्यूज को प्रमोट करने का इल्जाम लगाते रहते हैं, लेकिन संघ के फीडबैक से तो ऐसा लगता है वही बातें मोदी सरकार पर भारी पड़ने लगी हैं.

जमीनी स्तर पर अपने फीडबैक के बाद ही संघ ने यूपी चुनाव के दौरान भी टीम मोदी को आगाह किया था. वोटिंग से पहले जब मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में डेरा डाला तो उसे संघ की सलाह का ही नतीजा माना गया. तब संघ की सलाह पर ही मोदी ने शहर में रोड शो भी किया था. नतीजों से तो उसके असर का पता चला ही, सबसे बड़ी बात तब कार्यकर्ताओं की नाराजगी में कमी समझी गयी. तब भीड़ में खड़े नाराज श्यामदेव रॉय चौधरी का हाथ पकड़कर मोदी द्वारा साथ ले जाना सबको याद होगा ही.

संघ की ताजा चेतावनी मोदी सरकार को लेकर आम लोगों में पैदा हो रहे निराशा के भाव हैं. टीम मोदी के लिए भले ही सांसदों को चुप कराना आसान हो, लेकिन संघ को गुमराह करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है.

विरोध का बिगुल

अंग्रेजी अखबार की रिपोर्ट के अनुसार संघ ने जिन मुद्दों को लेकर लोगों में निराशा के भाव पढ़ें हैं, वे हैं - नौकरी जाने के खतरे और रोजगार के कम मौके, आर्थिक सुस्ती, नोटबंदी की नाकामी और किसानों की बदहाली. मोदी सरकार का हाल भी शाइनिंग इंडिया से काफी मिलता जुलता है. रेल हादसों पर काबू पाना मुश्किल हो रहा है लेकिन कर्ज वाली बुलेट ट्रेन आने वाली है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समझाते हैं कि जिस उम्र में स्वामी विवेकानंद शिकागो में भाषण देने गये थे उसी उम्र के देश में 65 फीसदी युवा हैं. कहते हैं 125 साल पहले विवेकानंद ने जो भाषण दिया था उसे आज भी सेलीब्रेड किया जा रहा है. पूछते हैं - क्या कभी किसी भाषण को ऐसे सेलीब्रेट करते देखा है क्या?

सही बात है. बिलकुल नहीं देखा और ऐसा भी नहीं लगता कि आगे भी देखने को मिलेगा. जब बच्चे के स्कूल से जिंदा लौटने की गारंटी न हो, लिखने पढ़ने और बोलने पर गोली मार दी जाती हो. सरेआम पीट पीट कर मार दिया जाता हो और हमलावर खुलेआम बाहर घूमते रहते हों, फिर कहां से विवेकानंद की उम्र तक कोई बच्चा पहुंच पाएगा? और भाषण को सेलीब्रेट तो तब किया जाएगा जब उसे बोलने दिया जाएगा.

मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ संघ परिवार का ही भारतीय मजदूर संघ 17 नवंबर को संसद भवन तक मार्च करने वाला है. बताया गया है कि इस मौके पर पांच लाख मजदूर रामलीला मैदान में जुटेंगे.

आज तक की रिपोर्ट के अनुसार - संघ ने केंद्र सरकार की आर्थिक और मजदूरों से जुड़ी नीतियों के खिलाफ भारतीय मजदूर संघ के विरोध प्रदर्शन को हरी झंडी दे दी है.

टीम मोदी और टीम वाजपेयी में फर्क

माना गया कि शाइनिंग इंडिया की तैयारी पूरी होने के बाद वोटिंग के दिन तक टीम वाजपेयी पूरी तरह लापरवाह हो चुकी थी. टीम मोदी, खासकर अमित शाह के साथ ऐसा नहीं है.

शाइनिंग इंडिया की शिकस्त में सबसे बड़ी नाकामी बूथ लेवल मैनेजमेंट में देखी गयी थी. अमित शाह इस मामले में सचेत और काफी सजग हैं. उसके आकलन के लिए न तो गुजरात राज्य सभा और न ही डूसू के चुनाव नतीजे ही हो सकते हैं.

बीजेपी के स्वर्णिम काल के लिए टीम मोदी बड़ी ही शिद्दत और मेहनत से काम कर रही है. ऐसी बातें वाजपेयी युग में कम ही देखने को मिली थी. लेकिन तस्वीर की दूसरी तरफ सच ये भी है कि साम, दाम, दंड और भेद की थ्योरी को आगे बढ़ाते हुए टीम मोदी हकीकत से भी दूर हो जा रही है.

जीएसटी की तारीफ पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी की, लेकिन सही फीडबैक जमीनी स्तर पर ही मिलेगा. कोई घरों में जाकर पूछे कि जीएसटी से वास्तव में किस तरह का फायदा हो रहा है. लगता तो ऐसा है कि जीएसटी के नाम पर तिजोरी भरने का नया खेल शुरू हो गया है. ज्यादा दिन नहीं हुए राखी के मौके पर लोग मिठाई खरीदने के लिए घंटों लाइन में लगे रहे जब काउंटर पर पहुंचे तो पता चला हफ्ते भर के भीतर ही मिठाइयां बेतहाशा महंगी हो गयी हैं. इंदिरापुरम के एक बड़े ब्रांड की शॉप में जो मिठाइयां 700-800 रुपये में एक किलो मिलती रहीं, उनके दाम उस दिन 1100-1200 रुपये हो गये थे. पिछले हफ्ते जब फिर वहां जाना हुआ तो पता चला स्टाफ के तीस लोग काम छोड़ कर चले गये थे. वजह पिछले दो साल से उनके पैसे नहीं बढ़े थे. पूछने पर एक लड़के ने बताया, "मालिक तो आया ही नहीं. नहीं तो रोज आकर ये काम नहीं हुआ वो काम नहीं हुआ करता रहता था."

कुछ ही दूरी पर एक और दुकान है. वहां भी कीमतों का वही हाल है. बिल मांगने पर एक विजिटिंग कार्ड पर पीछे हाथ से कीमत लिख कर दे देता है. उस पर भी एस्टिमेट लिखा हुआ है.

जीएसटी के फायदे समझाने वाले लोग ऐसी दुकानों पर या कभी लाइन में लग कर मिठाई तो खरीदते नहीं. दिल्ली के खान मार्केट के खरीदारों को इंदिरापुरम या ऐसे ही देश के तमाम हिस्सों के हालात से वाकिफ कैसे कराया जा सकता है भला.

मालूम नहीं आरएसएस को भी ऐसी बातों की जानकारी हो पायी है या नहीं? सोशल मीडिया पर फॉलोवर गिनने से माहौल तो बन जाता है, गोरक्षकों का उत्पात बढ़ जाता है, ट्रोल आर्मी धावा बोल देती है - लेकिन हमेशा झांसे में आकर लोग वोट नहीं देते.

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#मोदी सरकार, #नरेंद्र मोदी, #आरएसएस, Narendra Modi, Resentment Among People, Economic Slodown

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