New

होम -> सियासत

बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 04 मार्च, 2022 07:55 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
  • Total Shares

ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) का प्रोग्राम आखिर क्या सोच कर अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने फाइनल किया होगा? अखिलेश यादव ये कैसे भूल गये कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में ममता बनर्जी उनके मुकाबले कहीं नहीं ठहरतीं - और वो भी बनारस में. ममता बनर्जी के लिए तो दिल्ली और गोवा में भी खड़े होने के लिए जमीन तलाशनी पड़ रही है, यूपी पहुंच के भी बाहर है.

पश्चिम बंगाल का चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी जब दूसरी बार दिल्ली पहुंचीं तो सोनिया गांधी से मिलने नहीं गयीं. मीडिया के पूछने पर खुद ही पूछ डाला ऐसा संविधान में कहां लिखा है? उसी दौरान तृणमूल कांग्रेस नेता ने मुंबई जाकर शरद पवार और उद्धव ठाकरे से मिलने की जानकारी दी - और मीडिया के जरिये ही कहा था कि अगर यूपी में अखिलेश यादव को मदद की जरूरत होगी तो वो जरूर खड़ी मिलेंगी.

ममता बनर्जी का मुंबई दौरा भी आधा ही सफल हो पाया था. दिल्ली में शरद पवार ने मुलाकात न हो पाने की भरपाई तो हो गयी, लेकिन सेहत सही न होने के चलते उद्धव ठाकरे की जगह आदित्य ठाकरे से मिल कर संतोष करना पड़ा. भतीजे अभिषेक के साथ शरद पवार से मुलाकात में ममता बनर्जी ने जो कुछ भी समझाना चाहा, एनसीपी नेता धैर्य के साथ सुनते रहे. बोले नहीं. एक दो मुद्दों पर सहमति जरूर जतायी.

ममता बनर्जी बाहर निकलीं और यूपीए के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करते हुए कांग्रेस नेतृत्व को निशाना बनाया. फिर शरद पवार के मन की बात शिवसेना के मुखपत्र सामना में छपी - और संजय राउत ने बोल भी दिया कि कांग्रेस के बगैर विपक्ष का एकजुट होना कोई मायने नहीं रखता. बल्कि, शिवसेना प्रवक्ता ने तो पार्टी को भी यूपीए में शामिल होने की उद्धव ठाकरे को सलाह दे डाली.

ममता बनर्जी के लिए उनके चुनावी सलाहकार गोवा में जमीन तैयार कर रहे थे, तभी दिल्ली की तरह वहां भी राहुल गांधी ने धावा बोल दिया. मोदी विरोधी खेमे को एकजुट करते हुए विपक्ष का नेता बनने की कोशिश कर रहीं ममता बनर्जी को कदम कदम पर संघर्ष करना पड़ रहा है - ऐसे में ममता बनर्जी को हिंदी पट्टी में एक मजबूत मंच की शिद्दत से तलब रही और अखिलेश यादव में वो सब कुछ नजर आया जो तृणमूल कांग्रेस के विस्तार के लिए जरूरी हो.

अखिलेश यादव को भी विपक्षी खेमे से किसी बड़े नेता को यूपी में बुलाने की जरूरत महसूस हुई होगी. हो सकता है यही सोच कर शरद पवार के एक उम्मीदवार को चुनाव लड़ाने का भी फैसला किया हो. फिर भी शरद पवार यूपी आने के लिए तैयार नहीं हो सके, ऐसा लगता है. ऐसा ही शरद पवार ने पश्चिम बंगाल चुनाव में भी किया था. एनसीपी प्रवक्ता नवाब मलिक ने चुनावों के दौरान तो पवार के बंगाल प्रोग्राम का लंबा चौड़ा ब्योरा भी दिया था, लेकिन सब हवा हवाई ही रहा.

ममता बनर्जी के भी यूपी में पार्टी का उम्मीदवार उतारने की चर्चा रही, लेकिन लगता है समाजवादी पार्टी के साथ सहमति नहीं बना पायी होगी. वैसे ममता बनर्जी को तो यूपी से इतना मिल गया जो चुनाव लड़ने पर भी शायद ही मिल पाता.

अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि ममता बनर्जी को बनारस बुलाकर आखिर अखिलेश यादव को क्या हासिल हुआ?

सवाल का सही जवाब तो 10 मार्च को ही मिलेगा. पूरे उत्तर प्रदेश की तरह वाराणसी की भी कई सीटों पर बीजेपी को अखिलेश यादव के उम्मीदवारों से टक्कर मिल रही थी. बनारस की तीन सीटों को लेकर तो संघ की तरफ से इस बार भी बीजेपी को अलर्ट भेज दिया गया था - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के रोड शो के बाद तो भरपाई भी हो ही जानी थी.

लेकिन ममता बनर्जी को समाजवादी पार्टी का मंच देकर अखिलेश यादव ने जो जोखिम उठाया है, लेने के देने पड़ जाने की आशंका है - ये सब 2024 के लिए भले ही फायदेमंद हो, लेकिन अभी तो घाटे का ही सौदा लगता है.

ममता से अखिलेश को क्या मिला?

मंच से अखिलेश यादव के लिए वोट मांगने से पहले ही ममता बनर्जी ने साफ कर दिया था कि उनके वाराणसी दौरे का असली मकसद क्या है?

ममता बनर्जी पहले से ही समझाने लगीं कि अखिलेश जीते तो 2024 में बीजेपी नहीं जीत पाएगी. मतलब ये कि ममता बनर्जी की दिलचस्पी मौजूदा विधानसभा चुनाव से ज्यादा अगले आम चुनाव में है.

mamata banerjee, akhilesh yadav, narendra modiबनारस जाने भर से ममता बनर्जी का तो काम बन गया, अब अखिलेश यादव अपना हिसाब किताब करते रहें.

ममता बनर्जी लखनऊ में अखिलेश यादव के साथ महज एक प्रेस कांफ्रेंस करके लौट गयी थीं, लेकिन वाराणसी के कार्यक्रम के पीछे तो काफी सोची समझी रणनीति होगी. लखनऊ में ममता बनर्जी जो कुछ कहीं वो तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए रहा - वाराणसी में तो ममता बनर्जी की हर एक्टिविटी का फोकस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही होंगे, आसानी से समझा जा सकता है.

समाजवादी पार्टी की रैली में अखिलेश यादव के साथ साथ सभी बड़े नेता मौजूद थे. सपा गठबंधन के भी जयंत चौधरी और ओमप्रकाश राजभर भी शामिल थे - लेकिन सबसे बड़ा चेहरा बन गयीं ममता बनर्जी. बड़े हो जाने पर छोटों का ख्याल तो रखना ही पड़ता है. बोलीं भी उसी लहजे में, 'अखिलेश मेरा छोटा भाई है... अखिलेश आपके घर का बेटा है... आप लोग इसका साथ दीजिये.'

ममता बनर्जी ने बाकी जगहों की ही तरह दोहराया - यूपी में 'खेला होबे' और बीजेपी का 'खदेड़ा होबे'. बंगाल चुनाव के नतीजे आने के बाद से अखिलेश यादव भी अक्सर खदेड़ा होबे दोहराते रहे हैं.

रैली में ममता बनर्जी ने कहा, 'आप सभी का उत्साह देखकर ऐसा लग रहा है कि सुबह आने वाली है... रोशनी आने वाली है... अंधेरा जाने वाला है... यूपी का अच्छा दिन आने वाला है... देश से बीजेपी जाने वाला है... साथ में लड़ो... एक साथ आगे बढ़ो... हम दिखाएंगे कि सूरज की रोशनी किसके ऊपर है.'

ये रिश्ता कैसे बन गया: ममता बनर्जी ने अखिलेश यादव को छोटा भाई बताकर यूपी के लोगों से वोट देने को कहा है. ये संबोधन भी राजनीति की तरफ इशारा कर रहा है - क्योंकि छोटे भाई की जगह कुछ और कहा होता तो बीजेपी एक ही तीर से ममता बनर्जी और अखिलेश यादव दोनों ही का शिकार करने में जुट जाती.

देखा जाये तो मायावती की ही तरह ममता बनर्जी भी राजनीति में मुलायम सिंह यादव की समकालीन हैं. ऐसे में अगर कोई रिश्ता ही जोड़ना है तो ममता बनर्जी और अखिलेश यादव में बुआ-भतीजे का रिश्ता स्वाभाविक लगता है, लेकिन ममता बनर्जी ने छोटा भाई बता दिया है.

ये भी मुमकिन था कि ममता सियासी रिश्ते को कोई नाम नहीं देतीं तो भी बीजेपी की तरफ से यूपी में भी बुआ-भतीजे की राजनीति के किस्से सुनाये जाने शुरू हो जाते. पश्चिम बंगाल में तो ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी पूरे चुनाव ही बीजेपी नेताओं के निशाने पर रहे. यूपी में तो बीजेपी बुआ-भतीजे की राजनीति बोल कर अखिलेश यादव और मायावती के सपा-बसपा गठबंधन की याद दिलाने से भी नहीं चूकने वाली थी.

ममता को तो मन मांगी मुराद मिली है: असल बात तो ये है कि ममता बनर्जी को यूपी में पांव जमाने के लिए एक मजबूत मंच चाहिये था. एक ऐसी ठौर चाहिये थी जहां से वो अपनी मौजूदगी को लेकर मीडिया की सुर्खियां बटोर सकें - ये तो ऐसा लगता है जैसे ममता बनर्जी ने मदद के बहाने मुलायम सिंह यादव के धोखे का बदला अखिलेश यादव से ले लिया है. एक बार राष्ट्रपति चुनाव में ममता बनर्जी को आगे करने के बाद मुलायम ने पलटी मार ली थी, तब से वो काफी दिनों तक नाराज रहीं - लेकिन बाद में मायावती की तरह ममता बनर्जी भी अखिलेश यादव के साथ मेल जोल बढ़ा लिया.

ममता बनर्जी ने तो शहर में कदम रखते ही बनारस की धरती का राजनीतिक इस्तेमाल शुरू कर दिया. लोग बताते हैं कि विरोध करने वाले खड़े जरूर थे, लेकिन ममता बनर्जी का काफिला निकल भी जाता तो कुछ होने जाने वाला नहीं था. विरोध के नाम पर काला झंडा लिये नारेबाजी करके लोग शांत हो जाते और बात खत्म.

ममता बनर्जी जब शहर के चेतगंज इलाके से गुजर रही थीं, लगता है विरोध करने वालों की उनकी आंखे ज्यादा बेसब्री से ढूंढ रही होंगी. जैसे ही काले झंडे लिए लोग दिखे ममता बनर्जी ने गाड़ी रोक दी और उतर कर सड़क पर खड़ी हो गयीं - और फिर लोग मोबाइल से वीडियो बनाने लगे. भला और क्या चाहिये था. वीडियो सोशल मीडिया पर पहुंचा और चल पड़ा. ममता का काम हो गया था.

आरती देखने गईं तो वहां भी मैदान लूट लिया. सीढ़ी पर बैठ गयीं - और फिर से वीडियो बनने लगा. समझो काम हो ही गया. मोदी-योगी के स्लोगन वाले शहर में ममता-ममता की ऐसी आसान एंट्री तो ममता बनर्जी ने भी सोचा नहीं होगा.

ममता बनर्जी के साथ का ज्यादा फायदा तो तब होता जब अखिलेश यादव मदनपुरा, बजरडीहा या बनारस के आस पास के किसी इलाके में डोर टू डोर कैंपेन पर निकल गये होते. वो ममता बनर्जी की मुस्लिमपरस्त छवि को सूट भी करता. समाजवादी पार्टी की रैली का मंच देकर तो अखिलेश यादव ने बहुत बड़ा जोखिम उठा लिया है - आशंका तो ये हो रही है कि कहीं लेने के देने न पड़ें?

'बेइज्जती' की बातें 'नौटंकी' क्यों लगती हैं?

ममता बनर्जी का इल्जाम है कि बनारस में उनकी बेइज्जती की गयी. ममता बनर्जी ने बनारसवालों पर गाली देने का भी आरोप लगाया है. गाली तो बनारस में लोग प्रेम से देते हैं - और अगर गाली देने वालों को ममता बनर्जी बीजेपी का समर्थक या कार्यकर्ता मान रही हैं तो गलत सोच रही हैं - बीजेपी कार्यकर्ता ममता बनर्जी के साथ ऐसा नहीं करने वाले क्योंकि उनकी तरफ से मोदी ने बंगाल चुनाव में ही जबान दे रखा था.

ममता बनर्जी के नंदीग्राम के अलावा एक और सीट से लड़ने के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस की नेता महुआ मोइत्रा ने कह दिया था कि वो वाराणसी से चुनाव लड़ेंगी. एक रैली में रिएक्ट करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, 'लोकसभा में जरूर हाथ आजमाइये दीदी... हल्दिया से वाराणसी का जो वाटर-वे है, हमारी सरकार ने विकसित किया है... हो सकता है उसकी वजह से आपका मन वाराणसी की ओर मुड़ गया हो - और हां दीदी... मैं आपको कान में एक और बात कहना चाहता हूं... दीदी... मेरे बनारस के लोग... मेरी काशी के लोग, मेरे यूपी के लोग इतने बड़े दिलवाले हैं कि आपको बाहरी नहीं कहेंगे... आपको टूरिस्ट नहीं कहेंगे... आपको टूरिस्ट गैंग भी नहीं कहेंगे.'

बनारस दौरे में ममता बनर्जी का आरोप है कि उनकी बेइज्जती की गयी - और जो कुछ उनके साथ हुआ उसके लिए यूपी के मुख्यमंत्री को लेकर कहा है कि योगी संत नहीं हैं. वे योगी नहीं बल्कि भोगी हैं.

अपनी स्टाइल में आपबीती सुनाते हुए ममता बनर्जी ने बताया, 'मैं दशाश्वमेध घाट जा रही थी... तब मेरी गाड़ी पर डंडा मारा गया... मेरी गाड़ी को घेर लिया गया... काले झंडे दिखाये गये... मैं बाहर निकलकर खड़ी हो गई... क्योंकि, मैं डरती नहीं, फाइटर हूं...' ममता बनर्जी का कहना है कि यूपी में बहन-बेटियों का सम्मान नहीं है. योगी को संत कहना भी, संत शब्द का अपमान होगा.

ममता बनर्जी के मुताबिक, बनारस में उनकी बेइज्जती हुई, लेकिन याद रहे 10 दिसंबर, 2020 को बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ जो हुआ था वो क्या था - वो सम्मान तो कतई नहीं था.

जेपी नड्डा के काफिले पर हुए हमले को ममता बनर्जी ने नौटंकी करार दिया था. नड्डा के काफिले की कई गाड़ियों के शीशे टूट गये थे. बीजेपी का दावा रहा कि उसके कई कार्यकर्ताओं को चोटें भी आयी थीं - लेकिन बनारस दौरे में ममता बनर्जी की तरफ से ऐसी कोई शिकायत नहीं की गयी है.

नड्डा के काफिले पर हमले को लेकर तब ममता बनर्जी का कहना रहा, 'वो लोग केंद्र सरकार के सुरक्षा दस्ते के साथ आते हैं... उन पर हमला कैसे हो सकता है? एक नेता के साथ 50 कारों का काफिला जाने की क्या जरूरत है?'

देखा जाये तो ममता बनर्जी के साथ वैसा तो कुछ भी नहीं हुआ है जिसे वो नौटंकी बताती हैं, फिर बेइज्जती क्यों हुई? किस बात को लेकर हुई?

ममता बनर्जी का काफिले गुजरने के दौरान चेतगंज में जो कुछ उसे लेकर एक वीडियो भी शेयर किया गया है. सुन कर कोई गाली समझ में नहीं आती है. नारेबाजी जरूर हो रही है.

और हां, अगर बंगाल से बाहर ममता बनर्जी जमीन तलाश रही हैं तो ये भी मालूम होना चाहिये कि 'जय श्रीराम' का नारा सियासी स्लोगन हो सकता है, लेकिन 'हर हर महादेव' गाली तो हरगिज नहीं हो सकता.

इन्हें भी पढ़ें :

पांच साल बाद भी पूर्वांचल में मोदी को ही संकटमोचक क्यों बनना पड़ रहा है?

अखिलेश यादव को ममता विपक्षी सहयोगी मानती हैं या तृणमूल विस्तार का एक टूल

UP Election 2022: पूर्वांचल में कौन साबित होगा पिछड़ों का 'नेता'?

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय