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Updated: 26 दिसम्बर, 2020 08:10 PM
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पश्चिम बंगाल चुनाव (West Bengal Election 2021) में भी कांग्रेस और वाम दल उस गठबंधन (Congress Left Alliance) का हिस्सा होंगी जो सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस को चैलेंज करेगा. बिहार में महागठबंधन को सिर्फ सत्ताधारी गठबंधन से जूझना पड़ा था क्योंकि बाकी सब तो वोटकटवा ही रहे. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और लेफ्ट को ममता बनर्जी के साथ साथ बीजेपी से अलग से मुकाबला करना होगा जो बिहार से अलग होगा. बिहार में बीजेपी सत्ताधारी गठबंधन एनडीए के बैनर तले चुनाव लड़ी थी. हालांकि, आरजेडी से महज एक सीट कम आने के कारण सबसे बड़ी पार्टी नहीं बन सकी.

बिहार चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर राहुल गांधी को बड़े ताने सुनने पड़े हैं. महागठबंधन की अगुवाई करने वाली आरजेडी के नेता तो राहुल गांधी को पानी पी पीकर कोस रहे हैं, लेफ्ट नेताओं का भी मानना है कि अगर कांग्रेस के हिस्से की कुछ और सीटें उनको मिल गयी होतीं तो बीजेपी के बाद सीटें उनकी ही सबसे ज्यादा होतीं.

सबसे खास बात तो ये है कि पश्चिम बंगाल के साथ ही केरल में भी विधानसभा के चुनाव होने हैं और वहां कांग्रेस और लेफ्ट एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने जा रहे हैं - और केरल चुनाव में अगर किसी की सबसे ज्यादा दिलचस्पी होगी तो वो हैं - कांग्रेस नेता राहुल गांधी. राहुल गांधी फिलहाल केरल के वायनाड से ही सांसद हैं.

कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन TMC या BJP के खिलाफ?

पश्चिम बंगाल को लेकर तो पहले से ही साफ था कि कांग्रेस का ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के साथ चुनावी समझौता नहीं होने वाला है - और ये इसलिए नहीं कि 2019 के आम चुनाव में ऐसा नहीं हुआ था, बल्कि इसलिए क्योंकि अधीर रंजन चौधरी को कांग्रेस नेतृत्व ने सूबे में पार्टी की कमान सौंप दी थी. ये अधीर रंजन चौधरी ही रहे जो 2011 में भी कांग्रेस के टीएमसी के साथ गठबंधन के कट्टर विरोधी रहे, लेकिन तब केंद्र की सत्ता पर काबिज कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने उनकी एक न चली. जब साल भर बाद ही ममता बनर्जी ने केंद्र की यूपीए सरकार से कई मसलों को लेकर अपना समर्थन वापस ले लिया तो सबसे ज्यादा खुश कांग्रेस नेताओं में पहले नंबर पर अधीर रंजन चौधरी ही रहे.

अधीर रंजन चौधरी को 2019 के आम चुनाव के बाद कोलकाता से दिल्ली बुलाया गया और लोक सभा में कांग्रेस का नेता बनाया गया - और उसकी बड़ी वजह ये रही कि मल्लिकार्जुन खड्गे कर्नाटक से लोक सभा चुनाव हार गये थे. साथ ही, अमेठी में राहुल गांधी के चुनाव हार जाने के बाद कांग्रेस को कोई ऐसा नेता चाहिये था कि वो बीजेपी के हमलों का काउंटर कर सके. ये तो मानना पड़ेगा कि अपने बयानों से अधीर रंजन चौधरी ने कांग्रेस नेतृत्व की उम्मीदों से कई गुना ज्यादा ही अलग प्रदर्शन किया.

इससे पहले हुए 2016 के विधानसभा चुनाव में भी दोनों पार्टियों ने साथ मिल कर लड़ा था, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में वे अलग अलग उम्मीदवार खड़े किये. 2019 में कांग्रेस को तो दो सीटें मिलीं भी, लेकिन लेफ्ट का तो खाता भी नहीं खुल सका. पश्चिम बंगाल की 40 सीटों पर हुए चुनाव में सबसे ज्यादा फायदे में बीजेपी रही जिसने 18 सीटें झटक कर ममता बनर्जी को 22 सीटों पर समेट दिया था.

sonia gandhi, siraram yechury, d rajaकांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन को सबसे पहले तो अपना दुश्मन नंबर 1 खोजना होगा, तभी आगे बढ़ना ठीक रहेगा.

अभी तो चुनाव में करीब छह महीने का वक्त है और कांग्रेस-लेफ्ट का गठबंधन समय रहते हो गया है, लेकिन 2016 में ये बिलकुल आखिरी दौर में फाइनल हो पाया था. तब तक चुनावों की घोषणा भी हो चुकी थी. नतीजा ये हुआ कि पहले से तैयारियों के चलते कांग्रेस और लेफ्ट दोनों के उम्मीदवार करीब दो दर्जन सीटों पर एक दूसरे के खिलाफ भी चुनाव लड़े. कांग्रेस की सीटें ज्यादा आने के पीछे वजह ये मानी गयी कि लेफ्ट का वोट उसे तो मिल गया लेकिन कांग्रेस का वोट लेफ्ट को ट्रांसफर नहीं हो पाया. 2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को 211, कांग्रेस को 44, लेफ्ट को 32 और बीजेपी को महज दो सीटें हासिल हो पायी थीं.

बिहार महागठबंधन की तरफ से बेहतरीन प्रदर्शन करने वाली सीपीआई-एमएल के नेता दीपांकर भट्टाचार्य कांग्रेस के साथ गठबंधन के पक्ष में नहीं थे. वो चाहते थे कि वाम दलों को ममता बनर्जी के साथ मिल कर बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहिये.

दीपांकर भट्टाचार्य ने ये समझाने की कोशिश की थी कि उनके सामने दो दुश्मन हैं - ममता बनर्जी और बीजेपी, लेकिन पहले ये तय कर लेना चाहिये कि कौन खतरनाक दुश्मन है? जो ज्यादा खतरनाक लगे उसके खिलाफ रणनीति तैयार करनी चाहिये.

पश्चिम बंगाल के लेफ्ट नेताओं ने दीपांकर भट्टाचार्य के सुझावों को सिरे से ये कहते हुए खारिज कर दिया कि बिहार और पश्चिम बंगाल के राजनीतिक मिजाज के बुनियादी फर्क को वो नहीं समझते - दरअसल, राज्य में बीजेपी के उभार के लिए पश्चिम बंगाल कांग्रेस और लेफ्ट के नेता ममता बनर्जी को भी जिम्मेदार ठहराते रहे हैं.

पश्चिम बंगाल में लेफ्ट की एक मुश्किल ये भी रही कि अगर वो ममता बनर्जी के साथ चुनाव मैदान में कूदने को तैयार हो जाते तो कांग्रेस का साथ नहीं मिलता - क्योंकि अधीर रंजन चौधरी तो ममता बनर्जी के पुराने और कट्टर विरोधी रहे हैं. अब जबकि गठबंधन फाइनल हो गया है, देखना होगा कांग्रेस और लेफ्ट दुश्मन नंबर 1 बीजेपी को मानते हैं या बीजेपी को?

बंगाल में बिहार जैसा कोई चेहरा नहीं होगा

बिहार और पश्चिम बंगाल में पहला और बड़ा फर्क तो यही होने जा रहा है कि कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन के पास ममता बनर्जी के मुकाबले मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं होगा - बिहार में ये भूमिका तेजस्वी यादव निभा रहे थे.

कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी (Adhir Ranjan Chowdhury) के अनुसार, लेफ्ट के साथ उनका गठबंधन बगैर मुख्यमंत्री पद के चेहरे के चुनाव लड़ेगा. बीजेपी भी ऐसा ही कर रही है और मुख्य चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही होंगे. बाकी अमित शाह ने जनरलों में मुकुल रॉय के साथ अब शुभेंदु अधिकारी भी अपने इलाके में बीजेपी का चेहरा बनेंगे.

अव्वल तो पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में मुख्य तौर पर असली लड़ाई ममता बनर्जी और बीजेपी में ही है, लेकिन कांग्रेस और लेफ्ट के बीच गठबंधन बन जाने से इसे त्रिकोणीय मुकाबला समझा जाने लगा है - लेकिन AIMIM वाले असदुद्दीन ओवैसी को पूरी तरह नजरअंदाज करना भी ठीक नहीं लगता. बिहार चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने जिस तरीके से प्रदर्शन किया है, आगे के लिए उनकी उम्मीदें बढ़ना लाजिमी हैं.

असदुद्दीन ओवैसी को महज इसलिए अहमियत नहीं मिलनी चाहिये कि बिहार चुनाव में वो 5 सीटें जीतने में कामयाब रहे, बल्कि ये समझने की कोशिश करनी चाहिये कि क्या मुस्लिम समुदाय असदुद्दीन ओवैसी को अपने नेता के तौर पर देखने लगा है. पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट निर्णायक स्थिति में है और ममता बनर्जी की एक बड़ी ताकत भी. लेफ्ट के लंबे शासन के पीछे भी मुस्लिम वोट बैंक को प्रमुख फैक्टर माना जाता रहा है. अब असदुद्दीन ओवैसी पश्चिम बंगाल के मुस्लिम समुदाय को नया विकल्प देने जा रहे हैं.

वैसे असदुद्दीन ओवैसी ने पहले ममता बनर्जी को ही AIMIM के साथ गठबंधन करने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन वो तत्काल ही खारिज भी हो गया. उसके बाद तो यही समझा जा रहा है कि मुस्लिम वोट का जो बंटवारा अलग अलग इलाकों में तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और लेफ्ट के बीच होता - अब हर इलाके में एक अलग हिस्सेदार खड़ा होगा. ये नया हिस्सेदार जहां भारी पड़ा वहां तो सीट ही ले लेगा और जहां कमजोर पड़ा वहां भी मुस्लिम वोटों के दावेदारों को डैमेज करेगा और उसका सीधा फायदा बीजेपी को मिलेगा. यही वजह है कि तृणमूल नेताओं ने पहले से ही AIMIM को बीजेपी की बी-टीम करार दिया है.

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो हमेशा ही चाहती रही हैं कि कांग्रेस भले ही टीएमसी के साथ गठबंधन न करे, लेकिन लेफ्ट के साथ न जाये. मतलब, विरोध में चुनाव न लड़े क्योंकि दोनों के वोट बैंक आपस में टकराएंगे और तीसरे यानी बीजेपी को सीधा फायदा मिल जाएगा.

लेकिन कांग्रेस की चिंता अलग लग रही है. लगता है अधीर रंजन चौधरी को भी वही डर सता रहा होगा जो आम चुनाव के दौरान दिल्ली को लेकर शीला दीक्षित को रहा - अरविंद केजरीवाल के खिलाफ सत्ता विरोधी फैक्टर होने का, जिसके चलते कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन नहीं हो सका - शायद इसीलिए लोक सभा में कांग्रेस का नेता होने के बावजूद अधीर रंजन चौधरी को पश्चिम बंगाल भेजना भी कांग्रेस नेतृत्व को अच्छा लगा होगा.

मुद्दे की बात अब ये है कि बिहार के मुकाबले पश्चिम बंगाल में कांग्रेस लेफ्ट के साथ मिल कर बेहतर प्रदर्शन करेगी या खराब?

ये कई बातों पर निर्भर करेगा. गठबंधन को अपनी रणनीति इस हिसाब से बनानी होगी कि वो सबसे बड़ी चुनौती ममता बनर्जी को मानता है या बीजेपी को - अगर ममता बनर्जी को ही बड़ा चैलेंज मानता है तो ये बीजेपी के लिए फायदेमंद होगा, लेकिन अगर बीजेपी को मानता है तो वोटकटवा बन कर ममता के लिए लाभदायक हो सकता है - और अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन को पहले से ही मान लेना चाहिये कि उसका मुकाबला ममता बनर्जी या बीजेपी से नहीं, बल्कि असदुद्दीन ओवैसी से होने जा रहा है.

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