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Updated: 12 दिसम्बर, 2019 06:43 PM
अमित मालवीय
अमित मालवीय
  @amitmalviya
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अयोध्या विवाद (Ayodhya Case) पर माननीय उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय के बाद ये प्रमाणित हो गया कि संत समाज, करोड़ों रामभक्तों व विभिन्न संगठनों के साथ भारतीय जनता पार्टी के संघर्ष के फलस्वरूप ही श्री राम जन्मभूमि विवाद निर्णायक मोड़ पर पहुंच सका. यह अयोध्या में रामलला का एक भव्य मंदिर (Ram Mandir) बनाने के लिए किए गए अथक संघर्ष का एक पक्ष है, लेकिन दूसरे पक्ष का अवलोकन भी जरूरी है. दूसरा पक्ष यह कि जिस राजनीतिक दल का देश की सत्ता (Congress) पर सबसे लंबे समय तक शासन रहा, आखिर उसकी तरफ से अयोध्या विवाद के समाधान के लिए कितने और किस तरह के प्रयास किए गए.

1947 में भारत की आजादी के साथ देश बड़ी आशा से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) की तरफ देख रहा था. देश को विश्वास था कि सदियों से मुगल-ब्रिटिश आक्रांताओं की दास्तां सहते हुए जीर्ण-शीर्ण हुई भारत की 5000 साल से भी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों का पुनरोद्धार, उनकी पुनर्स्थापना का कार्य प्रारंभ होगा. सोमनाथ मंदिर के पुनरोद्धार के लिए तो वरिष्ठ मंत्री के.एम. मुंशी और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने प्रयास शुरू भी कर दिए थे. नेहरू इस पर असहमति व्यक्त करेंगे, इसकी किसी को अपेक्षा नहीं थी. इतिहास इस बात का भी साक्षी है कि नेहरू ने मुंशी को रोकने का प्रयास किया. देश के लिए इससे दुखद क्या हो सकता है कि सांस्कृतिक धरोहरों की पुनर्स्थापना को लेकर स्वतंत्र भारत के नीति नियंताओं के बीच ही मतभेद थे.

Ayodhya Case Ram Mandir issueभाजपा का आरोप है कि कांग्रेस ने राम मंदिर पर सिर्फ राजनीति की है.

नेहरू ने सरदार पटेल से भी अप्रसन्नता व्यक्त की और इतना ही नहीं, उन्होंने राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भी मंदिर में लिंगम के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में जाने से मना करना चाहा. सबसे दुखद है कि उन्होंने पकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को भी पत्र लिखकर अफगानिस्तान से सोमनाथ मंदिर के दरवाजे भारत वापस मंगवाने की बातों को निराधार बताया और भरोसा भी दिलाया कि ऐसा कुछ नहीं होगा. जरा सोचिए... जिस नेतृत्व पर, जिस दल पर देश की सांस्कृतिक विरासत और धरोहरों को सजाने-संवारने और संरक्षित करने का दायित्व था, क्या उससे हिंदुओं की आस्था की उपेक्षा अपेक्षित थी?

सरदार पटेल और केएम मुंशी के प्रयासों से सोमनाथ का जीर्णोद्धार शुरू हुआ तो आयोध्या में भारत की आस्था के केंद्र बिंदु रहे भगवान राम का भव्य मंदिर बनाने की भावना भी प्रबल होने लगी. 1949 में श्री रामजन्मभूमि पर बने विवादित ढांचे के गर्भगृह में रामलला की मूर्ति प्रकट हुई. इस पर प्रधानमंत्री नेहरू का रवैया हिंदू समाज को छुब्ध करने वाला था. उन्होंने तत्काल मूर्ति को वहां से हटाने का आदेश दे दिया. यूनाइटेड प्रोविंस (अब उत्तर प्रदेश) के मुख्यमंत्री जी.बी. पंत थे, उन्होंने नेहरू को बताया कि यह मामला राष्ट्रीय है, लेकिन नेहरू के दवाब में श्री राम जन्मभूमि परिसर पर ताला लगा दिया गया. ये बात अलग है कि स्थानीय अदालत के फैसले के बाद एक पुजारी को वहां रामलला की पूजा करने की अनुमति दे दी गई.

नेहरू को शायद यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने फैज़ाबाद जिला मजिस्ट्रेट श्री के. के. नायर को पत्र लिखकर अपनी नाराजगी जाहिर की. श्री नायर इस बात से इतना आहत हुए कि उन्होंने प्रधानमंत्री को जवाब देने की जगह उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को अपना इस्तीफा भेज दिया. फिर से ढांचे के बाहर ताला लगवा दिया गया. इसके बाद, कांग्रेस ने सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए भगवान राम में जनमानस की आस्था का राजनीतिक इस्तेमाल किया.

1985 में शाह बानो के तीन तलाक केस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संसद में अपने संख्याबल का दुरुपयोग करते हुए पलट दिया. वजह स्पष्ट थी कि उन्हें समुदाय विशेष के वोटबैंक की रक्षा करनी थी. फिर जब लगा कि देश का बहुसंख्यक समुदाय इससे व्यथित होगा तो अचानक कांग्रेस का भगवान राम के प्रति अनुराग जाग उठा और विवादित ढांचे के द्वार राजीव गांधी सरकार ने पूजा के लिए खुलवा दिए. लेकिन जब हिंदू संगठनों, संत समाज और देशभर के करोड़ों रामभक्तों ने श्री राम जन्मभूमि पर शिलान्यास का संकल्प लिया तो कांग्रेस की सोच फिर प्रमाणित हो गई. उत्तर प्रदेश में सरकार कांग्रेस की ही थी. राज्य सरकार ने 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ से हिंदू संगठनों द्वारा प्रस्तावित श्री राम जन्मभूमि स्थल पर शिलान्यास को रोकने की मांग की.

1989 के लोकसभा चुनाव करीब थे. ऐसे भी प्रसंग हैं कि राजीव गांधी को चुनाव प्रचार की शुरुआत किसी दूसरे राज्य से करनी थी, लेकिन बहुसंख्यक समाज को रिझाने और शाह बानो मामले पर उनके निर्णय से हुई छति की भरपाई करने के लिए उनका रथ अयोध्या पहुंच गया. कहीं न कहीं यह कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति से प्रेरित था क्योंकि कभी इन पौराणिक स्थलों के इतिहास पर कोई विवाद नहीं रहा और यह स्पष्ट था कि पहले मुगलों और बाद में अंग्रेजी हुकूमत के अधीन हिंदू धर्म प्रतीकों को सुनियोजित तरीके से चोट पहुंचाई गई थी.

श्रीराम मंदिर मामले को अटकाने, लटकाने और उलझाने का कांग्रेस सरकार का सिलसिला जारी था. 1989 में उन्होंने एक और व्यूह रचा. जब श्री राम मंदिर के लिए शिलापूजन में करोड़ों लोग शामिल हो रहे थे तब केंद्रीय गृह मंत्री बूटा सिंह ने लोकसभा में शिलान्यास के विरुद्ध एक प्रस्ताव पेश किया, जिसे अधिकतर गैर भाजपा दलों ने स्वीकार कर लिया. हालांकि, जनभावना के आगे सरकार को झुकना पड़ा और भूमि का शिलान्यास तय तिथि को संपन्न हुआ.

बोफोर्स दलाली घोटाले के साये में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय हुई और वीपी सिंह के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनी. उनका रुख भी कांग्रेस सा ही था. भाजपा अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी जब सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ यात्रा पर निकले तो केंद्र सरकार ने अलोकतांत्रिक रवैया अपनाना शुरू कर दिया. आडवाणीजी, अटलजी समेत कई भाजपा नेताओं के साथ हजारों रामभक्तों को गिरफ्तार कर लिया गया. उत्तर प्रदेश में मुलायम सरकार ने तो कारसेवकों पर गोली तक चलवा दी जिसमें 50 कारसेवकों की जान चली गयी. आंसू गैस छोड़ी गई और लाठीचार्ज में हज़ारों रामभक्त घायल भी हुए.

1991 के मध्यावधि चुनावों तक गैर-भाजपा दलों ने राम जन्मभूमि को विवादित बना दिया था. इसमें कांग्रेस सबसे प्रमुख दल के रूप में थी. भाजपा ही अकेली ऐसी पार्टी थी जो राममंदिर के स्थायी समाधान के लिए चुनाव लड़ रही थी. इसी बीच कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने धर्म की पुनर्स्थापना में जुटे करोड़ों कारसेवकों को छुब्ध करने का एक और कुत्सित प्रयास किया. कांग्रेस सरकार प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 के रूप में एक ऐसा कानून लाई जिसके अनुसार अगर कोई धार्मिक इमारत 15 अगस्त, 1947 को मस्जिद, मंदिर या गिरजाघर के रूप में स्थापित थी, तो उस पर दूसरे धर्म का कोई अधिकार नहीं होगा. इसका मतलब एकदम स्पष्ट था. आक्रांताओं द्वारा देश के कई विख्यात मंदिर व देव जन्म स्थानों को तोड़कर बनाए गए विवादित ढांचों को मंदिर में कभी नहीं बदला जा सकेगा. क्योंकि अयोध्या पर पहले ही मामला न्यायालय में विचाराधीन था, इसलिए उसे एक्ट से बाहर रखा गया था. यह भारत की 5000 साल से भी पुरातन सांस्कृतिक विरासत पर किसी कुठाराघात के कम नहीं था.

अब आम जनता भी कांग्रेस सरकार से छुब्ध होने लगी थी. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा को जनादेश मिला. मुख्यमंत्री कल्याण सिंह श्री राम जन्मभूमि का न्यायोचित हल निकालने के लिए प्रयासरत थे, पर तत्कालीन गृह मंत्री शंकरराव चव्हान ने प्रदेश सरकार को कहा कि उन्हें धारा 356 के तहत बर्खास्त किया जा सकता है. भाजपा अपने निर्णय पर अटल थी और कल्याण सिंह का जवाब साफ था, ‘सरकार रहे या जाये...मंदिर जरूर बनेगा.’

आखिरकार 6 दिसंबर, 1992 को केंद्र सरकार और कांग्रेस के रवैये से छुब्ध कारसेवकों ने ढांचा गिरा दिया जिसके बाद नरसिम्हा राव सरकार ने भाजपा की उतर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश सरकारों को बगैर कोई कारण दिए बर्खास्त कर दिया. आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दशकों से भगवान राम के मंदिर के लिए प्रयासरत करोड़ों रामभक्तों के घाव कुरेदते हुए पीएम नरसिम्हा राव और सूचना एवं प्रसारण मंत्री राजेश पायलट ने यह भी ऐलान कर दिया कि फिर से वहां बाबरी मस्जिद बनवाई जाएगी.

अयोध्या मामले को कांग्रेस द्वारा सबसे ज्यादा भ्रमित 7 जनवरी, 1993 को किया गया. कांग्रेस ने राष्ट्रपति के जरिए एक अध्यादेश लाकर श्री राम जन्मभूमि का बंटवारा करने का प्रयास किया. हालांकि, कांग्रेस का यह कुटिल प्रयास भी विफल हुआ पर कांग्रेस रुकी नहीं. श्री राम जन्मभूमि को सांप्रदायिक विवाद कहकर दुष्प्रचार किया जाने लगा. कांग्रेस के नेताओं ने भगवान राम और रामायण के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने शुरू कर दिए.

सोनिया गांधी ने 1998 में राजनीति में आधिकारिक तौर पर कदम रखा तो उनके भाषणों में भी भगवान राम नदारद थे. सोनिया ने हैदराबाद के मुस्लिम बहुल इलाके में आयोजित एक रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि अगर गांधी परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री रहा होता तो ढांचा कभी नहीं गिरता. इतना ही नहीं, राजीव गांधी का भी यह मानना था कि अगर बाबरी मस्जिद को हाथ लगाने के प्रयास हुए तो लोगों को पहले उनका सामना करना पड़ेगा.

साल 2004 में देश की कमान संभालते ही यूपीए सरकार ने राम सेतु तोड़ने के आदेश दे दिए. कांग्रेस के नेताओं सहित उनके सहयोगी दलों ने भी भगवान राम का उपहास किया यूपीए सरकार में साथी दल डीएमके के प्रमुख एम. करुणानिधि ने भगवान राम के अस्तित्व को नकारते हुए कहा था, ‘अगर राम हुए थे तो उन्होंने किस विश्वविद्यालय से इंजीनियर की डिग्री ली थी?’ इतना ही नहीं, 2007 में कांग्रेस सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा देकर कहा था कि राम, सीता, हनुमान और वाल्मीकि काल्पनिक किरदार हैं, इसलिए रामसेतु का कोई धार्मिक महत्व नहीं माना जा सकता है. राहुल गांधी ने भी अप्रैल 2007 में विधानसभा चुनाव के पहले एक सभा को संबोधित करते हुए ठीक वही बात कही, जो उनकी मां सोनिया हैदराबाद की सभा में कह चुकी थीं.

ऐसा साफ प्रतीत हो रहा था कि उच्चतम न्यायालय में अयोध्या विवाद अटका रहे, इसके लिए कांग्रेस हरसंभव प्रयास कर रही है. शायद यही वजह थी कि कांग्रेस नेता और केंद्रीय मंत्री रह चुके कपिल सिब्बल ने उच्चतम न्यायालय में अयोध्या विवाद का केस 2019 के लोकसभा चुनाव तक टालने की अपील की थी.

कांग्रेस के लिए भगवान राम काल्पनिक हो सकते हैं, लेकिन देश के बहुसंख्यक हिंदू समाज की आस्था को चोट पहुंचाना कतई सही नहीं ठहराया जा सकता. फिर भी कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने भगवान राम और श्री राम जन्मभूमि का मज़ाक बनाते हुए कहा, ‘राजा दशरथ बहुत बड़े राजा थे, उनके महल में 10 हजार कमरे थे, लेकिन भगवान राम किस कमरे में पैदा हुए ये बताना बड़ा ही मुश्किल है. इसलिए ये दावा करना कि राम वहीं पैदा हुए थे, यह ठीक नहीं है.’

हालांकि, हमने तो हमेशा ही माना है कि होइहै वही जो राम रचि राखा और आखिरकार वही हुआ भी. अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण की योजना पर जल्द ही काम होगा और कुछ वर्षों में अयोध्या का दीपोत्सव दुनिया के विशिष्टतम कार्यक्रमों में से एक होगा और हमारी संस्कृति का प्रतीक बनेगा. और जब भारत का गौरव बढ़ेगा तब हमें यह भी याद रहेगा कि कांग्रेस, जिसने देश में सबसे लंबे समय तक शासन किया है, उसने कैसे हमारी आत्मा और आस्था को चोट पहुंचाने का निरंतर प्रयास किया है.

(लेखक भाजपा आईटी सेल के प्रमुख हैं)

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