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Updated: 03 नवम्बर, 2021 10:35 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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बिहार उपचुनाव के नतीजों ने बहुत कुछ साफ कर दिया है. चुनावी जीत के लकी-चार्म नीतीश कुमार ही हैं, लालू यादव नहीं. बिहार में इस हिसाब से साफ साफ बंटवारा हो गया है. जिधर नीतीश कुमार उधर जीत पक्की, जिधर लालू यादव उधर हार तय. लालू यादव और नीतीश कुमार साथ साथ हों तो बीजेपी हार जाती है, नीतीश कुमार बीजेपी के साथ होते ही लालू यादव हार जाते हैं.

बिहार में दो सीटों पर हुए उपचुनाव हर किसी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बने हुए थे - तारापुर और कुशेश्वर स्थान. नीतीश कुमार के लिए तो ये चुनाव चैलेंज थे ही, सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण रहे जेल से जमानत पर छूटने के बाद पहली बार बिहार पहुंचे लालू यादव के लिए - और नये नवेले कांग्रेस नेता बने कन्हैया कुमार के लिए भी.

कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) तो बिहार उपचुनाव के नतीजे आने के बाद लगभग वैसा ही महसूस कर रहे होंगे, जैसा 2019 का आम चुनाव प्रियंका गांधी वाड्रा के लिए रहा. जैसे प्रियंका गांधी को आम चुनाव से पहले कांग्रेस में औपचारिक एंट्री दी गयी थी, कन्हैया कुमार भी वैसे ही बिहार उपचुनावों से पहले कांग्रेस ज्वाइन किये थे. कन्हैया कुमार को भी उपचुनावों में हुई कांग्रेस की हार वैसी ही लगी होगी, जैसी अमेठी की हार प्रियंका गांधी वाड्रा को - चूंकि अमेठी में उम्मीदवार राहुल गांधी ही थे, लिहाजा कन्हैया कुमार को तारापुर और कुशेश्वर स्थान में कांग्रेस की जमानत जब्त हो जाने पर भी शायद उतनी तकलीफ न हुई हो. कन्हैया कुमार के लिए ये बेगूसराय की हार का लालू परिवार के साथ साथ बीजेपी से भी बदला लेने का बहुत बड़ा मौका रहा, लेकिन लगता है अभी उनको और इंतजार करना होगा.

ताज्जुब की बात तो ये है कि लालू यादव की मौजूदगी पूरी तरह बेकार चली गयी. उपचुनाव पर लालू यादव अपनी कोई भी छाप छोड़ पाने में नाकाम साबित हुए. सिर्फ तेजस्वी यादव की कौन कहे, लालू यादव के इस कदर बेअसर हो जाने से राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं को तो जो झटका लगा है, उबरने में भी लंबा वक्त लगेगा.

लालू यादव (Lalu Yadav) के रांची जेल में रहते दो चुनाव हुए - पहला, 2019 का आम चुनाव और दूसरा, बिहार विधानसभा चुनाव 2020. आम चुनाव में तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आरजेडी को जीरो बैलेंस हासिल हुआ, जबकि गठबंधन पार्टनर कांग्रेस ने एक सीट जीत भी ली - और लाल रंग उतारकर कांग्रेस का चोला धारण करने के बाद पटना पहुंचते ही कन्हैया कुमार ने लालू परिवार को इस बात के लिए ताना भी मारा था. कन्हैया कुमार मानते होंगे कि बेगूसराय संसदीय सीट पर उनकी हार में सबसे घातक आरजेडी की ही भूमिका रही, हालांकि, आंकड़े तो यही बताते हैं कि तब भी उपचुनावों जैसा ही हाल हुआ होता. केंद्रीय मंत्री और तब बीजेपी उम्मीदवार रहे गिरिराज सिंह, कन्हैया कुमार और आरजेडी उम्मीदवार दोनों को मिले वोटों से काफी ज्यादा वोट पाये थे. तारापुर तो नहीं लेकिन कुशेश्वर स्थान का रिजल्ट भी यही कहानी कह रहा है.

बिहार विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव आरजेडी को सत्ता भले न दिला पाये हों, लेकिन नंबर 1 पार्टी तो बना ही दिया. एक सीट से पिछड़ कर ही सही, बीजेपी भी दूसरे नंबर पर ही रह गयी - लेकिन जेल से लौटने के के लालू यादव ने कुशेश्वर स्थान और तारापुर पहुंच कर पूरी ताकत लगा कर चुनाव प्रचार करने पर भी आरजेडी को हार का ही मुंह देखना पड़े, फिर तो तेजस्वी यादव के लिए भी ये नये सिरे से सोचने वाली बातें हैं.

कहां लालू यादव बिहार की दो सीटों के उपचुनाव के नतीजे आने के बाद नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की सरकार तक बदल डालने की बातें करने लगे थे, कहां एक भी सीट पर आरजेडी के लिए जीत नहीं सुनिश्चित कर पाये - ये तो बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए न सिर्फ हतोस्ताहित करने वाला है, बल्कि बहुत बड़ा सदमा भी है.

हार का ठीकरा तो लालू के ही सिर मढ़ा जाएगा

2014 के बाद से देश में भारतीय जनता पार्टी को चुनावी मशीन माना जाता है, लेकिन बिहार में हुए दो उपचुनावों में तो ऐसा लगा जैसे हर राजनीतिक दल बीजेपी से ही प्रेरणा लेकर चुनाव मैदान में एड़ी चोटी का जोर लगाये हुए हो - सत्ताधारी एनडीए गठबंधन के नेता जहां लगातार इलाके में कैंप करते रहे, तेजस्वी यादव खुद तो डेरा डाले ही रहे, हर पंचायत में एक एक विधायक को मोर्चे पर उतार डाले थे.

lalu yadav, kanhaiya kumar, nitish kumarनीतीश कुमार के आगे न कन्हैया कुमार टिक पाये और न ही लालू यादव

वोटिंग से थोड़े ही पहले तेजस्वी यादव ने अपने पिता लालू यादव को भी प्रचार के लिए इलाके में बुला लिया था. एक ही दिन के लिए सही लालू यादव चुनाव प्रचार करने गये और बीमारी की हालत में भी लगा जैसे पूरी ताकत झोंक दी हो - चुनाव क्षेत्र में तो जो बोले वो बोले ही, दिल्ली से रवाना होते वक्त और पटना पहुंचते ही लालू यादव ने अपनी बातों से ऐसा माहौल तो बना ही दिया था जिससे उनकी मजबूत मौजूदगी महसूस की जाने लगी थी.

लेकिन हर किसी पर वैसा असर भी नहीं लगा - जेडीयू नेता संजय झा ने तो लालू यादव की हिस्सेदारी पर वैसे ही रिएक्ट किया जैसे बीजेपी नेता चुनावों में राहुल गांधी को लेकर अक्सर टिप्पणी करते रहते हैं.

हल्के-फुल्के अंदाज में ही संजय झा ने कटाक्ष किया था - 'लालू जी आ गये हैं... अब चिंता वाली कोई बात नहीं है.' नीतीश कुमार सरकार के दो मंत्रियों संजय झा और अशोक चौधरी पर उपचुनावों की खास जिम्मेदारी रही और दोनों ही सफल रहे. कुशेश्वर स्थान के लिए संजय झा को मोर्चे पर तैनात किये जाने की वजह उनका दरभंगा से होना भी रहा और वो ही एनडीए नेताओं के साथ समन्वय बनाये हुए थे कि किसे कहां और कब चुनाव प्रचार करना है.

लालू यादव ने एक ही दिन कुशेश्वर स्थान और तारापुर में दो रैलियां की, तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दो दिन में दोनों इलाकों में कुल पांच चुनावी सभाएं, लेकिन दूसरी तरफ बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने 40 से ज्यादा नुक्कड़ सभाएं की - और चुनाव प्रचार में इस कदर मशगूल रहे कि पटना में विधानसभा भवन के शताब्दी समारोह में राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के कार्यक्रम में भी शामिल नहीं हुए.

आरजेडी विधायकों को तो तेजस्वी यादव ने दोनों इलाकों की सभी पंचायतों में तैनात कर दिया था, खुद भी गली-गली घूम-घूम कर चुनाव प्रचार करते देखे गये - लेकिन उसमें ज्यादातर जगह वन मैन शो वाला ही हिसाब किताब दिखा. तेजस्वी यादव किसी बड़े नेता को साथ नहीं रख रहे थे, रणनीति उसके पीछे जो भी हो.

तेजस्वी यादव ही लालू यादव के उत्तराधिकारी हैं, ये घोषणा खुद लालू यादव ने चुनावों के दौरान ही दोहरायी भी. हो सकता है ऐसा वो तेजस्वी और तेज प्रताप यादव के बीच चल रही जबरदस्त तकरार को खत्म करने और सुलह कराने के मकसद से किया हो - लेकिन ध्यान देने वाली एक बात और रही कि तेज प्रताप ने चुनाव प्रचार से दूरी बनाये रखी. पहले तो तेज प्रताप ने यहां तक धमकी दे डाली थी कि वो आरजेडी के खिलाफ वोट मांगेंगे.

लालू यादव की लाख कोशिशों के बावजूद झगड़ा तो खत्म होता नहीं लगता क्योंकि उपचुनाव में हार के लिए तेज प्रताप यादव अब तेजस्वी यादव के खिलाफ आक्रामक होते जा रहे हैं. तेज प्रताप का कहना है कि तेजस्वी यादव के फैसलों के कारण ही पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा है. तेज प्रताप के निशाने पर आरजेडी के कुछ नेता भी हैं - और कह रहे हैं कि कांग्रेस के साथ गठबंधन न टूटा होता तो नतीजे अलग हो सकते थे. वैसे तेज प्रताप कुछ हद तक सही भी लगते हैं क्योंकि तारापुर के आंकड़े बताते हैं कि कांग्रेस और आरजेडी उम्मीदवारों के वोट जोड़ें तो हार का अंतर ज्यादा नहीं है.

जिस बात पर लालू परिवार और आरजेडी में गहरी खामोशी छायी हुई है, वो ज्यादा गंभीर है. ऐसा इसलिए क्योंकि अगर बीते लगातार तीन चुनावों की बात करें तो लालू यादव की अलग ही भूमिका नजर आती है - और वो बहुत जोर का झटका है.

1. लोक सभा चुनाव 2019: आम चुनाव में तेजस्वी यादव पहली बार आरजेडी का नेतृत्व कर रहे थे, वो भी लालू यादव की गैरमौजूदगी में. फिर भी तेजस्वी यादव कदम कदम पर लालू यादव के नाम पर ही वोट मांगते रहे.

जहां कहीं भी तेजस्वी यादव चुनाव प्रचार के लिए जाते किसी न किसी बहाने ये याद दिलाना नहीं भूलते कि वो लालू यादव के ही बेटे हैं - और आरजेडी को लोग लालू यादव की पार्टी समझ कर ही वोट दें - नतीजा सिफर रहा. एक भी संसदीय सीट नहीं जीत पाये.

2. विधानसभा चुनाव 2020: चुनाव से काफी पहले से ही तेजस्वी यादव ने लालू यादव के साये से दूरी बनानी शुरू कर दी थी. कई बार जंगलराज के लिए माफी भी मांगे जिसे लेकर नीतीश कुमार और बीजेपी नेता हरदम ही हमलावर रहे हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो तेजस्वी यादव को चुनावों में जंगलराज का युवराज ही बता डाला था, लेकिन तेजस्वी यादव शांत बने रहे - लेकिन कहीं भी पोस्टर या बैनर में लालू यादव या मुख्यमंत्री रहीं राबड़ी देवी की तस्वीर तक का इस्तेमाल नहीं किया.

चुनाव नतीजे आये तो मालूम हुआ आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बन कर सामने आयी - 75 सीटें हासिल कर बीजेपी को भी दूसरे स्थान पर पहुंचा दिया. सत्ता हासिल करने से भले ही चूक गये.

3. बिहार उपचुनाव 2021: दोनों चुनावों से अलग, तेजस्वी यादव ने न सिर्फ लालू यादव की मौजूदगी दर्ज करायी बल्कि चुनाव प्रचार के लिए भी इलाके में ले गये. लालू यादव ने दोनों ही चुनाव क्षेत्रों में रैली की और नतीजे आने पर नीतीश कुमार की सरकार तक गिर जाने का दावा कर डाला था.

लालू यादव ने भी बढ़ चढ़ कर दावे किये थे. बोले कि राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने तो तेजस्वी यादव ने ही लगा दिये, वो तो सिर्फ विसर्जन के लिए पहुंचे हैं. नीतीश कुमार ने भी दो कदम आगे बढ़ कर ही रिएक्ट किया - वो तो गोली भी मरवा सकते हैं.

नीतीश कुमार के रिएक्शन के बाद लालू यादव बचाव की मुद्रा में आ गये थे. विसर्जन वाली बात पर कई बार सफाई देते भी देखे गये. इन बातों का लोगों पर कितना असर हुआ, ये अलग बात है लेकिन सबसे बड़ा सच तो यही है कि नतीजे लालू यादव के खिलाफ ही गये हैं.

तीन चुनावों में अलग अलग तरह के नतीजे देखने को मिलते हैं, लेकिन निष्कर्ष तो यही निकलता है कि लालू यादव का साया पड़ते ही आरजेडी को हार का मुंह देखना पड़ता है - ये सब तो जेडीयू नेता संजय झा की बातों को ही सही बता रहा है.

लालू ने RJD के मुकाबले कांग्रेस का सही आकलन किया

ये तो वोटिंग से पहले ही साफ हो गया था कि उपचुनाव में कांग्रेस और आरजेडी के रास्ते अलग अलग होने जा रहे हैं. कांग्रेस मान कर चल रही थी कि एक-एक सीट पर दोनों पार्टियां चुनाव लड़ेंगी, लेकिन जब आरजेडी ने दोनों सीटों पर उम्मीदवार उतार दिये तो क्रिया की जबरदस्त प्रतिक्रिया देखने को मिली.

जो शक शुबहा बचा था, उसे बिहार कांग्रेस प्रभारी भक्त चरण दास ने बिहार पहुंच कर साफ कर दिया. उपचुनाव में दोनों दलों के उतरने पर भक्त चरण दास ने बोल दिया कि महागठबंधन में कांग्रेस तो है ही नहीं.

लालू यादव ने दोनों सीटों पर चुनाव लड़ने के आरजेडी के फैसले को तो सही ठहराया ही, भक्त चरण दास को लेकर ऐसी बात कह डाली कि अलग ही बवाल मच गया. कांग्रेस नेता मीरा कुमार ने तो दलितों के अपमान का मुद्दा बता कर लालू यादव के खिलाफ कानूनी एक्शन की पैरवी करने लगी थीं.

दिल्ली से पटना पहुंचे लालू यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर कहा, 'क्या होता है कांग्रेस से गठबंधन.. हारने के लिए कांग्रेस को देते टिकट... जमानत जब्त कराने के लिए देते टिकट?' 

लालू यादव की यही वो भविष्यवाणी रही जो कांग्रेस के मामले में सही भी साबित हुई. लड़ाई से कोसों दूर, चौथे स्थान पर पहुंचे कांग्रेस उम्मीदवारों ने तारापुर और कुशेश्वर स्थान दोनों ही सीटों पर जमानत ही जब्त करा ली.

छत्तीसगढ़ से आने वाले कांग्रेस के दलित नेता भक्त चरण दास को लेकर लालू यादव की जिस बात पर बवाल हुआ वो था - 'भकचोन्हर!'

ये वही शब्द है जो लालू यादव अपने राजनीतिक जीवन में बात बात पर बोलते रहते हैं - और इसका अर्थ भी वही है जो लालू यादव की मिमिक्री करने वाले भी कभी नहीं भूलते - 'बुड़बक... धत्त बुड़बक.'

अब जरा उपचुनाव के नतीजे भी समझ लेते हैं. कुशेश्वर स्थान पर कांग्रेस उम्मीदवार अतिरेक कुमार को कुल 5,602 वोट मिले. तारापुर में कांग्रेस उम्मीदवार राजीव मिश्रा को 3,570 वोट मिले है.

कुशेश्वर स्थान में जेडीयू उम्मीदवार अमन भूषण हजारी ने आरजेडी के गणेश भारती को 12,695 वोटों से हराया है, लेकिन आरजेडी और कांग्रेस उम्मीदवारों के वोटों को जोड़ भी दें तो भी ये फासला 7,092 रहता है - मतलब, कांग्रेस के आरजेडी के साथ चुनाव लड़ने पर भी जीत पक्की नहीं थी.

तारापुर में जेडीयू ने 78,966 वोट हासिल कर आरजेडी को 3821 वोटों से हराया है. आरजेडी को तारापुर सीट पर 75,145 वोट ही मिल पाये. देखा जाये तो तारापुर में आरजेडी उम्मीदवार ने 2020 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले वोट शेयर में सुधार किया है - उपचुनाव में आरजेडी उम्मीदवार को कुल 44.35 फीसदी वोट मिले हैं, जबकि 2020 के विधानसभा चुनाव में 32.80 फीसदी ही वोट मिले थे.

अगर आरजेडी और कांग्रेस के वोट जोड़ भी देते हैं तो कुल 78,715 वोट ही होते जो जेडीयू के मुकाबले 251 वोट कम पड़ते - तब भी जीत जेडीयू की ही होती. फिर तो कह सकते हैं कि आरजेडी के अकेले चुनाव लड़ने से कोई खास नुकसान नहीं हुआ है, लेकिन लेकिन ने अकले चुनाव लड़ कर खुद को सबके सामने एक्सपोज कर दिया है.

लालू यादव आरजेडी के ब्रह्मास्त्र हैं और जब ब्रह्मास्त्र चूक जाये तो कोई हथियार बचता ही कहां है जिस पर भरोसा किया जा सके - 2015 विधानसभा चुनाव के लिए जब वोटों की गिनती के दिन शुरुआती रुझान में महागठबंधन पिछड़ने लगा तो लालू यादव को जरा भी घबराहट नहीं हुई, तब भी उसी अंदाज में बोले जैसे चुनावों के दौरान कहा करते थे, बीजेपी को भालू से फुंकवा कर भिजवा देंगे - और वो सही साबित हुए. लगता है पहली बार लालू यादव खुद का ठीक से आकलन नहीं कर पाये.

जोर का झटका तो कन्हैया कुमार को भी लगा है, लेकिन अभी उनके सामने लंबी पारी बाकी है. हां, अब ये एहसास जरूर हो रहा होगा कि महज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अटैक करके बहुत कुछ हासिल नहीं होने वाला - और राहुल गांधी उनके सामने सबसे बड़ी मिसाल हैं. कन्हैया कुमार तो भाषण भी अच्छा देते हैं, लेकिन भाषण की भी गंभीरता तभी समझ में आती है जब लोग वक्ता के नेतृत्व में भी यकीन करें, न कि कॉमेडी शो समझ कर ठहाका लगाते हुए घर लौटें और बूथ पर पहुंच कर ईवीएम का बटन दूसरे के लिए दबा दें!

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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