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Updated: 13 दिसम्बर, 2019 10:23 PM
प्रभाष कुमार दत्ता
प्रभाष कुमार दत्ता
  @PrabhashKDutta
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पश्चिम बंगाल (West Bengal) की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने मोदी सरकार (Modi Government) के सामने एक बड़ी चुनौती रख दी है. उन्होंने कहा है कि वह पश्चिम बंगाल में नागरिकता संशोधन कानून (Citizenship Amendment Act 2019) को लागू नहीं होने देंगी. बता दें कि मोदी सरकार ने पहले लोकसभा (Lok Sabha) और फिर राज्यसभा (Rajya Sabha) में भी नागरिकता संशोधन बिल को मंजूरी दिलवा ली है. इस बिल के तहत देश बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी अल्पसंख्यक लोगों को देश की नागरिकता दी जा सकेगी. वहीं जो मुस्लिम प्रवासी अवैध रूप से भारत में घुसे हैं, उन्हें बाहर निकाला जाएगा. ममता बनर्जी ने कहा है- 'हम किसी को भी किसी भी व्यक्ति को देश से बाहर निकालने नहीं देंगे.' ये एक तरह से ममता बनर्जी का यू-टर्न है, क्योंकि कभी उन्होंने ही लेफ्ट फ्रंट की सरकार के विरोध में पूरा कैंपेन चलाया था और आरोप लगाए थे कि लेफ्ट की सरकार अवैध शरणार्थियों (Illegal Migrants) को गंभीरता से नहीं ले रही है और वोट बैंक की पॉलिटिक्स (Politics on Illegal Migrants) कर रही है. बता दें कि असम (Assam) में भी अवैश शरणार्थियों पर खूब राजनीति हुई है.

Citizenship Amendment Bill 2019 Assam and West Bengalनागरिकता संशोधन बिल के विरोध में असम में भारी विरोध प्रदर्शन हो रहा है.

ममता बनर्जी और अवैध शरणार्थी

2005 में ममता बनर्जी ने कांग्रेस की लेफ्ट के समर्थन वाली सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया था और बंगाल में अवैध शरणार्थियों पर गंभीर रूप से सोचने की बात कही थी. उन्होंने कहा था- बांग्लादेश के अवैध शरणार्थी भी पश्चिम बंगाल में वोटर्स हैं. राज्य सरकार इस बारे में कुछ नहीं कर रही है. ऐसे में इस मामले पर चर्चा होना बहुत जरूरी है. उस समय सीपीआई(एम) के स्वर्गीय सोमनाथ चटर्जी लोकसभा स्पीकर थे और बंगाल में लेफ्ट फ्रंट के समर्थन वाली सरकार थी. उस समय चटर्जी ने अवैध शरणार्थियों पर संसद में बहस की मांग को खारिज कर दिया था. इसके बाद ममता बनर्जी ने वेल में जाकर उनकी तरफ पेपर फेंके थे.

उस समय ममता बनर्जी कोलकाता साउथ की सांसद थी, जिन्होंने विरोध प्रदर्शन के तहत इस्तीफा दे दिया. हालांकि, इसे खारिज कर दिया गया था क्योंकि इस्तीफा सही फॉर्मेट में नहीं था. लेकिन लोकसभा में उन्होंने अवैध शरणार्थियों के मुद्दे पर जो तमाशा किया था, उसने उनके कैंपेन में बहुत मदद की और 2011 में उन्होंने लेफ्ट की सरकार को उखाड़ फेंका और खुद सत्ता पर आसीन हो गईं. हालांकि, ममता बनर्जी अकेली नहीं हैं, जिन्होंने अवैध शरणार्थियों के मुद्दे पर राजनीति की. प्रफुल्ल कुमार महंता की असम गण परिषद और भाजपा ने भी इस मुद्दे को राजनीतिक फायदे के लिए खूब भुनाया.

प्रफुल्ल महंता को मिली ताकत

ममता बनर्जी के अवैध शरणार्थियों पर राजनीति करने से पहले असम में इस पर खूब हल्ला हो रहा था. असम में पहली बार अवैध शरणार्थियों का मुद्दा ना तो लोकसभा चुनाव में वोट का जरिया बना ना ही विधानसभा चुनाव में, बल्कि इसे भुनाया गया लोकसभा उपचुनाव में, जो मंगलदोई सीट पर हुआ था. चुनाव प्रचार के दौरान ये ऑल असम स्टूटेंट यूनियन (AASU) ने आरोप लगया गया कि बांग्लादेश से आए बहुत सारे अवैध शरणार्थियों को राजनीतिक फायदे के लिए देश में जगह दी गई है. यूनियन ने एक कैंपेन शुरू किया, जिसमें मांग की गई कि मंगलदोई के लोकसभा उपचुनाव में अवैध शरणार्थियों के नाम काटे जाएं. उनकी मांग नहीं मानी गई, जिसके बाद पूरे राज्य में एक कैंपेन चला. AASU के इस मूवमेंट को धरातल पर लोगों का खूब समर्थन मिला. जब 1983 में विधानसभा चुनावों की घोषणा हुई, उस दौरान भी इसने खूब सहानुभूति बटोरी. AASU ने उस विधानसभा चुनाव का बहिष्कार कर दिया, क्योंकि अवैध शरणार्थियों को पहचान कर उन्हें देश से निकालने की उनकी मांग को नहीं माना गया. बता दें कि वह चुनाव AASU की मांगों पर ध्यान दिए बिना ही लड़ा गया.

पहचान करें, नाम हटाएं और वापस भेजें

लेकिन 1985 तक असम में अवैध शरणार्थियों के मुद्दे ने काफी तूल पकड़ लिया. इसके बाद राजीव गांधी की केंद्र सरकार ने AASU के साथ 1985 में एक एग्रीमेंट किया, जिसने अवैध शरणार्थियों की पहचान करने, उनके नाम काटे जाने और उन्हें देश से बाहर निकालने का रास्ता साफ किया. इसी के साथ नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन बनाने का रास्ता भी साफ हो गया, जिसका वादा 1951 में किया गया था. असम की कांग्रेस सरकार को खारिज कर दिया गया. उसके बाद हुए चुनावों में AASU असम गण परिषद (AGP) के रूप में समेकित हो गया और इसके अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार असम के नए मुख्यमंत्री बन गए. वह एक नहीं, बल्कि दो बार असम के मुख्यमंत्री बने, लेकिन अवैध शरणार्थियों की पहचान करने, उनके नाम काटे जाने और उन्हें देश से बाहर निकालने का मुद्दा जस का तस बना रहा.

इस मुद्दे को फिर भाजपा ने पकड़ा, जिसने इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाया. अवैध शरणार्थियों का ये मुद्दा भाजपा के राज्य और राष्ट्रीय स्तर के घोषणा पत्रों में भी दिखाई दिया. केंद्रीय गृह मंत्री अमति शाह ने संसद में नागरिकता संशोधन बिल पर भाषण देते हुए कहा है कि देश की 130 करोड़ जनता ने इस बिल को अपना समर्थन दिया है. उन्होंने कहा कि लोगों ने भाजपा को वोट देकर 2014 और 2019 में जिताया है और पार्टी ने वादा किया है कि हम अवैध शरणार्थियों को देश से बाहर निकालेंगे.

अब समझिए कितनी गहरी हैं इसकी जड़ें

आगे बढ़ने से पहले एक नजर इतिहास पर डालते हैं, जहां इस दिक्कत की जड़ें मौजूद हैं. भारतीय संविधान के इतिहास में भारत सरकार का 1935 का एक्ट टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. भारत में चुनाव हुए थे और कांग्रेस ने देश के अधिकतर राज्यों में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया. हालांकि, असम में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला और वहां कुछ समय के लिए मुस्लिम लीग ने अल्पमत की सरकार बनाई. उस समय असम में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता गोपीनाथ बोरडोलोई थे. उन्होंने मोहम्मद सादुल्ला की सरकार पर आरोप लगाया कि उन्होंने अवैध शरणार्थियों, खासकर मुस्लिम बंगालियों को अवैध तरीके से राजनीतिक फायदे के लिए देश में शरण देकर असम का भूगोल और संस्कृति को बदलने की कोशिश की है.

करीब दो सालों में सादुल्ला सरकार गिर गई और बोरदोलोई असम के नए मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन बोरदोलोई ने भी तब इस्तीफा दे दिया, जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ और इससे पहले उन्होंने कांग्रेस को कॉन्फिडेंस में भी नहीं लिया. इसके बाद सादुल्ला कांग्रेस के साथ सत्ता में आ गए, जिन्होंने आरोप लगाया कि अवैध शरणार्थियों को बढ़ाया दिया गया है.

बता दें कि उन दिनों अवैध शरणार्थियों का मुद्दा खूब गरम था, जिसके चलते बोरदोलोई 1946 में फिर से मुख्यमंत्री बने. उन्होंने केंद्र में पंडित जवाहर लाल नेहरू से समर्थन मांगा. इस खास वजह के लिए एक कानून पारित किया गया. अवैध शरणार्थियों को असम से बाहर निकालने के मकसद से शरणार्थी एक्ट 1950 बनाया गया. 1951 की जनगणना के हिसाब से एक एनआरसी बनाने का निर्णय लिया गया.

1950 में बोरदोलोई की मौत ने एनआरसी पर एक तरह का ब्रेक लगा दिया. लेकिन अवैध शरणार्थियों का ये मुद्दा बना रहा और 70-80 के दशक में AASU ने इस मुद्दे को उठा लिया. ममता बनर्जी ने भी इस मुद्दे में ताकत देखी और लेफ्ट सरकार के खिलाफ इसे हथियार की तरह इस्तेमाल किया. भाजपा भी अब कुछ वैसा ही कर रही है, लेकिन हां, भाजपा ये सब एक बड़े स्तर पर कर रही है, ना कि बाकियों की तरह राज्य स्तर पर.

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लेखक

प्रभाष कुमार दत्ता प्रभाष कुमार दत्ता @prabhashkdutta

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्टेंट एडीटर हैं.

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