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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 29 अप्रिल, 2021 01:38 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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'अंत भला तो सब भला' - नीतीश कुमार ने चुनाव प्रचार के आखिरी भाषण में यही बोला था. शब्दों में बेबसी के भाव थे. जगह जगह विरोध प्रदर्शनों से नीतीश कुमार काफी निराश लग रहे थे. एलजेपी नेता चिराग पासवान की हरकतों से नीतीश कुमार काफी दुखी थी, लेकिन कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं थे. चुनाव जिताने का पूरा दारोमदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) पर ही रहा - क्योंकि अमित शाह ने डिजिटल रैली करके शुरुआत तो कर दी थी, लेकिन बाद में कोविड की चपेट में आ जाने के कारण अपना पूरा एक्शन प्लान अपने जूनियर नित्यानंद राय के जरिये लागू करा रहे थे.

प्रधानमंत्री ने नीतीश कु्मार को तो वैतरणी पार करा दी, लेकिन पश्चिम बंगाल (West Bengal Election 2021) में बीजेपी की नाव मझधार में छोड़ कर ही हटना पड़ा. कोविड 19 के बढ़ते खतरे को देखते हुए बीजेपी दबाव में आ गयी और मोदी के साथ साथ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की रैलियां भी रद्द करनी पड़ीं - नीतीश कुमार की तरह आखिरी रैली में वो बात कहने का भी मौका नहीं मिला.

सवाल ये है कि मोदी-शाह ने ये जोखिम उठाया ही क्यों - और अगर जोखिम उठाया भी तो बीजेपी की तरफ से उसका कोई राजनीतिक रास्ता क्यों नहीं निकाला गया?

कोविड की परवाह किये बगैर जब बीजेपी नेतृत्व इतना आगे बढ़ ही चुका था तो आखिरी दौर में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के लिए खुला मैदान क्यों छोड़ दिया गया?

बीजेपी ने बड़ा जोखिम क्यों मोल लिया

देश भर में बेकाबू हो चुके कोरोना संकट के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सभी के निशाने पर हैं. विदेशी मीडिया भी भारत में कोरोना के इस कदर फैलने के लिए हरिद्वार के कुंभ और विधानसभा चुनाव में बड़ी बड़ी रैलियों को जिम्मेदार मान रहा है.

ऑक्सीजन और कोविड 19 के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाओं को लेकर मरीजों के घर परिवार के लोग और रिश्तेदार दर दर की ठोकरें खा रहे हैं. अस्पताल में मरीज को भर्ती कराने से लेकर दवाओं और ऑक्सीजन के लिए लोग पूरी ताकत और पैसा झोंक दे रहे हैं तब भी जान बचाना दूभर हो रहा है.

हालत ये है कि वे लोग भी मोदी के खिलाफ बोलने लगे हैं जो उनके लिए लड़ पड़ते थे. ये मोदी की लोकप्रियता ही रही है जो ममता बनर्जी के चुनावी रणनीतिकार होते हुए भी प्रशांत किशोर को भी ये बात स्वीकार करनी पड़ी है. प्रशांत किशोर के मुताबिक पश्चिम बंगाल में मोदी और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दोनों बराबर लोकप्रिय रहे हैं. देखा जाये तो ममता बनर्जी का भी मोदी के बराबर ही लोकप्रिय होना उनकी राजनीतिक सेहत के लिए अच्छा नहीं है.

लोगों के गुस्से की कौन कहे, यहां तक कि बीजेपी के बड़े बड़े नेता भी डर गये हैं - क्योंकि वो किसी की मदद कर पाने की स्थिति में नहीं हैं. बीजेपी नेता भी मान रहे हैं कि न तो वे अपने इलाके के लोगों की और न ही कार्यकर्ताओं की कोरोना संकट में मदद कर पाने की स्थिति में खुद को पा रहे हैं.

पश्चिम बंगाल चुनाव में चार चरणों तक तो सब ठीक ठाक चला लेकिन पांचवें चरण में रैली करने के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आगे की अपनी सभी चुनावी रैलियां कोविड के कारण रद्द करने देने की घोषणा कर दी. ऐसा करने वाले राहुल गांधी पहले नेता तो नहीं थे, लेकिन कांग्रेस की रैलियां रद्द होने के बाद ममता बनर्जी और बीजेपी दोनों ही दबाव में आ गये. सबसे पश्चिम बंगाल में कोरोना संकट के चलते सीपीएम ने रैलियां रद्द करने का ऐलान किया था.

mamata banerjee, narendra modiचुनाव आयोग ने विजय जुलूस पर तो रोक लगा दी है, लेकिन 2 मई को जश्न मनाने का इंतजार तो जितना ममता बनर्जी को होगा, नरेंद्र मोदी को उससे कहीं ज्यादा होगा!

राहुल गांधी के बाद ममता बनर्जी ने भी कोलकाता में रैली न करने का ऐलान किया और फिर छोटी रैलियों पर फोकस हो गयीं. सीपीएम ने तो पहले ही कह रखा था कि उनके नेता या तो घर घर संपर्क करेंगे या फिर सोशल मीडिया के जरिये.

ये सब होने के बाद बीजेपी भी दबाव में आ गयी और अमित शाह ने अपनी मालदा की रैली रद्द कर दी. शाह के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपना पश्चिम बंगाल दौरा रद्द कर दिया - हालांकि, वर्चुअल रैलियों को संबोधित जरूर किया था.

वर्चुअल रैलियों की पहुंच तो होती ही है, लेकिन जब राजनीतिक विरोधी मैदान में डटा हो तो काउंटर करना काफी मुश्किल होता है - और आखिरी दौर के चुनाव में बीजेपी के साथ ऐसा ही हुआ है.

खुला मैदान पाते ही ममता बनर्जी अपने पूरे फॉर्म में लौट आयी हैं और बीजेपी के बड़े नेताओं की फील्ड में गैरमौजूदगी का पूरा फायदा उठाने लगी हैं. ये तो नहीं कह सकते कि बीजेपी ने मैदान ही खाली कर दिया है - क्योंकि दिलीप घोष, कैलाश विजयवर्गीय, मुकुल रॉय, शुभेंदु अधिकारी, बाबुल सुप्रियो जैसे बंगाल बीजेपी के नेता तो मैदान में डटे हुए हैं ही, लेकिन मोदी और शाह के न होने का फर्क तो पड़ता ही है.

मौके का फायदा हुए ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में कोविड फैलाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी और उनके साथियों को जिम्मेदार बताने लगी हैं. वोटिंग के आखिरी दौर में वैक्सीन को चुनावी मुद्दे के तौर पर उछालने के बाद ममता बनर्जी कोविड मिसमैनेजमेंट के लिए प्रधानमंत्री मोदी को जिम्मेदार बताने लगी हैं.

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कोरोना पॉजिटिव होने के बाद से ममता बनर्जी घूम घूम कर कहने लगी हैं कि बीजेपी और उसके नेता बंगाल में कोरोना फैला रहे हैं. 15 अप्रैल को योगी आदित्यनाथ ने खुद के कोरोना पॉजिटिव होने की जानकारी दी थी और 16 अप्रैल की एक रैली में ममता बनर्जी प्रधानमंत्री पर बाहरी लोगों को चुनाव प्रचार के लिए बुलाकर कोरोना फैलाने का आरोप लगा रही थीं.

रैली को संबोधित करते हुए ममता बनर्जी ने कहा, 'पांच-छह महीने तक स्थिति ठीक ठाक रही. मोदी जी वैक्सीन देकर सबको बचा सकते थे, लेकिन वो ऐसा क्यों करेंगे. अब वे हजारों बाहरी लोगों को बंगाल बुला रहे हैं और वे कोरोना वायरस फैला कर चले जा रहे हैं.'

बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ कोरोना वायरस को लेकर बदइंतजामी के चलते बढ़ते गुस्से के बीच, ममता बनर्जी बंगाली समाज को नये सिरे से बंगाल की बेटी बनाम बाहरी का मुद्दा छेड़ चुकी हैं - और कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप में इसका असर भी महसूस किया जा रहा है.

ध्यान देने वाली बात ये है कि पश्चिम बंगाल में रैली के बाद राहुल गांधी ने भी खुद के कोरोना पॉजिटिव होने की जानकारी दी थी, लेकिन ममता बनर्जी उनको लेकर कुछ भी नहीं कह रही हैं, जबकि योगी आदित्यनाथ को निशाना बना कर प्रधानमंत्री मोदी पर हमले बोल रही हैं.

चुनाव आयोग ने तो पल्ला ही झाड़ लिया

चुनाव आयोग रैलियों में लोगों की भीड़ को लेकर कई अदालतों के निशाने पर आ गया है. पहले कलकत्ता हाई कोर्ट ने कोविड प्रोटोकॉल को लेकर सख्ती दिखायी और उसके बाद मद्रास हाई कोर्ट ने तो ज्यादा ही गुस्सा दिखाया.

मद्रास हाई कोर्टे के मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी ने चुनाव आयोग के वकील से कहा, 'कोरोना की दूसरी लहर के लिए केवल चुनाव आयोग ही जिम्मेदार है.'

जस्टिस संजीब बनर्जी ने तो यहां तक कह डाला कि 'चुनाव आयोग के अधिकारियों पर हत्या का आरोप लगाया जाना चाहिये.'

लेकिन खबर आयी है कि चुनाव आयोग ने तो पल्ला ही झाड़ लिया है. चुनाव आयोग का कहना है कि आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत कोविड 19 के लिए जारी गाइडलाइंस को लागू कराने की जिम्मेदारी सूबे के अफसरों की थी.

ये चुनाव आयोग का अपना तकनीकी पक्ष हो सकता है, लेकिन ये बात गले के नीचे नहीं उतर पा रही है. चुनाव के दौरान पूरी कमान चुनाव आयोग के पास होती है. जिस अधिकारी को लेकर लगता है कि वो ठीक से काम नहीं कर रहा है तो वो फौरन हटाने का फरमान जारी कर देता है. आदेश की तामील भी तत्काल प्रभाव से होती है और दूसरा अफसर काम संभाल लेता है.

जिलों में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ही इलेक्शन ऑफिसर होते हैं - और आचार संहिता लागू होने से लेकर चुनाव प्रक्रिया पूरा होने तक जिलाधिकारी ही चुनाव आयोग के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं.

चुनावी रैलियों की अनुमति देने का काम भी जिला प्रशासन पर ही होता है. उम्मीदवारों के पाई पाई के हिसाब रखने से लेकर चुनावी रैलियों में कौन आ रहा है और क्या क्या हो रहा है, ये सब हिसाब किताब रखने के लिए चुनाव आयोग अपने पर्यवेक्षक तैनात करता है - और जब जिम्मेदारी की बात आती है तो बच कर निकल जाता है. भला ऐसा कैसे हो सकता है?

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी चुनाव आयोग को पंचायत चुनाव के दौरान कोविड प्रोटोकॉल का पालन नहीं करने के लिए फटकार लगायी है और पूछा है कि क्यों न आयोग के अधिकारियों के खिलाफ एक्शन लिया जाये?

असल में, यूपी चुनाव पंचायत में ड्यूटी पर लगे 135 कर्मचारियों की अब तक मौत हो चुकी है. ऐसे कर्मचारियों में ज्यादातर शिक्षक और शिक्षा मित्र हैं. मरने वालों के अलावा बड़ी संख्या में कर्मचारी कोरोना संक्रमित भी हैं. कर्मचारियों की मौत पर संज्ञान लेते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने राज्य चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया है.

पश्चिम बंगाल चुनाव में 29 अप्रैल को आखिरी चरण की वोटिंग के बाद अब हर किसी की नजर 2 मई को आने वाले नतीजों पर होगी. हालांकि, यूपी में कोरोना की स्थिति को देखते हुए कर्मचारी संगठन मतगणना को ही टालने की मांग करने लगे हैं.

बातें बस इतनी ही नहीं हैं - पश्चिम बंगाल की खारदा सीट से टीएमसी उम्मीदवार काजल सिन्हा की कोरोना वायरस संक्रमण के चलते मौत के बाद उनकी पत्नी नंदिता सिन्हा ने चुनाव आयोग के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करायी है. एफआईआर में उप चुनाव आयुक्त सुदीप जैन का भी नाम दर्ज है.

नंदिता सिन्हा का आरोप है कि अधिकारियों ने महामारी के दौरान न तो उम्मीदवारों की सुरक्षा के लिए कुछ किया न ही आम जनता के लिए. खारदा में 22 अप्रैल को वोटिंग हुई थी और 25 अप्रैल को काजल सिन्हा का निधन हो गया. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने काजल सिन्हा के निधन पर दुख जताते हुए इसे स्तब्ध करने वाला बताया था.

कलकत्ता हाई कोर्ट ने तो पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग के 8 चरणों में वोटिंग कराने पर ही सवाल खड़ा किया था - ये वही सवाल है जो चुनाव की तारीखों के ऐलान के फौरन बाद ममता बनर्जी ने भी उठाया था.

अब अगर चुनाव आयोग कोरोना फैलाने की के आरोपों से खुद को अलग कर लेता है फिर तो जिम्मेदारी सरकार पर ही आएगी. यूपी में तो बीजेपी की ही सरकार है. असम में चुनाव हुआ है वहां भी बीजेपी की ही सरकार है. फिर तो ये जिम्मेदारी बीजेपी से होते हुए नेतृत्व पर ही आ टिकती है.

वैसे चुनाव आयोग ने एक काम जरूर किया है - नतीजे आने के बाद जीत का जश्न मनाने वालों के रंग में भंग डालते हुए विजय जुलूस निकालने पर पाबंदी जरूर लगा दी है - ले देकर यही करने को बचा भी था. आयोग और कर भी क्या सकता था.

बेशक पश्चिम बंगाल चुनाव ममता बनर्जी के लिए राजनीतिक अस्तित्व से जुड़ा मामला बन चुका है. जीत गयीं तो बल्ले बल्ले, वरना मायावती का हाल हो जाएगा - क्योंकि बंगाल से बाहर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का भी वही हाल है जो मायावती की बीएसपी का है.

हालांकि, हार के बाद भी ममता के लिए स्कोप खत्म नहीं होगा,मऐसा लगता है. राष्ट्रीय राजनीति में वो मोदी विरोध का प्रमुख चेहरा हो सकती हैं. ऐसा ही प्रयास अभी अभी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी किया था, लेकिन आखिरकार वो बीजेपी के राजनीतिक दांव में उलझ कर रह गये.

जहां तक जोखिम का सवाल है तो ममता बनर्जी से बड़ा रिस्क तो बीजेपी नेतृत्व के लिए है. इसी बार के चुनाव में असम भी दांव पर ही है और अगले साल यूपी और उत्तराखंड में सत्ता में वापसी का दबाव रहेगा - कहने की जरूरत नहीं, पश्चिम बंगाल में सत्ता हासिल करने के लिए बीजेपी नेतृत्व ने ममता बनर्जी से ज्यादा बड़ा दांव खेला है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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