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Updated: 16 नवम्बर, 2015 06:47 PM
महेश पेरी
महेश पेरी
  @peri.maheshwer
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'प्रधानमंत्री मोदी, क्या मैं पूछ सकता हूं: कल रात को वेम्बले स्टेडियम में आपका जोरदार स्वागत होगा. लेकिन वहां बाहर बड़ी संख्या में लोग आपके खिलाफ प्रदर्शन भी कर रहे हैं... मैं सोच रहा हूं कि आप उनसे क्या कहेंगे... गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर आपके रिकॉर्ड को देखते हुए, आप उस सम्मान के हकदार नहीं हैं जो सामान्यतया दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता के लिए होता है.' 

यह सवाल 'द गार्डियन' के संवाददाता निकोलस वाट ने लंदन में मोदी और कैमरन के प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान पूछा था. वास्तव में, निकोलस वाट ने एक नहीं बल्कि दो सवाल पूछे थे, दूसरा सवाल कैमरन से था कि वह गुजरात के 'मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी के रिकॉर्ड' को देखने के बावजूद उनका स्वागत करते हुए कितना 'सहज' महसूस कर रहे हैं.

अक्सर इस स्तर पर होने वाली प्रेस वार्ताएं महज एक औपचारिक आयोजन होती हैं, जहां सब कुछ पूर्वनियोजित रहता है. हजारों रिपोर्टर इस इवेंट में शामिल होना चाहते हैं लेकिन उनमें से सैंकड़ों को ही यह मौका मिलता है, हर कोई सवाल पूछना चाहता है लेकिन कुछ को ही इजाजत मिलती है. और यह तो दुर्लभ ही है कि कोई एक नहीं बल्कि दो सवाल पूछे. लेकिन वाट को अपनी बात अपनी तरह से कहने की इजाजत मिल गई! प्रेस कॉन्फ्रेंस में नियम तय होते हैं- संक्षेप में पूछिए, टू द प्वाइंट पूछिए और निजी मत होइए. और मेरी नजर में गार्डियन के इस संवाददाता ने प्रोफेशनल और पर्सनल के बीच की लाइन को पार किया और एक बेहतरीन मौका गंवा दिया.

संपादकों से यह बात अपेक्षित है कि उनके पास ऐसे स्तंभकार हों जिनका लेखन प्रकाशक के नजरिए के करीब हो. संपादक परोक्ष रूप से ये लड़ाई लड़ते हैं, लेकिन शायद ही कभी संवाददाताओं को अपनी कड़वाहट जाहिर करने के लिए आगे करते होंगे, खासकर भारत के प्रधानमंत्री जैसे स्‍तर के मेहमान के आगे. मोदी यहां बीबीसी के शो 'हार्ड टाक' या 'द गार्डियन' के साथ किसी खास इंटरव्यू के लिए तो आए नहीं थे. यह एक औपचारिक प्रेस कॉन्फ्रेंस थी.

निकोलस वाट का सवाल कम, और बयान ज्यादा था. वह बाहर प्रदर्शन कर रहे लोगों में से एक बन गए, लेकिन उनके साथ अन्याय भी किया. कुछ लोग ऐतिहासिक गलतियों के खिलाफ लड़ रहे थे, तो कुछ, जैसे कि नेपाल से आए लोग हाल ही में हुए अन्याय के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे. यह एक संवाददाता का काम है कि वह ऐसा सवाल पूछे जिसमें जवाब मिले और संभावित एक्शन की बात भी हो. अगर सवाल सोचा-समझा होता, तो इससे एक प्रतिक्रिया मिल सकती थी, मुद्दे के बारे में देखने और उसे सुलझाने का वादा मिल सकता था. पाठक संवाददाता के विचारों को पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि उनके सवालों से मिलने वाली प्रतिक्रिया पाने के लिए पैसे देते हैं, जो कि महत्वपूर्ण हैं. हालांकि गार्डियन ने पंकज मिश्रा, अनीश कपूर और अन्य लोगों के कॉलमों से अपना मत स्पष्ट कर दिया. हर एक कॉलम नफरत से भरा पड़ा था.

अगर मैं एक संवाददाता होता, तो मुझे प्रधानमंत्री की कमजोरियां और ताकत पता होतीं और मैं इस तरीके से सवाल करता जिससे उनकी प्रतिक्रिया मिल सके. मैं उनसे पूछता:

'प्रधानमंत्री मोदी, कल आपका वेम्बले में जबर्दस्त स्वागत होगा लेकिन अभी बाहर बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी मौजूद हैं जिनमें मुस्लिम, सिख और नेपाली लोग हैं. ये आपसे समाधान की उम्मीद रखते हैं. क्या आपके पास ऐसी कोई योजना है जो उनकी परेशानियों का समाधान करे?'

मोदी शायद सबसे आसान जवाब को चुनते, शायद नेपाली या सिखों के बारे में. एक बयान देते, समाधान की बात करते. याद रखिए, हमारे प्रधानमंत्री लोगों के बीच बड़ी-बड़ी घोषणाएं करना पसंद करते हैं. 

...लेकिन ऐसा हो न सका. और गार्डियन के संवाददाता एक अच्छा प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहे. उसने निजी पक्षपात को प्रोफेशनल मापदंडों से ऊपर तरजीह दी. और असरदार प्रभाव छोड़ने का एक शानदार मौका गंवा दिया. उसकी मूल प्रवृत्ति जीत गई और द गार्डियन के पाठक हार गए. अगर मैं संपादक होता, तो इस शानदार मौके को गंवाने के लिए उसे नौकरी से निकाल देता!

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लेखक

महेश पेरी महेश पेरी @peri.maheshwer

लेखक उद्यमी हैं और एजुकेशन हब careers360 के संस्थापक हैं.

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