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Updated: 25 अप्रिल, 2016 08:08 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
  @rmisra
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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अप्रैल 2015 में पहली बार वार्षिक सिविल सर्विसेज दिवस पर अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा कि देश में सिविल सेवा में लगे लोगों को अपना बेहतर चरित्र निर्माण करने का प्रयास करना चाहिए. इसके लिए उन्होंने बताया कि अधिकारियों को सरकारी कामकाज को अपना जीवन नहीं बनाना चाहिए. मोदी के मुताबिक एक बेहतर चरित्र निर्माण के लिए जरूरी है कि अधिकारी पर्याप्त समय अपने परिवार के साथ बिताए जिससे सरकारी कामकाज के लिए उनमें नई उर्जा का लगातार संचार होता रहे.

इसके उलट अप्रैल 2016 में एक बार फिर जब इस वार्षिक मौके पर प्रधानमंत्री को बोलने का मौका मिला तो सिविल सेवा के प्रति उनके दृष्टिकोण में पूरी तरह से परिवर्तन सुनाई दिया. इस बार अपने अनुभव के आधार पर आदर्श अधिकारी को परिभाषित करते हुए मोदी ने कहा कि ऐसा अधिकारी जिम्मेदारी मिलने पर शनिवार और इतवार तक भूल जाता है. वह समय का ध्यान रखे बिना महज काम करता रहता है. ऐसे अधिकारी अपनी जिम्मेदारियों के प्रति इतने मशरूफ रहते हैं कि वह अपने बच्चों का जन्मदिन तक भूल जाते हैं.

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सिविल सेवा दिवस पर पुरस्कार देते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

अब 2015 और 2016 में प्रधानमंत्री एक ही शख्स है. नरेन्द्र मोदी. फिर आदर्श सिविल सेवा के दृष्टिकोण में इतना बड़ा परिवर्तन कैसे. आखिर क्यों 2015 में शीलम परम भूषणम का पाठ पठाने वाले प्रधानमंत्री एकाएक सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों को देव दुर्लभ कर्मचारी बनने का पाठ पठा रहे हैं जिसे अपने परिवार और कुटुम्ब के साथ-साथ समय को भूलकर सरकारी सेवा करने की जरूरत का आभास करा रहे हैं. क्या यह नतीजा है इस एक साल के दौरान प्रधानमंत्री का देश के नौकरशाह से मिले किसी विशेष अनुभव का कि उनका अब यह मानना है कि सरकारी सेवा में लगे वरिष्ठ अधिकारियों के सेवाभाव में कोई कमी है और जिसे पूरा करने के लिए उन्हें सिविल सोसाइटी में मौजूद दिक्कतों को दूर करने के लिए दिन-रात एक करके काम करने की जरूरत है.

गौरतलब है कि मार्च 2016 में लोकसभा के बजट सत्र की शुरुआत में राष्ट्रपति के भाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस को आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि विपक्ष महत्वपूर्ण बिलों को अवरुद्ध करके देश के लोकतंत्र को आहत कर रहा है. मोदी के मुताबिक अहम कानून को पारित होने से अवरुद्ध करके कांग्रेस देश को नौकरशाही का मोहताज बना रही है. साथ ही मोदी का यह भी दावा था कि देश की नौकरशाही चाहती है कि सत्ता और विपक्ष संसद में टकराव की स्थिति में बने रहें जिससे देश की वास्तविक सत्ता उनके हाथों में बनी रहे क्योंकि संसद में फंसा हर कानून नौकरशाही के लिए अतिरिक्त शाक्ति का स्रोत है. 2016 की शुरुआत तक प्रधानमंत्री को एक बात साफ हो चुकी थी कि संसद में कांग्रेस के साथ एनडीए सरकार के टकराव की स्थिति का सीधा फायदा देश में नौकरशाही को मिल रहा है.

वहीं 2015 में जब प्रधानमंत्री ने सिविल सेवा दिवस पर वरिष्ठ अधिकारियों को शीलम परम भूषणम का पाठ पढ़ाया था तब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती एनडीए सरकार द्वारा घोषित आधा दर्जन केन्द्रीय कार्यक्रमों को लागू कराने की थी. उस वक्त तक प्रधानमंत्री को एक बात पूरी तरह से स्पष्ट थी कि यदि उनके सरकार के अहम कार्यक्रमों को जमीनी स्तर पर ठीक से लागू किया जाना है तो नौकरशाह को अहम भूमिका का निर्वाह करना होगा. वहीं 2015 खत्म होते-होते और 2016 की शुरुआत आने तक प्रधानमंत्री के सामने यह बिलकुल साफ हो चुका था कि केन्द्रीय कार्यक्रमों को राज्य स्तर पर लागू करने में नौकरशाही पूरी तरह से विफल रही है.

गौरतलब है कि 2016 की शुरुआत होने के बाद भी 2014-15 वित्त वर्ष के दौरान घोषित कार्यक्रम जैसे मेक इन इंडिया, जन धन योजना, स्वच्छ भारत, डिजिटल इंडिया और स्किल इंडिया जैसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के लिए जमीनी स्तर पर पर्दा नहीं उठाया जा सका तो इसके लिए काफी हद तक नौकरशाहों की लालफीताशाही जिम्मेदार रही है. इस मकसद से केन्द्र सरकार ने 2016 में सिविस सेवा से जुड़े कई महत्वपूर्ण फैसले लिए हैं जिसके मुताबिक अब केन्द्र सरकार ने प्रत्येक 5 वरिष्ठ अधिकारी में एक अधिकारी प्रधानमंत्री की योजनाओं पर काम करेगा. इसके साथ ही मोदी सरकार ने सिविल सेवा से रिटायर हो रहे अधिकारियों को किसी भी सूरत में एक्सटेंशन या अन्य कोई जिम्मेदारी देने की परंपरा पर गहन चिंतन करने का फैसला किया है.

मोदी छटपटा रहे हैं. वे गुजरात जैसी पारी को केंद्र में दोहराना चाहते हैं, लेकिन यहां ब्यूरोक्रेसी में वैसी तेजी उन्हें नहीं दिख रही है. वे कड़े फैसले लेकर अफसरों में काम और परफॉर्मेंस को लेकर गंभीरता लाना चाहते हैं, साथ ही चतुर राजनेता की तरह इस खामी के लिए कांग्रेस के अडि़यल रवैए को दोषी ठहरा रहे हैं.

लेकिन, मोदी को लोकतंत्र का वह बेसिक सबक समझना होगा, जिसमें विधायिका की तरह कार्यपालिका को लोकतंमत्र का एक स्वतंत्र पिलर बताया गया है. न कि विधायिका के सहारे के लिए खड़ा हुआ एक अर्दली जैसा पिलर. वे मीडिया और न्यायपालिका की तरह ब्यूरोक्रेसी से साथ देने की अपील ही कर सकते हैं.

सबकुछ मोदी के मन मुताबिक होगा, यह तो वक्त बताएगा, क्योंकि दिल्ली की ब्यूरोक्रेसी कांग्रेस के जमाने की है. धीरे धीरे ही बदलेगी.

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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