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Updated: 28 सितम्बर, 2015 01:02 PM
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"भारतीय लोकतंत्र के कुछ बिन लिखे रीति व परम्परा रहे हैं. इन रीतियों का भारतीय लोकतंत्र को स्वस्थ रखने में अपना ही महत्व रहा है. इनमें से सबसे ऊपर यह रीत रही है कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा अध्यक्ष दलीय राजनीति से ऊपर रहते हैं. विशेषकर प्रधानमंत्री पूरे राष्ट्र का प्रधानमंत्री होता है, इसमें विपक्ष को समर्थन करने वाले भी शामिल है.

ऐसा नहीं है कि पहले प्रधानमंत्री विधानसभा चुनावों में हिस्सा नहीं लेते थे पर अभी के प्रधानमंत्री और पहले के प्रधानमंत्री की भाषा में जमीन आसमान का अंतर है. जहां पहले के प्रधानमंत्री सिद्धांतों और नीतियों की आलोचना करते थे, आज के प्रधानमंत्री व्यक्तिगत होकर निम्न स्तर की भाषा का प्रयोग कर अपने पद की गरिमा को तार-तार करते है. असंसदीय भाषा में ऐसे आरोप लगाते हैं जैसे किसी से निजी बैर निकाल रहे हों.

एक प्रधानमंत्री का अपनी भाषा और आचार-विचार को इस सीमा तक गिरा लेना कितना सही है? प्रधानमंत्री का किसी राज्य के लोकतान्त्रिक ढंग से चुने गए मुख्यमंत्री के डीएनए को खराब बताना क्या बड़ी चालाकी से उनके पूर्वजों और राज्यवासियों को दी गई गाली नहीं है?

प्रधानमंत्री हमेशा चुनावी मोड में रहते हैं. प्रधानमंत्री बनने के बाद देश के अतिमहत्वपूर्ण कार्य छोड़ कर चुनावी राज्यों में रहने लग जाते है, उससे फ्री होते है तो विदेश दौड़ जाते है. इनके इलेक्शन मोड और फ्लाइट मोड में रहने के कारण विकास कार्यों की अनदेखी हो रही है. पूरे ताम झाम से शुरू की गई योजनाएं आज जस की तस पड़ी हैं. कोई भी योजना अपने अंजाम तक पहुंचते हुए तो दूर की बात, अपने दूसरे पड़ाव तक भी पहुंचते नहीं दिख रही है.

प्रधानमंत्री के साथ साथ उनके डेढ़ दर्जन मंत्री विगत तीन महीने से अपने मंत्रालयों के महत्वपूर्ण काम छोड़ बिहार में डेरा डाले हुए है.पर इससे बेपरवाह प्रधानमंत्री अपने आप को हर राज्य का सुपर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करने में लगे हैं और यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र के सत्तारूढ़ दल में ही किसी प्रकार का कोई लोकतंत्र नहीं है.

यहां सिर्फ हिटलरशाही शाही है हिटलरशाही!"

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