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Updated: 03 दिसम्बर, 2015 08:11 PM
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राम कोठारी और शरद कोठारी - दो अनजान नाम. लेकिन अचानक से चर्चा में आते हैं. चर्चा भी ऐसी जिससे आने वाली राजनीति की दशा और दिशा तय होगी. इन्हें चर्चा में लाया जाता है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के द्वारा. पूरे प्रकरण के लिए आपको 1990 का समय याद करना होगा, जब अयोध्या में कार सेवा के दौरान पुलिस फायरिंग में दो भाइयों राम कोठारी और शरद कोठारी की मृत्यु हो गई थी. 25 साल के बाद कोलकाता में इन्हीं दो भाइयों को श्रद्धांजलि देते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत ने राम मंदिर के निर्माण के मुद्दे को एक बार फिर जिंदा कर दिया है.

राम मंदिर को अपने जीवन काल में बनते देखने की बात कर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सीधा-सीधा निशाना केंद्र सरकार पर लगाया है. हालांकि ऐसे संवेदनशील मुद्दों के इफेक्ट एकरेखीय नहीं होते जिससे कि सिर्फ बीजेपी प्रभावित हो. और ऐसा ही हुआ भी. हिंदुत्व की राजनीति करने वाली शिवसेना भी इसमें कूद पड़ी. शिवसेना के संजय राउत ने स्पष्ट तौर पर कहा कि राम मंदिर का सिर्फ और सिर्फ राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए - इसे बनते देखना हमारा भी सपना है, लेकिन यह सपना एक तय समय पर सच होना चाहिए. उत्तर प्रदेश या किसी अन्य राज्य के चुनाव को देखते हुए राम मंदिर पर सिर्फ बयानबाजी करने से जनता हमें माफ नहीं करेगी.

सहिष्णुता-असहिष्णुता के माहौल में राम मंदिर निर्माण आग में घी का काम करेगी. अभी सिर्फ शिवसेना ही इस मामले में कूदी है... बाकी पार्टियों को आने में ज्यादा देर नहीं लगेगी. वो इसलिए भी क्योंकि संघ प्रमुख मोहन भागवत बोलते-बोलते यह भी कह गए कि स्वयं सेवकों को जीवनदान के लिए तैयार रहना होगा. मंदिर के लिए जीवनदान!!! ताकि फिर कोई कोठारी बंधु पुलिस की गोलियों का शिकार हो जाए और उसके परिवार की विकास की गाड़ी रुक जाए - कहीं से भी तार्किक नहीं है. लेकिन मामला धर्म का है - इसमें तर्क नहीं भावना बहती है - राजनीति पार्टियों में इस भावना को भुनाने का हुनर बखूबी होता है.

दिलचस्प यह है कि 2014 में केंद्र में मोदी सरकार और 2015 में बिहार में नीतीश सरकार को मतदाताओं ने विकास के नाम पर चुना. राम-रहिम और मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दे गौण रहे. जिस किसी ने इन्हें उछालने की कोशिश भी की, वो मुंह की खाए. ऐसे में बंगाल की धरती पर राम मंदिर का मुद्दा उछालना एक नई राजनीति की शुरुआत के तौर पर देखा जा सकता है. यह और बात है कि जनता इसे किस रूप में देखती है - इसका फैसला असम चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश चुनाव से ही स्पष्ट हो पाएगा. स्पष्ट यह भी है कि 2016 और 2017 के शुरुआती महीने भारतीय राजनीति के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हो सकते हैं.

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