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Updated: 04 मार्च, 2017 03:29 PM
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यूपी में आखिरी चरणों के मतदान से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से 'बोनस' वोट की डिमांड की है. उनका दावा रहा कि बीते पांच चरणों में तो बीजेपी को बहुमत मिल ही चुका है - अब तो बस बोनस की ही जरूरत होगी.

कुछ कुछ वैसे ही जैसे अखिलेश यादव खुद के बूते बहुमत और कांग्रेस के साथ होने पर 300 सीटों की बात करते रहे हैं. यूपी चुनाव में दलित-मुस्लिम गठजोड़ के साथ एक्सपेरिमेंट कर रहीं मायावती की भी करीब करीब ऐसी ही दावेदारी है.

वैसे तो जनता के मन की बात समझना आखिर तक मुश्किल होता है, लेकिन पश्चिम यूपी के मुकाबले पूर्वी उत्तर प्रदेश में पेंच काफी फंसा हुआ लगता है - और यही बात त्रिशंकु विधानसभा की ओर इशारा कर रही है.

मोदी बनाम अखिलेश और मायावती

ये तो साफ नजर आता है कि प्रधानमंत्री मोदी के लिए बनारस आन, बान और शान बन चुका है, आजमगढ़ को लेकर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की भी मानसिक स्थिति तकरीबन वैसी होगी, माना जा सकता है. जहां तक मायावती की बात है तो उनके लिए तो यूपी में सारा-जहां बराबर ही है, लेकिन पूर्वांचल के सियासी समीकरणों ने उनकी उम्मीदें कुछ ज्यादा ही उलझा रखी हैं.

2014 में मुलायम सिंह ने मुस्लिमों की बड़ी तादाद के साथ साथ यादवों की खासी आबादी को ध्यान में रख लोक सभा चुनाव लड़ने का फैसला किया. जब दो जगहों से जीत गये तो आजमगढ़ को ही तरजीह दी. ऐसे में आजमगढ़ के लोगों का मुलायम से उम्मीद करने का हक तो बनता ही है, लेकिन समाजवादी पार्टी में इतनी उठापटक मची कि लखनऊ छोड़ कर ज्यादा से ज्यादा वो इटावा ही पहुंच सके. कहां आजमगढ़ से ही उनके चुनावी मुहिम शुरू किये जाने की बात रही और कहां उन्होंने उधर रुख तक करना मुनासिब न समझा.

azamgarh-voting_650_030417032141.jpgमतदाताओं के मन की बात जाने कौन?

जिस तरह मोदी ने बनारस में डेरा डाल कर टिकट बंटवारे से हुए डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश की - अखिलेश यादव भी बलिया और आसपास के जिलों में जूझते रहे हैं.

मुलायम की गैरमौजूदगी को अखिलेश यादव ने किस कदर गंभीरता से लिया, उनकी लगातार रैलियों और चुनावी सभाओं से अंदाजा लगाया जा सकता है. खुद अखिलेश ही नहीं उनकी सांसद पत्नी डिंपल यादव ने भी तीन तीन बार आजमगढ़ का दौरा किया.

मोदी और अखिलेश के सामने एक कॉमन और बड़ी चुनौती ये रही कि दोनों को पूर्वांचल में बागियों से दो चार होना पड़ रहा है. इस हिसाब से देखें तो मायावती के सामने उस तरीके की कोई मुश्किल नहीं है. जिस किसी ने भी बीएसपी में बागी रुख अख्तियार किया उसे उन्होंने बाहर निकाल दिया या फिर वे खुद ही अपने लिए नया रास्ता चुन लिये.

अखिलेश यादव जब भी एक्सप्रेस वे की बात करते, कहते - फिर तो बलिया गाजीपुर तक पहुंचना बहुत आसान हो जाएगा. आजमगढ़ के साथ साथ बलिया में अखिलेश को बहुत मेहनत करनी पड़ी. हालांकि, दोनों जगहों में कारण अलग अलग रहे. बलिया में जब समाजवादी पार्टी से टिकट नहीं मिला तो उनके दो-दो नेता बागी ही नहीं हुए - दोनों बीएसपी से टिकट लेकर मैदान में दो-दो हाथ करने उतर आये.

फेफना से अंबिका चौधरी और बलिया सदर से नारद राय. अंबिका चौधरी की समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह के बाद वाली कैटेगरी में जगह थी लेकिन गुटबाजी के दौर में मुलायम के भरोसेमंद शिवपाल के साथ बने रहने के चलते उनकी उपेक्षा हुई और वो चलते बने. मायावती ने दोनों ही नेताओं को हाथों हाथ लिया और पुराने उम्मीदवारों का टिकट काट कर दोनों को ही मैदान में उतार दिया.

मायावती इन दोनों नेताओं की मदद से समाजवादी पार्टी का खेल खराब करने की कोशिश में हैं - और आस पास के इलाकों में भी मैसेज देने की उनकी कोशिश है. मायावती ने बलिया के माल्देपुर में ऐसी जगह रैली कि जहां से दोनों नेताओं के इलाकों में उनकी आवाज आसानी से पहुंच सके.

बलिया सदर सीट पर अखिलेश कैबिनेट का हिस्सा रहे नारद राय मैदान में जरूर हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इलाके के लोगों को उनसे बहुत ज्यादा सहानुभूति हो. बीएसपी के समर्पित वोट तो नारद राय को मिल जाएंगे लेकिन समाजवादी पार्टी का पुराना कोटा उनकी ओर झुकेगा, ऐसा नहीं लगता. ऊपर से नीरज शेखर ने पूर्व विधायक मंजू सिंह को साथ ले लिया है - जिससे वोटों का बिगड़ा बैलेंस समाजवादी पार्टी के मुताबिक ज्यादा नहीं तो कुछ न कुछ तो सुधर ही सकता है.

पूर्वांचल के असली पेंच

बीजेपी अगर ये मान कर चल रही थी कि सवर्ण वोट तो उसके हैं ही, पूर्वांचल में गैर-यादव और गैर-दलित ओबीसी वोट भी वो बतौर 'बोनस' बटोर लेगी - तो यही कहा जा सकता है कि ये उसके मुगालते में रहने से ज्यादा नहीं है. ये सही है कि बीजेपी ने इसके लिए ओमप्रकाश राजभर और अनुप्रिया पटेल की पार्टियों से गठबंधन भी किया.

पूर्वांचल में मोदी के बनारस से निकलें तो गोरखपुर और आसपास के कई जिलों में योगी आदित्यनाथ का खासा प्रभाव है. कुछ कुछ वैसे ही जैसे मायावती ने मुस्लिम समुदाय में मुख्तार अंसारी के प्रभाव का आकलन किया होगा. तब मायावती को मुख्तार के पैरोल पर छूट कर बीएसपी के लिए चुनाव प्रचार की बहुत उम्मीद भी जरूर रही होगी.

बीजेपी को इससे जितना भी फायदा मिल रहा हो, समाजवादी पार्टी का नुकसान ये है कि मुस्लिम वोटों का बड़ा हिस्सा उसकी झोली से खिसकता लग रहा है.

जिस तरह मायावती ने समाजवादी पार्टी से मुस्लिम वोट झटकने की रणनीति अपनायी है, पूर्वांचल की कई सीटों पर बड़ी ही समझदारी से उन्होंने सवर्ण उम्मीदवार उतारे हैं - और उनमें से कई ऐसे उम्मीदवार हैं जो खुद के बूते मैदान में डटे हुए हैं - ऐसे देखें तो बीएसपी कोटे के वोट ही उनके लिए बोनस होंगे. आजमगढ़ में सगड़ी और अतरौलिया, गाजीपुर में जंगीपुर और जमानिया और बलिया की रसड़ा और सदर सीटें इसकी मिसाल हैं.

बीजेपी की मुश्किल ये है कि जो योगी आदित्यनाथ उसे पूर्वांचल में मजबूत बनाते हैं उन्हीं के लोग उसकी मुसीबत के सबब भी बने हुए हैं. योगी के ही संगठन हिंदू युवा वाहिनी के एक गुट ने पूर्वांचल की 20 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं. समझना मुश्किल है कि ये सब योगी की दबाव बनाने की राजनीति का हिस्सा है या फिर उनकी अपनी फौज के ही कुछ लोग भस्मासुर बन चुके हैं. असली वजह जो भी हो लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि इसका खामियाजा सिर्फ बीजेपी को भुगतना होगा और योगी पर आंच भी नहीं आएगी.

जब से कब्रिस्तान से कसाब तक के चुनावी रंग घोल कर बीजेपी केशरिया रंग से होली खेलने की उम्मीद कर बैठी है - उसे दूसरी छोर से चुनौती भी मिल रही है. माना जाने लगा है कि योगी और मुख्तार फैक्टर ने पूर्वांचल के पेंच का कुछ ज्यादा ही उलझा दिया है. याद कीजिए किस तरह योगी ने शुरुआती दौर में पश्चिम यूपी में कश्मीर जैसे माहौल की बात कर वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश की थी. सवाल वहीं आकर ठहर जाता है - पूर्वांचल के वोट ही कहीं त्रिशंकु विधानसभा की वजह तो नहीं बनने जा रहे?

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