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Updated: 29 मार्च, 2018 05:54 PM
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अगस्त, 2017 में ही ममता बनर्जी ने संकेत दिया था कि 2019 की लड़ाई बंगाल से लड़ी जाएगी. भारत छोड़ो आंदोलन की बरसी पर 9 अगस्त को ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने एक मुहिम की शुरुआत की थी. इस मुहिम को जो नाम दिया गया था उसमें 'भारत छोड़ो आंदोलन' से पहले बीजेपी जोड़ दिया गया था - 'बीजेपी भारत छोड़ो आंदोलन'. टीएमसी का ये आंदोलन पूरे अगस्त भर चला था और उसी दौरान पटना में लालू प्रसाद की रैली 'बीजेपी हटाओ, देश बचाओ' भी हुई थी.

तब से लेकर अब तक बहुत बदलाव देखने को मिले हैं. लालू प्रसाद जेल चले गये और नीतीश कुमार ने पाला बदल कर नीतीश से हाथ मिला लिया. इसी दरम्यान ममता मजबूत होती गयीं - और अब तो हालत ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ 2019 में मोर्चेबंदी के लिए वो कांग्रेस को ज्वाइन करने का न्योता देने लगी हैं.

कांग्रेस की हैसियत?

प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ मोर्चेबंदी का जो काम नीतीश कुमार ने सोनिया को थमा अधूरा छोड़ दिया था, ममता बनर्जी ने आगे बढ़ कर उसे ही थाम लिया है - दिलचस्प बात ये है कि जिस ममता को मोर्चेबंदी में शामिल होने के लिए सोनिया गांधी अस्पताल के बेड से फोन किया करती रहीं, वही ममता बनर्जी अब कांग्रेस को मोर्चे में शामिल होने का न्योता दे रही हैं - और उसकी अहमियत भी समझा रही हैं. जिस राजनीति में नीतीश कुमार पूरी तरह चूक गये ममता बनर्जी वही पॉलिटिक्स आगे बढ़ा रही हैं.

mamata, rahul, soniaमोर्चे में 'ममता' का पेंच!

कांग्रेस की जो हैसियत बीजेपी बात बात पर बताती रहती है, ममता बनर्जी भी उसके साथ लगभग वैसा ही व्यवहार करती दिख रही हैं. ये सही है कि टीएमसी और कांग्रेस के सांसदों की संख्या में ज्यादा फासला नहीं, लेकिन तुलना का सिर्फ यही आधार नहीं हो सकता. ममता को मालूम होना चाहिये कि राज्यों में कांग्रेस की सरकारें भले ही सिमट चुकी हों लेकिन वो टीएमसी की तरह सिर्फ एक राज्य तक सीमित नहीं है.

ममता का आत्मविश्वास तो इस कदर बढ़ा हुआ है कि अब वो कांग्रेस को भी एक क्षेत्रीय पार्टी की तरह ट्रीट करने लगी हैं. ममता की बात पर जरा गौर कीजिए, "मैं चाहती हूं कि कर्नाटक में कांग्रेस जीते क्योंकि वहां वो मजबूत है. उत्तर प्रदेश में हम चाहते हैं कि अखिलेश यादव और मायावती जीतें और बिहार में लालू प्रसाद..."

असल में, विपक्षी खेमे में नेतृत्व को लेकर जो दिक्कत कभी नीतीश कुमार के सामने रही तकरीबन वैसी ही फिलहाल ममता बनर्जी के सामने है. नीतीश की राह में भी राहुल गांधी ही बाधा थे और ममता के रास्ते में भी वही खड़े हैं. थोड़ा फर्क जरूर है कि ममता को बाकी विपक्ष का मजबूत सपोर्ट मिल रहा है, लेकिन महत्वपूर्ण बात ये भी है कि राहुल गांधी भी निखर चुके हैं.

तीसरे मोर्चे को लेकर हर कोशिश की हकीकत एक ही होती है - नेता कौन होगा. इस बार थोड़ा फर्क लग रहा है. पिछले प्रयासों में प्रधानमंत्री पद के दर्जन भर दावेदार हो जाया करते थे. हाल फिलहाल ये संख्या कम हो गयी है. मोदी से हाथ मिलाने तक जो जगह नीतीश कुमार को हासिल थी - अब वहां ममता बनर्जी स्थापित हो चुकी हैं. नीतीश की मुश्किल ये रही कि तब महागठबंधन में उनके साझीदार लालू प्रसाद उनकी टांग खींचते रहते रहे और अब ममता बनर्जी को आरजेडी के साथ साथ दूसरे दलों का भी समर्थन मिल रहा है.

'पप्पू' से परहेज

चुनाव आयोग के कहने पर बीजेपी ने भले ही 'पप्पू' शब्द का इस्तेमाल छोड़ दिया हो, लेकिन राहुल के बारे में ममता के विचार अब भी नहीं बदले हैं. ममता बनर्जी का दिल्ली दौरा बड़ा ही तूफानी रहा. वो हर उस नेता से मिलीं जो उनके काम का लगा. ममता सोनिया सहित बीजेपी के बागी नेताओं से भी मिलीं, अखिलेश यादव से फोन पर बात तक किया, लेकिन राहुल गांधी को घास तक न डाली.

इसी महीने सोनिया गांधी ने विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशों के तहत सबको डिनर पर बुलाया था. ममता ने डिनर से दूरी तो नहीं बनायी लेकिन खुद नहीं पहुंची, सिर्फ अपना प्रतिनिधि भेज दिया. रिपोर्ट बताती हैं कि ममता त्रिपुरा को लेकर कांग्रेस के रवैये से नाराज थीं. ममता चाहती थीं कि विपक्ष बीजेपी के खिलाफ एकजुट होकर काम करे, लेकिन कांग्रेस ने दिलचस्पी नहीं दिखायी. ममता के दिल्ली पहुंचने के बाद भी ऐसी चर्चा रही कि ममता और कांग्रेस दोनों एक दूसरे से बचने की कोशिश कर रहे हैं. ये चर्चा तब जाकर खत्म हुई जब ममता ने 10, जनपथ जाकर सोनिया गांधी से मुलाकात की.

mamata, bjp leadersहम सब साथ हैं, फिलहाल!

मुलाकात के बाद ममता ने बताया कि सोनिया गांधी से उनके रिश्ते बड़े अच्छे हैं और जब भी वो दिल्ली आती हैं, मिलती जरूर हैं. साथ ही, बड़ी साफगोई से ममता ने एक और बात बतायी - ये मुलाकात राजनीतिक रही.

'भाजपा मुक्त भारत!'

पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने के करीब साल भर बाद ही ममता ने केंद्र की यूपीए सरकार से नाता तोड़ लिया था. पांच साल बाद दोबारा मैदान में उतरीं तो मुकाबले में दूसरी छोर पर कांग्रेस भी थी, लेकिन डर तो बीजेपी को लेकर था. बहरहाल, ममता ने मुकाबले में शानदार जीत हासिल की, लेकिन बीजेपी की पांव जमाने की लगातार कोशिश और मुकुल रॉय को झटक लेने को ममता बनर्जी अलर्ट के तौर पर देख रही हैं.

बीजेपी के खिलाफ पिछले साल अगस्त में जब ममता ने जोरदार मुहिम शुरू की तो ऐलान-ए-जंग भी जोरदार अंदाज में किया - बीजेपी के खिलाफ आंदोलन की शुरुआत बंगाल की धरती से ही होगी.

बीजेपी के बागी ब्रिगेड के सीनियर नेता अरुण शौरी से ममता की मुलाकात में '69 फीसदी' वाले फॉर्मूले पर गंभीरता से चर्चा हुई. समझा जाता है कि सोनिया गांधी से मुलाकात में भी ममता ने यही फॉर्मूला समझाने की कोशिश की. इसे 'वन-टू-वन' फॉर्मूला के तौर पर भी समझाया जा रहा है. बताते हैं कि अरुण शौरी का आकलन है कि मोदी की अपार लोकप्रियता के बावजूद 2014 में बीजेपी को महज 31 फीसदी वोट मिल पाये और उसने सत्ता हासिल कर ली. विपक्ष को 69 फीसदी वोट मिले लेकिन इधर उधर बिखरे होने के कारण बेकार चले गये. अब आइडिया है कि क्यों न इस 69 फीसदी को इकट्ठा किया जाये. इकट्ठा ये उसी हाल में होगा जब क्षेत्रीय स्तर पर गठबंधन हो - जो जहां मजबूत है उसके आधार पर. ऐसा हुआ तो बीजेपी को विधानसभा, निकाय या पंचायत चुनावों की तरह मैदान में सीधे सीधे मुकाबला करना होगा और नतीजे बिलकुल अलग हो सकते हैं.

खबर है कि सोनिया गांधी से मुलाकात में भी ममता की लगातार यही कोशिश रही कि बीजेपी के खात्मे के लिए इससे कारगर नुस्खा कोई और नहीं है. जैसे अरुण शौरी ने ममता को फॉर्मूला बताया है, उसी तरह शरद पवार ने समझाया है कि बगैर कांग्रेस के फेडरल फ्रंट न तो पूरी तरह कामयाब हो पाएगा और न ही मकसद हासिल कर पाएगा.

बीच में गैर-बीजेपी के साथ साथ गैर-कांग्रेस मोर्चे की भी बात चल रही है. ममता बनर्जी के लिए रास्ता इसलिए आसान हो गया है कि वो दोनों ग्रुप में फिट हो जा रही हैं. कांग्रेस के साथ तो वो अरसे से रही हैं, अब उन्हें शिवसेना और टीडीपी जैसी पार्टियों के साथ तो मिल ही रहा है, ऊपर से अरुण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा और यशवंत सिन्हा भी एक सुर में तारीफों के कसीदे पढ़ रहे हैं.

सिर्फ यही नहीं, विपक्षी कुनबे में अछूत बने हुए आप नेता अरविंद केजरीवाल के साथ भी ममता बनर्जी की अच्छी दोस्ती है और मोदी सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करने में दोनों मंच भी साझा करते हैं.

कांग्रेस की मुश्किल यही है कि उसके सामने अस्तित्व का सवाल खड़ा हो गया है और विपक्ष को कांग्रेस की शर्त नहीं मंजूर है. मौजूदा वक्त में पूरे विपक्ष के साथ समन्वयक बनीं बनर्जी की राह में सोनिया की ममता ही आड़े आ जा रही है. ममता को राहुल का नेतृत्व नहीं पसंद है और कांग्रेस को कोई और मंजूर नहीं है.

कुल मिलाकर देखें तो ये साफ है कि सोनिया अगर ममता की बात मान लें तो मैगी से भी कम वक्त में मोदी के खिलाफ मोर्चा खड़ा हो सकता है - और 'भाजपा मुक्त भारत' का मकसद भी हासिल हो सकता है.

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