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Updated: 01 जून, 2019 06:58 PM
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सुर्खियों में बने रहने के तमाम तरीके होते हैं और राजनीति में ये हुनर भी बड़े काम का है. मीडिया की सुर्खियों में बने रहने का एक कारगर तरीका बड़े नेताओं को टारगेट कर बयानबाजी करना भी है - और कुछ हो न हो, दुकान धड़ल्ले से चलती रहती है. वैसे तो ये सियायत का शाश्वत स्वरूप है, लेकिन मौजूदा दौर में संख्या कुछ ज्यादा ही हो गयी है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राहुल गांधी, ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल ही नहीं, असदुद्दीन ओवैसी जैसे भी कई नेता हैं जो अक्सर टारगेट करते रहते हैं. विपक्ष के बाकी नेताओं की तो अपनी राजनीतिक जरूरत होती ही है, ओवैसी जैसे नेताओं की राजनीति से तो लगता है जैसे वे बीजेपी को ही फायदा पहुंचाने के लिए ही चल रही कवायद का हिस्सा हों. बीजेपी विरोध के नाम पर भी अपना कारोबार कैसे फल-फूल सकता है - ये बाकियों के मुकाबले बेहतर जानते औ समझते हैं.

ओवैसी को हैदराबाद से बाहर कोई क्यों नहीं पूछता?

कहने को तो असदुद्दीन ओवैसी बीजेपी नेतृत्व को फ्रंट पर रह कर चैलेंज करते हैं - लेकिन उससे बीजेपी का कोई नुकसान तो कभी नहीं होता दिखता. लगता तो ऐसा है जैसे विरोध के नाम पर ओवैसी अपने तो फायदा उठाते ही हैं, बीजेपी को भी भरपूर फायदा पहुंचाते हैं. बीजेपी पर उसके विरोधी सांप्रदायिकता के नाम पर ध्रुवीकरण की राजनीति करने का आरोप लगाते हैं. हालांकि, बीजेपी ने इस बार चुनावों तक सांप्रदायिकता के विपक्षी ठप्पे वाला अयोध्या मुद्दा पहले ही होल्ड कर लिया था. वैसे भी राष्ट्रवाद का मसला उम्मीदों से कहीं ज्यादा फायदेमंद रहा.

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इस्तेहादुल मुसलमीन (AIMIM) के नेता असदुद्दीन ओवैसी के बीजेपी विरोध के एजेंडे में तो मुसलमानों का नेता बनने की कोशिश रहती है - लेकिन हैदराबाद को छोड़ कर कहीं और का मुसलमान ओवैसी को नेता नहीं मानता. अभी तो हैदराबाद ओवैसी खानदान के लिए वोटों का खजाना बना हुआ है - आगे क्या होगा कौन जानता है? कौन जानता था कि स्मृति ईरानी गांधी परिवार के गढ़ अमेठी में राहुल गांधी को शिकस्त दे देंगी. वैसे बीजेपी के हिसाब से देखें तो अमेठी और हैदराबाद में बुनियादी फर्क है.

हैदराबाद से असदुद्दीन ओवैसी ने इस बार 3.5 लाख वोटों से जीत हासिल की है. ये उनकी चौथी जीत है और हार जीत का अंतर 2014 से ज्यादा है. ओवैसी ने बीजेपी के ही भगवंत राव को हराया है. ओवैसी की पार्टी को एक सीट महाराष्ट्र में भी मिली है. हैदराबाद और महाराष्ट्र के अलावा ओवैसी की नजर बिहार के कुछ इलाकों पर भी बराबर रहती है.

owaisi politics helps modiमोदी विरोध के नाम पर मददगार बनती सियासत

बिहार की किशनगंज सीट पर ओवैसी ने अख्तरुल ईमान को उम्मीदवार बनाया था जो तीसरे स्थान पर रहे. अब अख्तरुल इनाम की भूमिका जरा देखिये. मुस्लिम बहुल किशनगंज सीट पर कांग्रेस के मोहम्मद जावेद ने जेडीयू के सैयद महमूद अशरफ को हरा कर चुनाव जीत लिया. मोहम्मद जावेद को 33.32 फीसदी वोट मिले और अख्तरूल इनाम को 26.78 फीसदी. जेडीयू कैंडिडेट को 30.19 फीसदी वोट मिले थे - साफ है ओवैसी के उम्मीदवार ने कांग्रेस के ही वोट काटे. ओवैसी का उम्मीदवार का जीतना तो मुश्किल था, लेकिन अगर कांग्रेस उम्मीदवार को थोड़ कम वोट मिलते तो सीट आराम से बीजेपी के नेतृ्व वाले एनडीए के हिस्से में चली जाती.

असदुद्दीन ओवैसी की बातों से लगता तो ये है कि वो बीजेपी के कट्टर विरोधी हैं, लेकिन नतीजा अलग होता है. कई बार तो ओवैसी विरोध के नाम पर बीजेपी को डबल फायदा भी पहुंचा देते हैं. एक तो ओवैसी के बयान से बीजेपी सपोर्टर भड़क जाता है और एकजुट होकर पार्टी के पक्ष में बने माहौल का हिस्सा बन जाता है. ये समर्थन अक्सर वोट में ही तब्दील होता है. हैदराबाद को छोड़ कर मुस्लिम समुदाय में ओवैसी का ज्यादा असर तो नहीं होता, लेकिन इतना तो होता ही है कि विपक्ष के कुछ वोट कट जाते हैं - और बीजेपी को सीधा फायदा मिलता है.

असदुद्दीन ओवैसी ने एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोला है, 'अगर कोई ये समझ रहा है कि हिंदुस्‍तान के वजीर-ए-आजम 300 सीटें जीत कर हिंदुस्‍तान पर मनमानी करेंगे तो ये नहीं हो सकेगा. वजीर-ए-आजम से हम कहना चाहते हैं - संविधान का हवाला देकर कि असदुद्दीन ओवैसी आपसे लड़ेगा, मजलूमों के इंसाफ के लिए लड़ेगा.'

ओवैसी ने ये बातें स्वामी रामदेव की उस टिप्पणी के रिएक्शन में कहा है जिसमें योगी गुरु की सलाह रही कि 'तीसरे बच्चे से वोट देने का अधिकार छीन लेना चाहिये' ताकि आबादी पर काबू पाया जा सके. वैसे रामदेव की इस सलाह का केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने भी सपोर्ट किया था.

ओवैसी के बारे में सबसे सख्त टिप्पणी जम्मू कश्मीर से आने वाले कांग्रेस नेता सलमान निजामी की ओर से आयी है - भारतीय मुसलमान जानता है कि ओवैसी अंदर किस रंग के कपड़े पहनते हैं. सलमान निजामी ने चुनावों के दौरान कहा था, 'ये अंदर से भगवा हैं. सात विधायक वाले ओवैसी मुस्लिम बहुल सीटों पर उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर कांग्रेस को कुचल देना चाहते हैं... इससे बीजेपी को सीधी मदद मिलेगी.'

ओवैसी अकेले नहीं हैं, कतार में और भी हैं

मोदी विरोध की राजनीति कर खुद को मैदान में प्रासंगिक बनाये रखने वाले नेताओं में असदुद्दीन ओवैसी अकेले नहीं हैं. ऐसे नेताओं की फेहरिस्त लंबी है जो ऊपर से तो बीजेपी विरोधी लगते हैं - लेकिन अपनी हरकतों से अपने साथ साथ फायदा बीजेपी को भी पहुंचाते हैं.

1. प्रकाश अंबेडकर : बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के पौत्र प्रकाश अंबेडकर का हाल भी करीब करीब असदुद्दीन ओवैसी जैसा ही है. प्रकाश अंबेडकर अपनी पार्टी VBA यानी वंचित बहुजन आघाड़ी के बैनर तले महाराष्ट्र की सभी 48 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किये थे. अकोला और शोलापुर की दोनों सीटों से तो खुद भी चुनाव लड़े, लेकिन प्रकाश अंबेडकर एक भी सीट नहीं जीत पाये.

बीजेपी और शिवसेना को मिली कामयाबी और NCP-कांग्रेस गठबंधन की हार में भी प्रकाश अंबेडकर की बड़ी भूमिका मानी जा रही है. शरद पवार की पार्टी एनसीपी को चार और कांग्रेस के राज्य में महज एक सीट पर जीत संभव हो पायी.

महाराष्ट्र एनसीपी के अध्यक्ष जयंत पाटिल ने हार पर प्रतिक्रिया में कहा भी, 'लोकसभा चुनाव के शुरू में ही हमने वंचित बहुजन आघाड़ी से चर्चा की थी, लेकिन चर्चा के बीच में ही उन्होंने अपने उम्मीदवार घोषित कर दिये. हमारे साथ गठबंधन किए बगैर सभी 48 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किये. कुछ जगहों पर वंचित बहुजन आघाडी के उम्मीदवारों को अच्छे वोट मिले हैं... उसका नुकसान हमें उठाना पड़ा.'

किसान नेता राजू शेट्टी की चुनावी रैलियों में जुटने वाली भीड़ से उनके राजनीतिक विरोधी खासे परेशान थे, लेकिन वो भी हार गये - क्योंकि प्रकाश अंबेडकर नरेंद्र मोदी की बीजेपी के विरोध में चुनाव मैदान में डटे हुए थे.

2. राज ठाकरे : राज ठाकरे ने आम चुनाव सीधे सीधे तो नहीं लड़े लेकिन महाराष्ट्र भर में 10 रैलियां करके बीजेपी को हराने की अपील करते रहे. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने एक भी उम्मीदवार नहीं खड़ा किया था लेकिन राज ठाकरे की चुनावी रैलियां जरूर हो रही थीं. अपने मंच पर बड़ी स्क्रीन लगाकर राज ठाकरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पिछली सरकार की योजनाओं की खामियां गिनाते रहे. राज ठाकरे की रैलियों में भीड़ को देखते हुए बीजेपी भी कुछ देर के लिए घबरा गयी थी - और यहां तक कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को राज ठाकरे के आरोपों पर बयान देकर खंडन भी करना पड़ा.

दिलचस्प बात ये है कि जिन 10 इलाकों में राज ठाकरे की रैली हुई थी उनमें से 8 पर बीजेपी-शिवसेना ने शानदार जीत हासिल की.

2006 में शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाने वाले राज ठाकरे आज तक अपनी राजनीति की दशा और दिशा नहीं तय कर पाये. पहले गैर-मराठियों के विरोध की राजनीति के नाम पर उनके कार्यकर्ता उत्पात करते रहे - अब मोदी विरोध का एजेंडा बुलंद किये हुए हैं.

23 मई को जब चुनाव नतीजे आये तो राज ठाकरे की महज एक शब्द में ट्विटर पर प्रतिक्रिया आयी - 'अनाकलनीय'.

'अनाकलनीय' एक मराठी शब्द है जिसका हिन्दी में अर्थ है - रहस्यमय. लगता तो ऐसा ही है जैसे आम चुनाव ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का भविष्य भी 'अनाकलनीय' बना दिया है.

3. चंद्रशेखर आजाद रावण : यूपी में बीजेपी सरकार के खिलाफ दलितों की आवाज बुलंद करने के चलते भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद रावण तेजी से उभरे. जेल में होने के बावजूद चंद्रशेखर का नाम अक्सर चर्चा में रहा.

चंद्रशेखर की अहमियत ऐसे समझी जा सकती है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को तमाम कोशिशों के बावजूद जेल में उनसे मुलाकात न कर पाने का मलाल ही रहा - और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा तो मिलने के लिए मेरठ के अस्पताल ही पहुंच गयीं. मुलाकात का असर ये हुआ कि मायावती फौरन अखिलेश यादव को बुला कर राजनीतिक हालात की समीक्षा करने लगीं.

पहले तो चंद्रशेखर ने बातें भी बड़ी बड़ी की, लेकिन फिर टांय-टांय फिस्स हो गये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वाराणसी सीट पर चैलेंज करने की घोषणा के साथ बनारस जाकर रोड शो भी कर आये. बाद में पीछे हट गये. चंद्रशेखर की आखिरी राजनीति उपलब्धि सहारनपुर में कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद का सपोर्ट रहा. एक तो इमरान मसूद ज्यादा वोट नहीं जुटा पाये और दूसरे बीएसपी नेता फजलुर्रहमान मजबूत पड़े, वरना बीजेपी के मददगार होने का क्रेडिट तो मिल ही जाता.

4. जिग्नेश मेवाणी : गुजरात में ऊना दलित आंदोलन से राजनीति में आये और कांग्रेस की मदद से चुनाव जीतने वाले निर्दल विधायक जिग्नेश मेवाणी का हाल भी ओवैसी जैसे नेताओं से ही मिलता जुलता है. जिग्नेश मेवाणी पहले तो देश भर में घूम घूम कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध के नाम पर बड़े दलित नेता बनने की खूब कोशिश किये. मुहिम में जिग्नेश को गुजरात के युवा नेताओं हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर से भी खासा फायदा मिला - लेकिन देखते ही देखते तिकड़ी बिखर गयी.

मोदी विरोध की राजनीति को आगे बढ़ाने के नाम पर जिग्नेश मेवाणी पहले तो बेगूसराय में कन्हैया कुमार के चुनाव प्रचार में डटे रहे, बाद में दिल्ली पहुंच करा आप उम्मीदवार के लिए वोट मांगे. नतीजा ये रहा कि दोनों ही सीटें बीजेपी के हिस्से में ही आयीं - ये भी मोदी विरोध की राजनीति का ही एक नमूना है.

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