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Updated: 22 अगस्त, 2021 04:14 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कल्याण सिंह (Kalyan Singh) और योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को जोड़ती एक ही चीज है, लेकिन दोनों का अपना अपना 'अयोध्या कांड' है - अगर कल्याण सिंह के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते अयोध्या आंदोलन (Ayodhya Movement) की जमीन का रास्ता मिला तो योगी आदित्यनाथ को राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन का सौभाग्य. आगे भी सफर जारी रह सके, इसके लिए हरी झंडी दिखाने का जिम्मा अब अवाम के हाथों में है - नींव तो पड़ गयी, इमारत भी योगी आदित्यनाथ ही बनवा पाते हैं या फिर संघ और बीजेपी नेतृत्व ने कोई और कर-कमल सोच रखा हो, तो बात अलग है.

अगर वास्तव में अयोध्या आंदोलन ने ही बीजेपी को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाया है, तो कल्याण सिंह ने ऐसी भूमिका निभायी है जिसका कोई सानी नहीं हो सकता, हालांकि, ये समझना काफी मुश्किल होता है कि कल्याण सिंह भी 1992 के अयोध्या आंदोलन की रणनीति तैयार करने वालों में हिस्सेदार भी थे या मुख्यमंत्री होने के नाते, निमित्त मात्र - लेकिन कल्याण सिंह को बीजेपी ही नहीं बल्कि देश के एक ऐसे नेता के तौर पर याद किया जाएगा जिसने आगे बढ़ कर जिम्मेदारी लेने का साहस दिखाया.

कल्याण सिंह दो बार यूपी के मुख्यमंत्री बने, जिसमें दूसरा कार्यकाल खासा विवादित भी रहा और उसमें कई निजी चीजें भी शामिल हो गयी थीं. फिर भी एक इमानदार और कुशल प्रशासक के तौर पर जैसे कल्याण सिंह को जाना जाता है, योगी आदित्यनाथ को अभी बहुत कुछ साबित करके दिखाना है.

अयोध्या ही नहीं, जिस एसटीएफ के भरोसे योगी आदित्यनाथ एनकाउंटर पॉलिटिक्स करते हैं या हंसते हंसते विकास दुबे जैसे एक्सीडेंट आगे भी होते रहने के संकेत देते हैं, वो नींव रखने वाले भी कल्याण सिंह ही हैं. माफिया राज के खात्मे के लिए कल्याण सिंह ने ही यूपी में आईपीएस अफसर अजय राज शर्मा के नेतृत्व में स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया था - और साइबर क्राइम में मोबाइल ट्रैकिंग का इस्तेमाल कर श्रीप्रकाश शुक्ला जैसे दुस्साहसी गैंगस्टर को भी ठिकाने लगाया था.

मुख्यमंत्री बनने के साल भर के भीतर ही कल्याण सिंह ने यूपी बोर्ड के इम्तिहान में नकल करने और नकल कराने को अपराध घोषित करने के लिए अध्यादेश लाया था - लेकिन शपथ लेने के 18 महीने बाद ही मुख्यमंत्री पद से कल्याण सिंह के इस्तीफा दे देने बाद जब मुलायम सिंह ने सत्ता संभाली तो नकल अध्यादेश वापस ले लिया. बाद के दिनों में पढ़ाई लिखाई की चर्चाओं में लोग मजे लेकर पूछ भी लेते थे कि कल्याण युग में बोर्ड की परीक्षा पास की या मुलायम काल में?

कल्याण सिंह और मुलायम सिंह यादव की राजनीति में अयोध्या को लेकर स्टैंड भी अलग अलग छोर पर नजर आता है. कल्याण सिंह ने जहां कारसेवकों पर गोली न चलाने के आदेश देने की बात पर अड़े रहे, मुलायम सिंह यादव चुनावों के दौरान ये जरूर दोहराते हैं कि कारसेवकों पर गोली चलवाने वाले एकमात्र नेता वही हैं - जल्द ही ये बातें फिर से सुनने को मिल सकती हैं क्योंकि 2022 के चुनाव की तारीख काफी करीब आ चुकी है.

जिम्मेदारी की नजीर कैसी होती है?

योगी आदित्यनाथ पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद चुनाव मैदान में उतरने जा रहे हैं, लेकिन उनकी प्रशासनिक क्षमता पर जब तब सवाल उठते ही रहते हैं, लेकिन कल्याण सिंह की प्रशासनिक क्षमता की मिसाल दी जाती है - और जिम्मेदारी लेने के मामले में तो कल्याण सिंह बेमिसाल हैं.

6 दिसंबर 1992 को जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद कारसेवकों ने गिरा दी गयी तो हर कोई हक्का बक्का रह गया था, सिवा कुछ लोगों के जिनके पास पल पल की खबर पहुंचती रही.

तब भी बीजेपी नेताओं ने सार्वजनिक तौर पर यही कहा कि बाबरी मस्जिद के ढांचे को राम भक्तों की भीड़ ने जमींदोज कर दिया और उसे लेकर पहले से कोई वैसी तैयारी पहले से नहीं की गयी थी. हां, अगर किसी ने डंके की चोट पर ढांचा ढहाये जाने को लेकर साफ साफ बयान दिया तो वो रहे शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे - 'अगर ढांचा ढहाने में शिवसैनिकों का कोई हाथ है तो मुझे इस पर गर्व है.' निश्चित तौर पर ये एक राजनीतिक बयान था जो किसी भी कानूनी खांचे में मिसफिट है, लेकिन मैसेज तो पूरी तरह साफ है.

kalyan singh, yogi adityanathकल्याण सिंह और योगी आदित्यनाथ में कुछ बातें कॉमन हैं - और एक है नेतृत्व से सीधा टकराव

बीजेपी में अगर किसी ने अयोध्या में ढांचा ढहाये जाने के केस में जिम्मेदारी की नजीर पेश की, तो वो सिर्फ कल्याण सिंह ही रहे हैं - वैसे शाम होते होते कल्याण सिंह की सरकार को केंद्र की पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने बर्खास्त कर दिया था, लेकिन बीजेपी की तरफ से यही कहा जाता है कि कल्याण सिंह ने तत्काल ही इस्तीफा दे दिया था, खास बात ये रही कि अयोध्या में हुई हर घटना की जिम्मेदारी लेते हुए.

कल्याण सिंह ने आगे बढ़ कर बाबरी मस्जिद गिराये जाने की जिम्मेदारी ली. बोले, अफसरों ने वही किया जो आदेश मैंने दिये थे. पुलिस ने वही किया जो आदेश जारी हुआ था - और उसके एवज में एक दिन की जेल की सजा तक भुगत लिये - क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे रखा था कि बाबरी मस्जिद को किसी भी कीमत पर सुरक्षित रखा जाएगा.

कल्याण सिंह और योगी आदित्यनाथ में यहीं पर बड़ा फर्क नजर आता है. योगी आदित्यनाथ लंबे समय तक सांसद रहे हैं और अब तो मुख्यमंत्री की पारी भी पूरी करने जा रहे हैं - देखा जाये तो कल्याण सिंह के दो कार्यकाल से कुछ ज्यादा ही, लेकिन वै मैच्योरिटी कभी नजर नहीं आई.

गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की मौत से लेकर हाथरस गैंगरेप तक योगी आदित्यनाथ का स्टैंड एक जैसा ही नजर आता है - मुद्दा कोई भी हो जोरदार ढंग से खारिज कर दो. जो निशाने पर आये उसके खिलाफ एनएसए लागू कर दो, बाद में चल कर हाई कोर्ट में फजीहत हो तो हो. हाथरस गैंग रेप के मामले में हाल ही में एक कार्यक्रम में जब सवाल पूछा गया तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वही बातें दोहरा दी, जो यूपी पुलिस के आला अफसर दावे करते रहे. यूपी पुलिस हाथरस में रेप जैसा अपराध होने से ही इंकार करती रही, लेकिन सीबीआई ने उन्हीं आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट फाइल की है, जिनकी गिरफ्तारी यूपी पुलिस ने की थी.

मामला चाहे कोई भी हो, योगी आदित्यनाथ सभी में एनकाउंटर स्टाइल में ही पेश आते हैं. चाहे वो अपराधियों की बात हो, अस्पताल में बच्चों की मौत के मामले में या कोरोना काल में ऑक्सीजन की कमी का मामला हो - एक ही तरीके से खारिज करते हैं और अगला आदेश भी ठोक दो स्टाइल में ही रहता है. बस फर्क ये होता है कि ये सब वो मुस्कुराते हुए कह देते हैं - और हर बार आडिएंस में बैठे लोग ताली बजाने से खुद को रोक नहीं पाते.

नेतृत्व की परवाह नहीं, टकराने में मजा जो आता है

लोकप्रियता की बात करें तो कल्याण सिंह भी अपने जमाने के बीजेपी के पोस्टर ब्वॉय ही रहे, जैसे योगी आदित्यनाथ मौजूदा दौर में पॉप्युलर हैं. कल्याण सिंह की लोकप्रियता में राजनीतिक पक्ष हावी रहा, जबकि योगी आदित्यनाथ के मामले में धार्मिक पक्ष ज्यादा प्रबल नजर आता है.

बीजेपी नेतृत्व से दोनों नेताओं के टकराव की तुलना करें तो जिस दौर से योगी आदित्यनाथ गुजर रहे हैं, कल्याण सिंह के पास भी वैसा ही अनुभव रहा. बल्कि, देखें तो कल्याण सिंह ने अपने जमाने के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से टकराने की भारी कीमत भी चुकायी, योगी आदित्यनाथ के मामले में देखें तो मौके का पूरा फायदा उठाते हुए वो खूब मनमानी कर रहे हैं - और चुनावी राजनीति की मजबूरी ऐसी है कि मौजूदा नेतृत्व सिर्फ टाइमपास कर रहा है क्योंकि उसे लोहे के गर्म होने जैसे सही वक्त का इंतजार है. आगे चल कर वैसी नौबत आने पर योगी आदित्यनाथ कैसे डील करते हैं ये देखना भी दिलचस्प होगा.

कल्याण सिंह को तो तत्कालीन नेतृत्व से टकराव हो जाने के बाद बीजेपी तक छोड़नी पड़ी. राष्ट्रीय क्रांति दल नाम की अपनी पार्टी भी बनाये. मुलायम सिंह की पार्टी के साथ गठबंधन भी किया, लेकिन हर हकीकत से जूझना पड़ा.

नेता भी बड़ा होता है, लेकिन संगठन जितना नहीं. लालकृष्ण आडवाणी से पहले कल्याण सिंह ने शिद्दत से ये स्वाद चखा था. लालकृष्ण आडवाणी तो उम्र के ऐसे पड़ाव पर हैं कि मार्गदर्शक मंडल के अलावा कोई चारा भी नहीं बचा, लेकिन कल्याण सिंह को पांच साल में ही बीजेपी से बाहर की दुनिया समझ में आ गयी और 2004 में घर वापसी का फैसला किया - हालांकि, कुछ पाने के लिए दस साल और इंतजार करना पड़ा जब केंद्र की सत्ता में आने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल्याण सिंह को राज भवन भेजा.

कल्याण सिंह जैसा ही मामला उमा भारती का भी रहा है, लेकिन वाजपेयी नहीं बल्कि आडवाणी से टकरायी थीं - ऐसे देखें तो योगी आदित्यनाथ का एक साथ मोदी और उनके बाद बीजेपी में आडवाणी की जगह लेने वाले अमित शाह से चल रहा है. ताजा टकराव के कारण तो कई हैं, लेकिन लेटेस्ट बीजेपी उपाध्यक्ष अरविंद शर्मा का मामला है. प्रधानमंत्री मोदी के लंबे समय तक भरोसेमंद अफसर रहे अरविंद शर्मा को एक खास रणनीति के तहत यूपी में बीजेपी ने विधान परिषद भेजा, लेकिन ये बात योगी आदित्यनाथ को कभी रास नहीं आयी - और मंत्रिमंडल में शामिल किये जाने की चर्चाओं के बीच अरविंद शर्मा को संगठन में शिफ्ट करने का फैसला हुआ.

कल्याण सिंह ने शानदार जिंदगी जी ली और फिर विदा लिये, योगी आदित्यनाथ के सामने अभी लंबी उम्र पड़ी है. कल्याण सिंह ने अपना बड़ा सपना तो पूरा कर लिया, लेकिन एक छोटी सी ख्वाहिश अधूरी रही. कल्याण सिंह ने अपनी आंखों के सामने राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन देख लिया, लेकिन मंदिर बनने पर राम लला का दर्शन करने से चूक गये - आगे की विरासत योगी आदित्यनाथ कहां तक ढो पाते हैं ये उनकी ही किस्मत और काबिलियत पर निर्भर करता है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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