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Updated: 07 जुलाई, 2015 05:03 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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रिवर्स बटन प्रेस करना होगा. तब लोक सभा चुनाव में काफी वक्त बाकी था. नीतीश कुमार एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का मुद्दा उछाल चुके थे. तब नरेंद्र मोदी के नाम पर एनडीए में सहमति बनने की संभावना कम जताई जा रही थी. आगे चल कर जेडीयू के एनडीए छोड़ने का यही कारण भी बना.

लोक सभा चुनाव से पहले

नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान. प्रधानमंत्री पद की रेस में दोनों ही बराबरी पर नजर आने लगे थे. दोनों ही अपने अपने राज्यों में तीसरी बार मुख्यमंत्री बन चुके थे. ये बात न तो लालकृष्ण आडवाणी को सुहा रही थी, न सुषमा स्वराज को. न उन्हें, जो खुल कर सामने नहीं आ रहे थे. राजनाथ सिंह और अरुण जेटली तक को भी उसी फेहरिस्त का हिस्सा माना जाता रहा. लेकिन खुले तौर पर नहीं.

साल 2013 में दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मीटिंग चल रही थी. उस मीटिंग में आडवाणी ने शिवराज को हर मामले में मोदी से बीस बताया. आडवाणी ने यहां तक कहा कि गुजरात तो पहले से ही विकसित रहा, मध्य प्रदेश को तो चौहान ने समृद्ध बनाया.

लोक सभा चुनाव बाद

लोक सभा चुनाव से पहले कई साल तक बीजेपी में आंतरिक लोक तंत्र के नाम पर जो कुछ भी होता रहा उसकी हकीकत कुछ और ही थी. दबी जबान में सभी नेता इसे पार्टी के एक खेमे द्वारा विरोधियों को निपटाने की रणनीतिक कवायद मानते रहे. उसी अंतराल में बीजेपी नेता संजय जोशी के पर कतरने के साथ साथ उन पर तमाम पाबंदियां भी लगाई गईं. उस वक्त नरेंद्र मोदी बीजेपी की कार्यकारिणी में तब तक नहीं पहुंचे जब तक कि जोशी को औपचारिक तौर पर बाहर नहीं कर दिया गया. तब आडवाणी अपना भाषण दिये बगैर ही लौट आए. उनके पीछे पीछे सुषमा स्वराज भी चलती बनीं.

फिर गोवा अधिवेशन में नरेंद्र मोदी को बीजेपी की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया गया. शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव तक ऐसा न करने की गुजारिश की थी. इसके विरोध में आडवाणी उस पार्टी इवेंट से ही दूर रहे. थक हार कर सुषमा और शिवराज को मोदी के नाम पर हामी भरनी पड़ी. लोक सभा चुनाव से पहले वसुंधरा राजे और शिवराज दोनों मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके थे.

लोक सभा चुनाव में भारी बहुमत लेकर मोदी सरकार सत्ता में आई. सुषमा मंत्रिमंडल का हिस्सा बनीं, जबकि आडवाणी को मार्गदर्शक मंडल भेज दिया गया.

मोदी सरकार के एक साल बाद

मोदी सरकार का एक साल भी गुजर गया. घोटालों के बगैर एक साल बता कर सेलीब्रेट भी किया गया. जश्न की तासीर कम होते ही विवादों की झड़ी लग गई. सबसे पहले सुषमा का नाम विवादों में उछला. फिर वसुंधरा राजे और अब व्यापम में हो रही मौतों के चलते शिवराज निशाने पर आ गए. सुषमा का हंसते-मुस्कराते और नपे तुले बयानों के साथ केंद्रीय मंत्रियों की एक टोली ने मीडिया के सामने आकर भरपूर बचाव किया. वसुंधरा को खुद ही अपना बचाव करना पड़ा और शिवराज अभी अकेले ही जूझ रहे हैं.

वसुंधरा अपने विधायकों के बूते डटी रहीं जो टिकट मिलने के दिन से ही उनके समर्थन में खड़े रहे हैं. शिवराज भी अपने साथियों, अफसरों और मंत्रियों के बूते खड़े हैं. शायद ये व्यापम की ही मजबूत डोर है जो उन्हें एक सूत्र में बांधे हुए है.

तीन मंत्री, तीन बातें

वैसे विवादों में तो स्मृति ईरानी और पंकजा मुंडे का भी नाम रहा. पंकजा को तो उनके मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने क्लीन चिट भी दे डाली है. जहां तक व्यापम घोटाले की बात है तो केंद्र सरकार के तीन मंत्रियों बिलकुल अलग अलग बयान दिए. उमा भारती ने तो कह डाला कि उन्हें तो खुद भी डर लगने लगा है. सबसे पहले केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि पत्रकार की मौत को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं, इसलिए निष्पक्ष जांच होनी चाहिए ताकि किसी तरह का संदेह बाकी न रहे. यानी जेटली का मतलब मौजूदा जांच से अलग रहा.

लेकिन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने एक बयान देकर इसे खारिज कर दिया. राजनाथ ने कहा, ‘‘व्यापम मामले की जांच उच्च न्यायालय की निगरानी में एसआईटी कर रही है और उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय को मामले की जांच सीबीआई को सौंपने का निर्देश सरकार नहीं दे सकती.’’

इस मामले में सबसे गंभीर बयान उमा भारती की ओर से आया. 'इंडिया टुडे टीवी' से बातचीत में उमा ने कहा, "जो लोग मुझसे जुड़े हैं, मुझे डर लगने लगा है कि उन्हें कुछ हो न जाए. मैं मंत्री हूं, फिर भी डरी हुई हूं."

सुषमा, वसुंधरा और शिवराज - ये तीनों कभी भी मोदी के हिमायती नहीं माने गए. फिलहाल ये तीनों विपक्ष के निशाने पर हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब तक इन मामलों में कुछ भी नहीं बोला है. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भी एक सवाल के जवाब में गोल-मोल-बोल के साथ निकल लिए.

जब सुषमा का मामला उछला तो बीजेपी के कुछ नेताओं ने इसके पीछे पार्टी के ही नेताओं का हाथ बताया और उन्हें 'आस्तीन का सांप' तक करार दिया. ये सब क्या किसी खास प्रोग्रामिंग के तहत हो रहा है? लगता है जैसे सब कुछ ऑटो-मोड में चल रहा हो.

एक बार इंडिया टुडे कॉनक्लेव में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा 'कांटे से कांटा' निकालने का जुमला सुनाया था. हालांकि, पर्रिकर का जुमला आतंकवादियों को लेकर था. अघोषित तौर पर ही सही, बीजेपी के भीतर लगता है वैसा ही फॉर्मूला अपने आप ट्रेंड करने लगा है. ऐसा लगता है लड़ाई बीजेपी बनाम बीजेपी ही चल रही है.

एक लॉबी दूसरी लॉबी को ठिकाने लगाने में जुटी है. शायद यही सत्ता की असली सियासत है और फितरत भी.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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