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Updated: 30 अप्रिल, 2020 07:30 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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महाराष्ट्र की राजनीति घूमती-फिरती फिर से उसी मोड़ की तरफ बढ़ने लगी है जहां करीब छह महीने पहले थी. वो मोड़ जहां बीजेपी (BJP) और शिवसेना का गठबंधन टूटा और देवेंद्र फडणवीस ने सत्ता हासिल करने की नाकाम कोशिश की. एक बार फिर से महाराष्ट्र (Maharashtra) के राजनीतिक हालात ठीक वैसे ही होते नजर आ रहे हैं जैसे विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद हो गये थे.

तब और अब के राजनीतिक हालात में फर्क ये है कि उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) को मुख्यमंत्री बने छह महीने हो चुके हैं - और अभी तक ऐसा कुछ नहीं देखने को मिला है जिससे राजनीतिक विरोधियों को छोड़ कर कोई और नाखुश हो. राजनीतिक साथियों से रिश्ते भी ठीक-ठाक ही चल रहे हैं, बल्कि सोनिया गांधी के साथ तो कुछ ज्यादा ही तत्परता दिखायी गयी है.

कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन के दौरान जो हालात हैं, महाराष्ट्र का देश में सबसे ज्यादा बुरा हाल है - कोरोना संक्रमितों और मौतों दोनों ही हिसाब से. फिर भी ऐसा कुछ तो नहीं ही है कि उद्धव ठाकरे की सरकार किसी फ्रंट पर लापरवाही बररते नजर आयी हो.

ऐसी हालत में बीजेपी के लिए महाराष्ट्र की राजनीति में कोई भी कदम बढ़ाना जोखिम भरा हो सकता है - ये बात अलग है कि परदे के पीछे वो सौदेबाजी के में कितनी कामयाब रहती है.

बीजेपी कितना अलर्ट है

बीजेपी महाराष्ट्र के लोगों को क्या मैसेज देना चाहती है, इसे पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के बयानों से समझा जा सकता है. देवेंद्र फडणवीस लगातार एक्टिव भी हैं और उद्धव सरकार पर हमलावर भी - लेकिन जो कुछ भी कह रहे हैं वो राजनीतिक रूप से सही हो, इस बात का ख्याल जरूर रखते हैं. हालांकि, महाविकास आघाड़ी सरकार पर हमले का कोई मौका भी नहीं चूक रहे हैं. माना जा सकता है कि देवेंद्र फडणवीस की अगुवाई में बीजेपी महाराष्ट्र में विपक्ष के बेहतरीन रोल में दिखने की कोशिश जरूर कर रही है.

तब्लीगी जमात, वधावन भाइयों, बांद्रा में मजदूरों की जमघट से लेकर पालघर में साधुओं की हत्या तक सभी मुद्दों पर देवेंद्र फडणवीस ने अपना रिएक्शन दिया है और सभी मामले अलग अलग तरीके से उठाये हैं. तब्लीगी जमात को देवेंद्र फडणवीस ने जहां मानव बम जैसा बताया तो वधावन भाइयों के मामले में पुलिस अफसर पर नहीं बल्कि राजनीतिक नेतृत्व पर उंगली उठायी. वैसे ही बांद्रा और पालघर को लेकर कानून-व्यवस्था के नाम पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की.

uddhav thackeray, devendra fadnavisदेवेंद्र फडणवीस विपक्ष के नेता की भूमिका निभा जरूर रहे हैं, लेकिन बेहद सतर्क होकर

पालघर में दो साधुओं की हत्या के राजनीतिक रंग लेने पर भी देवेंद्र फडणवीस एक्टिव रहे और राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से मुलाकात कर सरकार के खिलाफ नाराजगी दर्ज करायी है. देवेंद्र फडणवीस ने महाराष्ट्र में आपातकाल जैसे हालात पैदा करने की कोशिश का आरोप लगाया है. राज्यपाल से मुलाकात के बाद देवेंद्र फडणवीस ने कहा भी, 'राज्य सरकार की ओर से एक प्रकार से प्रदेश में इमरजेंसी लागू करने का प्रयास किया जा रहा है... मीडिया पर दबाव डाला जा रहा है - पहले एक रिपोर्टर को अरेस्ट किया गया. फिर एक संपादक के खिलाफ गृह मंत्री ने कानून मंत्रालय को पत्र लिखा और उन पर ऐक्शन की बात कही... इसके बाद अर्नब गोस्वामी को पुलिस ने 12 घंटे तक बिठा कर रखा और उनसे पूछताछ की.'

लेकिन जब उद्धव ठाकरे को MLC मनोनीत किये जाने के सवाल होता है तो देवेंद्र फडणवीस सतर्क हो जाते हैं, 'मैं बस ये कहना चाहूंगा कि राज्यपाल जो भी फैसला लेंगे वो संवैधानिक नियमों के अनुरूप और उचित होगा. उद्धव ठाकरे को परिषद में मनोनीत करने और मुख्यमंत्री के रूप में जारी रखने के लिए भाजपा बहुत खुश होगी - क्योंकि बीजेपी राज्य में अस्थिरता नहीं चाहती.'

अस्थिरता - यही वो मसला है जो बीजेपी के लिए बहुत ही जोखिम भरा हो सकता है और यही वजह है कि बीजेपी फूंक फूंक कर ही कोई कदम बढ़ाना चाहती है.

सुना तो यही गया है कि उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी अपनी शिकायत में इसी बात पर जोर दिया है - राज्य में फिर से राजनीतिक अस्थिरता लाये जाने की कोशिश की जा रही है. उद्धव ठाकरे के पक्ष को मजबूती देने के लिए संजय राउत पहले ही कह चुके हैं कि राज भवन को राजनीतिक साजिशों का अड्डा नहीं बनना चाहिये. मतलब साफ है - शिवसेना अलग अलग तरीके से लोगों को मैसेज देना चाहती है कि सरकार को गिराकर सूबे में अस्थिरता लाये जाने की कोशिश हो रही है. जाहिर है बीजेपी को भी ये बात अच्छी तरह समझ में आ ही रहा होगा.

देवेंद्र फडणवीस ने इसी क्रम में ये भी कहा है कि बैकडोर एंट्री में बीजेपी की कोई दिलचस्पी नहीं है. वैसे भी देवेंद्र फडणवीस एक बार रातोंरात ऐसा तो कर ही चुके हैं. भले ही देवेंद्र फडणवीस ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा की नकल की, लेकिन अब वो उसे हुए नुकसान को समझ चुके हैं. देवेंद्र फडणवीस तीन दिन तक मुख्यमंत्री जरूर रहे लेकिन उसके बाद उनकी छवि ऐसे अवसरवादी नेता की बनी जो जैसे तैसे सत्ता हासिल करने में दिलचस्पी रखता है. वैसे भी देवेंद्र फडणवीस अपने विरोधियों पंकजा मुंडे और दूसरे कई मराठी नेताओं के निशाने पर पहले से ही हैं.

उद्धव न तो कमलनाथ है न नीतीश कुमार

कमलनाथ मध्य प्रदेश में अपनी सरकार गिराये जाने के बाद से लगातार आक्रामक हैं. कहने को तो वो इस्तीफा देते वक्त ही बोल दिये थे - आज के बाद कल आता है और कल के परसों. सुनने में भले ही ये छोटे छोटे शब्दों से मिल कर बना एक छोटा सा ही वाक्य हो, लेकिन ये लंबी दूरी के गहरे अर्थ वाले शब्दों का मजबूत समूह है. कमलनाथ अपने मिशन में लगे हैं और मध्य प्रदेश कांग्रेस की तरफ से तो एक बार ट्वीट भी किया गया था कि 15 अगस्त को कमलनाथ ही तिरंगा फहराएंगे - हालांकि, ये कोरोना संकट के विकराल रूप लेने से पहले ही की बात है.

कमलनाथ और उनके साथी लॉकडाउन के फैसले में से राजनीति निकाल कर बीजेपी पर हमला कर चुके हैं कि जब तब शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद की शपथ नहीं ले ली, केंद्र सरकार ने लॉकडाउन लागू ही नहीं किया. शिवराज सिंह चौहान 23 मार्च को सीएम बने थे और 24 मार्च को आधी रात से लॉकडाउन की घोषणा हुई.

बीजेपी को ये भी मालूम होना चाहिये कि कमलनाथ और उद्धव ठाकरे में काफी फर्क है - और ऐसा ही नीतीश कुमार के साथ भी है. नीतीश कुमार का केस भी उद्धव ठाकरे से मिलता जुलता लग सकता है, अगर उनके एनडीए छोड़ कर जाने और लौटने के हिसाब से देखने की कोशिश करें.

महाराष्ट्र और बिहार की राजनीति के हिसाब से देखें तो एक जगह बीजेपी के पास नेता नहीं है और दूसरी जगह नेता है तो सरकार बनाने के लिए नंबर नहीं. बीजेपी की मुश्किल ये है कि नीतीश कुमार को तो मुख्यमंत्री बना सकती है, लेकिन उद्धव ठाकरे के लिए ढाई साल भी बांटने को तैयार नहीं है. फिर भी नीतीश कुमार की तरह उद्धव ठाकरे हमेशा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राजनीति में उलझाये नहीं रखते. उद्धव ठाकरे ने नीतीश कुमार की तरह योगी आदित्यनाथ की प्रधानमंत्री मोदी से शिकायत नहीं की, बल्कि दोनों से अलग अलग बात की. नीतीश कुमार तो कोरोना संकट में दूसरे राज्यों से बिहार को लोगों को वापस लाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के पाले में गेंद डाल दे रहे हैं. उद्धव ठाकरे ऐसा नहीं करते.

तभी तो बिहार का विधायक सीधे उद्धव ठाकरे को फोन करता है कि उसके इलाके के लोग महाराष्ट्र में भूखे-प्यासे हैं और फौरन मदद पहुंच जाती है. ये काम आरजेडी विधायक सरोज यादव ने किया था क्योंकि मालूम था कि नीतीश कुमार की सरकार तो कहने पर कोई न कोई राजनीतिक बहाना खोज ही लेगी.

ऐसे में जबकि शिवसेना पहले से ही माहौल तैयार करने में लगी हो कि बीजेपी उद्धव ठाकरे सरकार को गिराकर फिर से महाराष्ट्र में राजनीतिक की अस्थिरता लाने की कोशिश कर रही है, बीजेपी फिलहाल किसी भी हद तक जाने को तैयार होगी ताकि ये तोहमत न लगे. जब शिवसेना से गठबंधन टूट गया था लेकिन महाविकास आघाड़ी नहीं बना था, देवेंद्र फडणवीस संघ प्रमुख मोहन भागवत से मिलने गये थे. तब यही मालूम चला था कि भागवत ने फडणवीस को कोई भी ऐसा वैसा कदम न उठाने की हिदायत दी थी जिससे लोगों में तोड़-फोड़ का संदेश जाये. फिर भी देवेंद्र फडणवीस माने नहीं और एक रात की तैयारी में सुबह सुबह 72 घंटे की वैलिडिटी वाले मुख्यमंत्री बन गये.

बीजेपी को ये तो मालूम होना ही चाहिये कि उसका मुकाबला उद्धव ठाकरे के नये अवतार से है. मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से है. मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे जो गरीबों के लिए शिव-थाली शुरू कर चुके थे. किसानों के कल्याण के लिए कार्यक्रम शुरू करने में तत्पर हो चले थे - और जब कोरोना वायरस का प्रकोश शुरू हुआ तब से तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद मोर्चे पर डटे हुए हैं और कोरोना पर अपडेट तो देते ही ही हैं - मीडिया के सामने आकर ये भी बताते हैं कि पालघर में साधुओं की हत्या कोई सांप्रदायिक घटना नहीं है.

ये तो बीजेपी को भी मालूम है कि महाराष्ट्र में सिर्फ हिंदुत्व नहीं चलता क्योंकि वहां मराठी मानुष पहले है - और बाकी बातें बाद में. उद्धव ठाकरे की नजर वहीं है. हिंदुत्व नहीं छोड़ना है लेकिन मराठी मानुष को साध लेना है. अगर एक बार शिवसेना ने मराठी मानुष को साध लिया, फिर तो हर मुश्किल आसान हो जाएगी - और यही बात बीजेपी की मुश्किल बढ़ा रही है.

फिलहाल बीजेपी के बड़ी मुश्किल यही है कि उद्धव ठाकरे की सरकार को कैसे चलने दे या गिर जाने दे या नये सिरे से उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने ने किसी तरह की बाधा न खड़ी करे - कुल मिलाकर बीजेपी की तरफ से ऐसा कुछ भी न हो जिसका सीधा फायदा और सहानुभूति उद्धव ठाकरे मुफ्त में लूट लेने में कामयाब हों.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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