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Updated: 29 सितम्बर, 2016 07:50 PM
सुशांत झा
सुशांत झा
  @jha.sushant
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दरअसल पाकिस्तान जैसा 'थेथर' देश(थेथर समझते हैं?) को इस 'सर्जिकल स्ट्राइक' से बहुत असर नहीं पड़ता. सर्जिकल स्ट्राइक तो भारत की आहत भावना के लिए जरूरी था. इंडियन एक्सप्रेस में आशुतोष वार्ष्णेय ने जॉर्जटॉन विश्वविद्यालय की क्रिस्टीन फेयर को उद्धृत करते हुए लिखा है कि पाक सेना के लड़ने का तरीका 'सुरक्षा उद्येश्यों' से संचालित नहीं है, बल्कि "वैचारिक उद्येश्यों" से संचालित है. यह बहुत ही खतरनाक बात है.

यहां वैचारिक उद्येश्य का मकसद स्वभाविक रूप से "इस्लामिक श्रेष्ठता" को पूरे उपमहाद्वीप पर थोपना है. वे आगे लिखते हैं कि सुरक्षा उद्येश्यों से संचालित कोई सेना लाभ-हानि, पलटवार, निवेश पर रिटर्न, अंतर्राष्ट्रीय दबाव इत्यादि का खयाल करती है, लेकिन "वैचारिक उद्येश्यों" से संचालित सेना ऐसा कोई दबाव नहीं मानती. वो तो निरंतर आक्रमण को ही अपना विजय मानती है, भले ही उन आक्रमणों का नतीजा निरंतर हार ही क्यों न हो!

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पाकिस्तान के लिए भारत के साथ यथास्थिति कायम रखना या भारत को बिना युद्ध में घसीटे छोड़ देना प्राणघातक है, क्योंकि वे मानते हैं कि यथास्थिति भी भारत के लिए जीत है! इसीलिए वे निरंतर हमला करते रहेंगे, इस उम्मीद में कि एक दिन 99 नहीं तो 100वीं वार उन्हें जरूर कामयाबी मिलेगी.

भारत की असल चिंता यही है. क्योंकि "लगभग" हिंदू मानसिकता वाला भारत इस तरह नहीं सोचता. ये उसका चिंतन नहीं है. वो हमेशा लड़ने के लिए चौकन्ना नहीं रहता. लेकिन हमारा दुश्मन हमें वैसा ही बनाना चाहता है. वो चाहता है कि हम खून के आंसू रो-रोकर एक दिन इजरायल बन जाएं.

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 सर्जिकल स्ट्राइक के आगे की नीति क्या?

लेकिन इसके अपने घाटे हैं. क्योंकि हम इजरायल जैसा तब तक नहीं बन सकते जब तक कि हम हजारों सालों की अपनी सहिष्णुता,बहुलतावादी संस्कृति, उदारता इत्यादि को त्याग न दें. यह संभव नहीं है. और पाकिस्तान हमें अन्य किसी रूप में जीने नहीं देगा. भारत के साथ कोई भी संभावित मैत्री पाकिस्तान के जन्म के कारण को खत्म कर देगी और वो ऐसा कभी नहीं चाहेगा.

भारत के वास्तविक बुद्धिजीवियों, राजनेताओं और रणनीतिकारों को इस बात पर विचार करना होगा कि अगले 100 सालों के लिए हमारी पाकिस्तान नीति क्या होनी चाहिए.

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प्रथम विश्व-युद्ध के बाद इंग्लैंड-फ्रांस ने तुर्की साम्राज्य का विखंडन कर उस इलाके में करीब 100 सालों के लिए शांति खरीदी थी. जिस पाकिस्तान को जनरल जिया इस्लामिक जगत का सिरमौर बनाना चाहते थे, इंदिरा गांधी ने सन् 1971 में लगभग ऐसा ही काम उसके साथ किया था. इतिहास का पहिया फिर से एक बार वहीं घूमकर आ गया है कि भारतीय नेतृत्व पाकिस्तान के 'बाल्कनाइजेशन' पर फिर से विचार करे. ये काम अगले 20-25 साल में हो जाने चाहिए. अभी तक भारतीय जनमानस और नेतृत्व ये मानता था कि सीमा पर छोटे-छोटे देश अशांति के कारक होते हैं.

साथ ही ये भी सही है कि पाकिस्तान भले ही कई टुकड़ों में बंटे, उसका पंजाब हमेशा भारत का चिर-शत्रु रहेगा. लेकिन उसका बंटना इसीलिए भी जरूरी है कि फिलहाल उसके आसपास कोई दूसरा ऐसा विरोधी देश नहीं है जो उसे उलझा कर रख सके. एक बलोचिस्तान या स्वतंत्र सिंध इसलिए भी जरूरी है कि पाकिस्तान उसमें निरंतर उलझा रहे. हमें दक्षिण एशिया में कम से कम अगले सौ सालों तक शांति चाहिए और उसके लिए पाकिस्तान का विखंडन जरूरी है.  नहीं तो ऐसे सर्जिकल स्ट्राइक से पाकिस्तान कभी नहीं मानेगा.

लेखक

सुशांत झा सुशांत झा @jha.sushant

लेखक टीवी टुडे नेटवर्क में पत्रकार हैं.

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