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Updated: 12 फरवरी, 2017 03:34 PM
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'यूपी को ये साथ...' कितना पसंद आया ये जानने के लिए महीने भर इंतजार करना होगा. लेकिन 'यूपी के लड़कों' के इस साथ ने इनके पेरेंट्स को इतना निश्चिंत जरूर कर दिया कि चुनाव प्रचार से दूर रह कर उन्होंने आराम करने का फैसला कर लिया.

कभी हां कभी ना करते करते मुलायम सिंह तो जसवंत नगर तक पहुंच भी गये, सोनिया गांधी तो अब तक कहीं नहीं निकलीं हैं. खबर है कि चुनाव प्रचार के लिए वो ज्यादा से ज्यादा रायबरेली और अमेठी जा सकती हैं.

बीस साल बाद...

1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया ने खुद को सिर्फ परिवार तक समेट लिया था. जब वो राजीव के ही राजनीति में जाने के खिलाफ रहीं फिर खुद के बारे में क्या कहना. आखिरकार 1997 में वो सक्रिय राजनीति में आने को राजी हुईं और फिर साल भर बाद 1998 में कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं. पिछले 20 साल में शायद ही ऐसा कोई चुनाव बीता हो जिसमें सोनिया ने बढ़ चढ़ कर प्रचार न किया हो.

पंजाब और गोवा में तो चुनाव खत्म भी हो गये और अब तो यूपी चुनाव का भी पहला फेज पूरा हो गया, लेकिन सोनिया ने अब तक कोई रैली नहीं की है.

mulayam-sonia_650_021217032950.jpgबच्चे हैं... बच्चे बड़े हो गये हैं...

वैसे चुनाव प्रचार की नींव तो सोनिया ने पिछले साल अगस्त में ही रख दिया था जब उन्होंने वाराणसी में रोड शो किया. पहले से ही तबीयत अच्छी न होने के कारण रोड शो के दौरान सोनिया बीमार हो गईं और इलाज के लिए उन्हें दिल्ली लाकर अस्पताल में भर्ती कराया गया. जल्द ही उन्हें अस्पताल से छुट्टी भी मिल गयी, लेकिन तब से वो पार्टी के कार्यक्रमों से भी दूर ही रहीं.

यहां तक की कांग्रेस की कार्यकारिणी की बैठकों में भी सोनिया नहीं पहुंचीं. बाद के दिनों में भी हर उस जगह जहां सोनिया गांधी की मौजूदगी जरूरी होती, राहुल गांधी ने ही नेताओं का नेतृत्व किया. तो क्या सोनिया गांधी की सेहत अभी तक दुरूस्त नहीं हो पायी है कि वो ऐसे कार्यक्रमों से दूरी बनाए हुए हैं?

ऐसा तो बिलकुल नहीं लगता. अगर ऐसा होता तो वो ई अहमद का हाल जानने राम मनोहर लोहिया अस्पताल भी नहीं जातीं. बजट पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण के दौरान पूर्व मंत्री ई अहमद को दिल का दौरा पड़ा था और 31 जनवरी को रात में सोनिया गांधी उन्हें देखने अस्पताल गयीं थी. इस दौरान उनके साथ राहुल गांधी, अहमद पटेल और गुलाम नबी आजाद भी थे.

असल बात ये है कि सोनिया गांधी बेटे राहुल को खुद फैसले लेने और हर मौके पर पार्टी को लीड करने का मौका दे रही हैं. राहुल को सक्रिय राजनीति में एक दशक से ऊपर हो चुके हैं लेकिन कभी खुद की वजह से तो कभी वरिष्ठ नेताओं के एक गुट के विरोध के चलते उनकी ताजपोशी लटकी हुई है. फिलहाल वो कांग्रेस कार्यसमिति में नंबर दो और पार्टी के उपाध्यक्ष हैं.

जब से सोनिया की छाया से आगे बढ़ कर राहुल गांधी ने कामकाज देखना शुरू किया है उनकी एग्रेसिव पॉलिटिक्स में धीरे धीरे गंभीरता आने लगी है. अब न तो वो कुर्ते के आस्तीन चढ़ाते देखे जाते हैं न ही हाल फिलहाल उन्हें कोई कागज फाड़ते देखा गया है. हां, जब से यूपी में समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस का गठबंधन हुआ है वो अखिलेश यादव के साथ मुस्कुराते जरूर देखे जा रहे हैं.

देर से ही सही लेकिन यूपी चुनाव राहुल गांधी के लिए बढ़िया ट्रेनिंग ग्राउंड साबित हो रहा है - और सोनिया को पक्का यकीन हो चुका होगा कि 2019 के लिए उन्होंने राहुल को ठीक वक्त पर खुद के बूते आगे बढ़ने के लिए छोड़ दिया है, ठीक वैसे ही जैसे कोई तैरना तब तक नहीं सीख पात जब तक कि उनसे नदी के बीच धार में ले जाकर अकेले न छोड़ दिया जाये. संभालने के लिए तो तमाम अंकल और आंटी हैं ही.

इतिश्री अमर कथा!

अखिलेश यादव सांसद तो राहुल गांधी से पहले ही बन गये थे, लेकिन राजनीतिक सक्रियता दोनों की करीब करीब साथ ही शुरू हुई. अखिलेश 2000 में कन्नौज से तो राहुल 2004 में अमेठी से लोक सभा के लिए चुने गये. असल में 1999 में मुलायम सिंह दो सीटों - संभल और कन्नौज से चुनाव लड़े और दोनों जीत गये. फिर उन्होंने कन्नौज सीट छोड़ दी जिस पर उपचुनाव में अखिलेश लोक सभा के लिए चुने गये.

rahul-akhilesh-wire__021217033101.jpgसाथ का सफर...

2007 में मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की चपेट में आकर सत्ता बाहर हो चुकी समाजवादी पार्टी के लिए यूपी में खड़ा होना मुश्किल हो रहा था. ये वही दौर था जब अखिलेश साइकिल लेकर निकल पड़े. इस दौरान लोग उन्हें देखते तो मुलायम के बेटे के ही रूप में लेकिन उसमें लोगों को एक पढ़ा लिखा मुस्कुराता युवा चेहरा भी नजर आता. ये अखिलेश की ही मेहनत थी जो रंग लाई - और 2012 में समाजवादी पार्टी ने बीएसपी को भारी शिकस्त दे पायी. समाजवादी पार्टी ने चुनाव मुलायम के नाम पर जीता था, लेकिन उस जीत के आर्किटेक्ट थे युवा अखिलेश यादव. मुलायम के भाई और सारे साथी चाहते थे कि वो खुद सीएम बनें, जबकि अखिलेश के युवा समर्थक बेटे को कुर्सी पर बैठने का मौका चाहते थे.

कुश्ती से राजनीति में आये मुलायम को समझ आ गया कि बेटे को विरासत सौंपने का ये बेहतरीन मौका है. भाई शिवपाल और साथी आजम खां जैसे नेताओं को मुलायम ने जैसे तैसे मना ही लिया. थोड़े ना नुकुर के बाद सब के सब मंत्री बनने को भी तैयार हो गये.

चार साल बीत गये और यूपी में साढ़े चार मुख्यमंत्रियों की चर्चा चलती रही जिसमें अखिलेश के हिस्से में आधा ही आता. पहले तो सब कुछ यूं ही चलता रहा लेकिन फिर कुछ बातों को लेकर अखिलेश विरोध दर्ज कराने लगे - और धीरे धीरे समाजवादी पार्टी में उठापटक शुरू हो गयी. घर का झगड़ा चुनाव आयोग पहुंचा और आखिरकार फैसला अखिलेश के पक्ष में आया.

मुलायम की विरोधी मायावती ने आरोप लगाया कि मुलायम बेटे को विरासत सौंपने के लिए भाई की बलि दे रहे हैं. तस्वीर तब साफ हुई जब खबर आई कि मुलायम ने अखिलेश के विरोध में आयोग को लिखित तौर पर कुछ भेजा ही नहीं.

समाजवादी परिवार के झगड़े में अहम किरदार रहे अमर सिंह ने भी अब साफ कर दिया है कि किस तरह मुलायम ने बेटे को विरासत सौंपने के लिए रणनीति अपनाई.

एक टीवी कार्यक्रम में अमर सिंह बताते हैं, 'मैं आपको एक छिपा हुआ फैक्ट बताता हूं. हर बाप अपने बेटे के हाथों हारना पसंद करेगा. जो भी झगड़ा था वो प्लानिंग के तहत था. मेरे पास जानकारी है कि मुलायम ने साइकल चिह्न अखिलेश को देने का फैसला पहले ही कर लिया था. इसके लिए मुलायम ने चुनाव आयुक्त को लेटर भी लिखा था. यह पक्की बात है.'

हालांकि, अमर सिंह ने ये बयान तब दिया है जब न तो वो मुलायम के दल में हैं, न दिल में, बल्कि खबर है कि अब वो दलबदल करने वाले हैं. अमर सिंह के अब बीजेपी में जाने की अटकले हैं. वैसे भी बीजेपी सरकार उन पर पहले से ही काफी मेहरबान नजर आ रही है.

फेमिली पॉलिटिक्स के हिसाब से देखें तो समाजवादी पार्टी कई मायने में कांग्रेस को पीछे छोड़ती नजर आती है, लेकिन अगली पीढ़ी को विरासत साथ ही सौंपी गयी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाजवादी गठबंधन को दो कुनबों का मिलन करार दिया है तो मायावती के इल्जामात अलग ही हैं. देखा जाये तो सोनिया और मुलायम दोनों ने ही अपने अपने बेटों को अपनी राजनीतिक विरासत काफी सोच समझ कर और पूरी तैयारी के बाद सौंपे हैं. घरों में बैठ कर दोनों टीवी पर बच्चों को साथ साथ देखते होंगे तो निश्चित रूप में बेहद सुकून मिलता होगा.

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