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Updated: 26 जुलाई, 2016 07:06 PM
संजय बरागटा
संजय बरागटा
  @sanjay.bragta
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अंतर्राष्ट्रीय ख्याति वाली मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला ने राजनीति के मैदान में उतरने का मन बना लिया है. मंगलवार को अदालत से निकलते हुए इरोम ने कहा कि वो अकेली पड़ गई है. कोई भी उनके आंदोलन में साथ नहीं दे रहा है. लिहाजा वो अपना अनशन तोड़कर निर्दलीय ही मणिपुर विधानसभा के चुनाव लड़ेंगी.

इरोम 5 नवम्बर, 2000 से भूख हड़ताल पर है. 16 साल से बिना अन्न-जल के. आईना देखना और बाल में कंघी करना तक करना छोड़ दिया. वो राज्य में आफ्सपा यानि 1958 के कानून, सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम को खत्म करने की लड़ाई लड़ रही हैं. इंफाल के मालोम में नवंबर 2000 को असम राईफल्स के हाथों 10 बेकसूर मारे गए. तभी से इरोम गांधीगिरी में जुट गईं. और एक नई मिसाल कायम कर दी.

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करीब डेढ दशक तक खुद को भूखा-प्यासा रखकर सरकार को अफ्सपा हटाने के लिये मजबूर करती रहीं. भूख हड़ताल शुरू करने के तीसरे दिन, यानि 8 नवंबर 2000 से उनका जेल आना-जाना शुरू हुआ. इरोम को आत्मपहत्याे की कोशिश के जुर्म में जेल भेजा गया. इस दौरान इरोम को नाक की नली के जरिये खाना दिया जाने लगा और पोरोपट में अस्पताल के एक कमरे को जेल बना दिया गया. इरोम दोहरी लड़ाई लड़ती रहीं. एक खुद को कानूनी पचड़ों से और दूसरा पूर्वोतर के सात राज्यों के साथ-साथ जम्मु-कश्मीर को आफ्सपा से मुक्ति दिलाने के लिये.

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 इरोम चानू शर्मिला

जेल जाना, छूटकर आना, फिर अनशन पर बैठना, और फिर से जेल जाना, इस सिलसिले को अब इरोम बदलना चाहती हैं. शायद वो अपनी रणनीति बदल रही है, लड़ाई नहीं. शायद वो समझ गई हैं कि परिवर्तन के लिये सत्ता जरूरी है. वैसे तो कई आंदोलनकारी अपनी मांग मनवाने के लिये राजनीति का रास्ता आजमा चुके हैं. लोकपाल के लिए आंदोलन के जरिये आम आदमी पार्टी बनी, दिल्ली में सफलता मिली और सरकार भी बनी. लेकिन सत्ता में आने के बाद आंदोलनकारी की प्राथमिकता बदल जाती है. तो क्या इरोम के साथ भी यही होगा?

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मान भी लें कि वो बहुमत हासिल कर मणिपुर में सत्ता हासिल कर लें. फिर भी वो आफ्सपा नहीं हटा पायेंगी, क्योंकि ये केंद्र सरकार का विषय है. इसका मतलब ये नहीं कि इरोम का फैसला गलत है. उनका कदम सही दिशा में उठा है. इरोम का व्यक्तित्व, क्षमता और ताकत, साकारात्मक दिशा मंआ जरूर अच्छे नताजे दे सकती है. बहरहाल उम्मीद करते हैं कि पूर्वोत्तर के सात राज्यों के युवाओं के साथ-साथ कश्मीर में बंदुक उठाने वाले बुरहान वानी सरीखे युवाओं को इरोम से एक सही रास्ता अपनाने की नसीहत मिलेगी. राष्ट्रीय और राजनीति की मुख्यधारा से जुड़ने की. मुख्यधारा की राजनीति में सोचने, समझमे और सभी पक्षों के हित में काम करने का दायरा बढ़ जाता है. साथ ही संविधान को बेहतर समझने और उसके दायरे में रहकर काम करना पड़ता है. वैसे आफ्सपा सही है या गलत, ये इसके इस्तेमाल या बेजा इस्तेमाल पर निर्भर करता है. ये बात सभी कानूनों पर लागू होती है.

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इरोम को राजनीति में लाने की भूमिका जस्ट पीस फाउंडेशन के जरिये प्रशांत भूषण ने दो साल पहले ही बना दी थी. भूषण ने 2014 में इरोम को आम आदमी पार्टी टिकट पर मणिपुर से लोकसभा चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रखा था. इरोम ने उस वक्त इसे ठुकरा दिया. लेकिन अब राजनीति के मैदान में कदम, अगले साल मणिपुर में होने वाले विधान सभा चुनाव लड़ कर रखेंगी. हालांकि ये जाहिर है कि पूर्वोत्तर में कमल खिलाने में लगी बीजेपी, इरोम जैसी शख्सि‍यत को अपने पाले में रखना चाहेगी. कम से कम इरोम के साथ खड़े होकर, उनपर हुई ज्यादतियों का ठिकरा कांग्रेस पर फोड़ने की कोशिश तो जरुर करेगी.

लेखक

संजय बरागटा संजय बरागटा @sanjay.bragta

लेखक आजतक के एक्जिक्यूटिव एडिटर हैं.

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