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Updated: 14 अप्रिल, 2015 01:08 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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अब तक ऐसा सिर्फ भारत में ही होता रहा. दुनिया के किसी भी मुल्क में ऐसा नहीं होता कि किसी जज की नियुक्ति कोई जज करता हो. करीब बीस साल तक चला ये सिलसिला अब यहां भी खत्म हो गया. सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कॉलेजियम सिस्टम की जगह अब राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के जरिए होगी.

नियुक्ति आयोग का स्वरूप
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का अध्यक्ष भारत का मुख्य न्यायाधीश होगा. हाई कोर्ट के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, विधि और न्याय मंत्री और दो प्रबुद्ध व्यक्ति (जिन्हें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश, लोक सभा में विपक्ष के नेता या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की समिति मनोनीत करेगी) इसके सदस्य होंगे. इस तरह नियुक्ति आयोग में कुल 6 सदस्य होंगे. आयोग में प्रबुद्ध व्यक्तियों की नियुक्ति केवल 3 साल के लिए की जाएगी जबकि बाकी सदस्य पदेन यानी अपने-अपने कार्यकाल तक आयोग के सदस्य बने रहेंगे. दो प्रबुद्ध व्यक्तियों में से एक पद एससी, एसटी, ओबीसी, माइनॉरिटी या महिला वर्ग के लिए आरक्षित होगा. प्रबुद्ध व्यक्तियों को सिर्फ एक बार ही मनोनीत किया जा सकेगा.

31 दिसंबर को कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर उसकी जगह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन संबंधी संविधान संशोधन बिल को राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी थी - और अब 13 अप्रैल को नोटिफिकेशन जारी किया गया.

क्या था कॉलेजियम सिस्टम
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण का निर्धारण करने वाला वो फोरम, जो न्यायपालिका के तीन फैसलों का नतीजा रहा. इन्हें 'थ्री जजेज केसेज' के नाम से जाना जाता रहा.

‘फर्स्ट जजेज केस’ साल 1981 का है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि ठोस तर्क या कारण के आधार पर राष्ट्रपति, चीफ जस्टिस की सिफारिश दरकिनार कर सकते हैं. इस फैसले ने न्यायापालिका में नियुक्तियों को लेकर कार्यपालिका को शक्तिशाली बना दिया. ये स्थिति 12 साल तक बरकरार रही.

उसके बाद 1993 के 'सेकंड जजेज केस' में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की संविधान पीठ ने बहुमत से यह व्यवस्था दी कि भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के प्रावधान का अर्थ उनकी मंजूरी लेना है. साथ ही फैसले में ये भी कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तथा दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के एक कॉलेजियम द्वारा ये नियुक्तियां की जाएंगी.

मगर 1998 में 'थर्ड जजेज केस' में इसमें एक बदलाव किया गया कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की नियुक्ति में कॉलेजियम में मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार वरिष्ठतम जज सदस्य होंगे, जबकि उच्च न्यायालय के जज की नियुक्ति में पहले की तरह दो ही वरिष्ठतम जज होंगे.

कॉलेजियम की सिफारिश प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भेजी जाती रही. इसी तरह हाई कोर्ट के लिए संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कॉलेजियम से सलाह मशविरे के बाद वो प्रस्ताव राज्य सरकार को भेजते रहे. फिर ये प्रस्ताव देश के मुख्य न्यायाधीश से होता हुआ प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पास पहुंचता - और आखिर में राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद सम्बंधित नियुक्ति की जाती रही.

दूसरे देशों में नियुक्ति के तरीके
मिसाल के तौर पर देखें तो ब्रिटेन में न्यायिक नियुक्ति आयोग है. जजों के चयन की प्रक्रिया पूरी तरह इस आयोग के हाथ में है जो लॉर्ड चांसलर को नामों की सिफारिश भेजता है. ऑस्ट्रेलिया में नियुक्तियों की सिफारिश महाधिवक्ता करता है जिसकी सलाहकार समिति नामों की जांच करती है. उसके बाद महाधिवक्ता गवर्नर जनरल को सिफारिश भेजते हैं. जहां तक अमेरिका की बात है तो वहां न्यायाधीश को नियुक्त तो राष्ट्रपति ही करता है, पर उसे पूरी जनता और प्रेस के बीच सीनेट की न्याय पालिका समिति की कड़ी स्क्रीनिंग से गुजरना पड़ता है. इस दौरान ये जानने की कोशिश होती है कि उम्मीदवार को देश की समस्याओं और तमाम मसलों पर रुख क्या है, उसका बैकग्राउंड क्या है? उम्मीदवार को ऐसे अनेक सवालों के जवाब देने पड़ते हैं. तब कहीं जाकर नियुक्ति होती है.

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने के बाद न्यायालय की संविधान पीठ 15 अप्रैल से इस पर सुनवाई करने जा रही है.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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