New

होम -> सियासत

 |  5-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 28 मई, 2016 11:59 AM
अशोक प्रियदर्शी
अशोक प्रियदर्शी
  @ashok.priyadarshi.921
  • Total Shares

बिहार में नीतीश कुमार की अगुआई में महागठबंधन की सरकार ने छह महीने पूरे कर लिए हैं. इस दौरान नीतीश सरकार बिहार में पूर्ण शराबबंदी का ऐतिहासिक फैसला लेकर देश और दुनिया में दृढ़ संकल्प का संदेश देने की कोशिश की है. महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 35 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है. यही नहीं, चुनाव से पहले किए सात निश्चय के वादों को पूरा करने के लिए भी कैबिनेट की मंजूरी हो चुकी है. इसमें युवा पीढ़ी को शिक्षा, कौशल विकास, सभी गांवों में बिजली कनेक्शन, हर घर को नल से पानी और सड़क जैसे काम शामिल हैं.

लेकिन महागठबंधन की यह सरकार उस अवधारणा को दूर कर पाने में विफल रही है, जिसे लेकर विरोधी सवाल उठाते रहे हैं. 20 नवंबर 2015 को बिहार में जब कांग्रेस के समर्थन से जदयू प्रमुख नीतीश कुमार और राजद प्रमुख लालू प्रसाद के महागठबंधन की सरकार बन रही थी तब विरोधी सवाल उठा रहे थे कि यह सरकार चलनेवाली नही है. यह अवसरवादियों की सरकार है. दरअसल, बिहार सरकार के दो बड़े साझेदार आपस में चूहा और बिल्ली का खेल खेल रहे हैं. यह आपको तय करना है कि कौन चूहा है और कौन बिल्ली! वैसे दोनों बड़े नेता एकता के दावे करते रहे हैं. लेकिन शायद ही कोई अवसर रहा हो जब एक दूसरे को मात देने से चूक रहे हों.

nitish-lalu-650_052816115644.jpg
 एक-दूसरे को मात देने की कोशिश तो नही!

सरकार के सबसे बड़े सहयोगी राजद के दिग्गज नेता ही नीतीश कुमार की कार्यशैली पर सवाल उठा रहे हैं. सता पक्ष के लोग ही विपक्ष की भाषा बोल रहे हैं. राजद नेता तसलीमुददीन ने कहा कि बिहार में जंगलराज नही महाजंगलराज है. नीतीश मुखिया बनने लायक नही हैं. रघुवंश प्रसाद सिंह और प्रभुनाथ सिंह ने भी नीतीश कुमार की कार्यशैली पर सवाल उठाए. जदयू भी पीछे नही रही. श्याम रजक, संजय सिंह ने भी प्रतिवाद किया. हालांकि लालू प्रसाद के दखल के बाद यह मामला शांत हो गया है. लेकिन संशय खत्म नही हुआ है.

दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जब लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के एक मंच पर आने की बात हो रही थी. तब लोगों को भरोसा नही हो रहा था कि पुरानी दुश्मनी को भूलाकर दोनों साथ आ पाएंगे. तब दोनों नेताओं ने एक मंच पर आकर संदेश दिया कि सियासत में कोई स्थायी दोस्त और स्थायी दुश्मन नही होता.

अजीबोगरीब स्थिति है कि दोनों नेताओं के दलों की सरकार है. लेकिन अपवाद को छोड़ दें तो दोनों नेता मंच साझा करने से परहेज करते रहे हैं. जबकि दोनों दल विलय की बात करते रहे हैं. लेकिन यूपी चुनाव को लेकर दोनों दलों की अलग अलग रणनीति है. यही नहीं, बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद लालू प्रसाद की पहली प्रतिक्रिया थी कि नीतीश कुमार बिहार संभालेंगे, जबकि वे (लालू प्रसाद) देश में सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ लड़ाई लड़ेंगे. लेकिन अब परस्पर विरोधी हालात हैं. नीतीश कुमार संघमुक्त भारत अभियान की शुरूआत कर चुके हैं. तो लालू प्रसाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबियों से मेलजोल दिखा रहे हैं. बाबा रामदेव से चेहरे चमका रहे हैं.

lalu-ramdev_052816115516.jpg
 लालू और रामदेव की दोस्ती!

यही नहीं, लालू उपमुख्यमंत्री पुत्र तेजस्वी यादव केन्द्रीय परिवहन मंत्री नीतिन गडकरी और रेल मंत्री सुरेश प्रभु के साथ मुलाकात करते हैं. सरकारी स्तर पर प्रकाशित विज्ञापनों से भी संशय की स्थिति उत्पन्न हो रही है. नीतीश तेजस्वी यादव के अलग अलग विज्ञापन प्रकाशित हो रहे हैं.

दरअसल, 15 साल तक लालू प्रसाद और उनकी पत्नी राबड़ी देवी सता में रही हैं. तब नीतीश विरोध की राजनीति करते थे. उसके बाद जब नीतीश दस साल सता में रहे तब लालू प्रसाद विरोध की राजनीति करते रहे. 2015 के चुनाव में परस्पर विरोधी की अवधारणा से अलग दोनों सता में आ गए. लेकिन चूहे और बिल्ली के इस खेल से समाज में व्याप्त पुराने अवधारणा से लोग मुक्त नही हो पाए हैं.

बिहार सरकार कथित तौर पर उस जंगलराज की अवधारणा को भी नही खत्म कर पाई है, जिसे लेकर विरोधी सवाल खड़ा करते रहे हैं. अपराध की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है. मुश्किल कि सतापक्ष के दर्जनभर जनप्रतिनिधि और उनके परिजनों ने कई ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया. इससे बिहार की कानून व्यवस्था पर सवाल उठने लगे हैं.

अपराध नियंत्रण पर ठोस कार्रवाई करने के बाद भी सरकार के हाथ खाली रह जा रहे हैं. इसका श्रेय मीडिया और विरोधी उठा रहे हैं. गया रोडरेज प्रकरण में सरकारी पहल के बाद गया की जदयू एमएलसी मनोरमा देवी को सरेंडर करना पड़ा. उसके पुत्र रॉकी और पति बिंदी यादव को जेल भेज दिया गया. लेकिन इसी एमएलसी परिवार पर एफआईआर करने में 26 घंटे का समय लग गया. इसके पहले नवादा के राजद विधायक राजबल्लभ के प्रकरण में भी ऐसा ही दिखा. विधायक के खिलाफ तीन दिन बाद रेप की प्राथमिकी दर्ज हुई और वह पुलिस एक माह तक आंखमिचैनी खेलते रहे. लेकिन पुलिस गिरफ्तार करने की साहस नही दिखा पाई.

दरअसल, नीतीश कुमार की यह कार्यशैली 2005 की छवि से उन्हें अलग करती है. नीतीश जब मुख्यमंत्री बने थे तब उनके दल के एक विधायक ने होटल में हंगामा किया था. तत्काल जेल भेज दिया गया था. लेकिन अब गंभीर अपराधों के आरोपी प्रतिनिधियों और उनके परिजनों पर कार्रवाई में भी काफी वक्त लग रहा है. संभव हो सियासत का हिस्सा रहा हो. लेकिन ऐसी सियासत से नागरिकों का भरोसा टूट रहा है, जिन्होंने आप पर भरोसा किया है. एक पक्ष को लगता है कि बदनामी वाला पार्ट उन्हें नही दागदार बना पाएगा. जबकि दूसरे पक्ष को लगता है कि जब श्रेय आपको मिलेगी तब बदनामी से कैसे पीछा छूड़ाएंगें.

लेखक

अशोक प्रियदर्शी अशोक प्रियदर्शी @ashok.priyadarshi.921

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय