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Updated: 02 दिसम्बर, 2015 05:20 PM
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यूपी से पहले हर किसी के लिए असम सबसे अहम है, इसलिए बीजेपी के लिए भी. असम को लेकर तो बीजेपी ने इरादा जाहिर कर दिया है, लेकिन यूपी? अभी पूरी पिक्चर बाकी है. जो बाकी है उसमें भी आधी हकीकत आधा फसाना ही नजर आ रहा है.

दोराहे पर

राहत की बात इतनी ही है कि बीजेपी चौराहे पर नहीं बल्कि दोराहे पर खड़ी है. एक रास्ता असम के रास्ते अयोध्या की ओर जाता है, तो दूसरा दलितों के घरों की ओर. बीजेपी को इस बात की परवाह नहीं कि राहुल गांधी दलितों के घर कितनी बार जाते हैं, उसे फर्क पड़ता है कि क्या दलित फिर से मायावती को ही नेता मानने लगे हैं? चाहे राहुल गांधी हों या मुलायम सिंह, मायावती सभी के लिए खतरनाक प्रतिद्वंद्वी हैं.

बीजेपी के पास एजेंडा तय करने के लिए तो काफी वक्त है, लेकिन सूबे में पार्टी की कमान सौंपने का टाइम नजदीक आ गया है. लक्ष्मीकांत वाजपेयी को बनाए रखना है या नया नेतृत्व चुनना है, ये दिसंबर में ही तय हो जाना है.

पहले दिल्ली और फिर बिहार चुनाव में मिली शिकस्त के बाद बीजेपी को एक ऐसे चेहरे की तलाश है जो हर पैरामीटर में फिट बैठता हो. यही सबसे बड़ा संकट है. यूपी बीजेपी अध्यक्ष पद की रेस में कई हैं. होगा वही जो मंजूर-ए-मोदी-शाह होगा.

कमान की रेस

चर्चा में तो कई नाम हैं. प्रमुख रूप से सात बताए जा रहे हैं और उनमें सबसे ऊपर दो नाम हैं - मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री राम शंकर कठेरिया और पर्यटन मंत्री महेश शर्मा.

महेश शर्मा पर गौर करें तो वो बीजेपी के हिंदूवादी एजेंडे की राह दिखाते हैं. दादरी के मामले में उन्होंने बीजेपी का डिफेंसिव नहीं बल्कि हमलावर तेवर के साथ बचाव किया. कई मौकों पर तो वो योगी आदित्यनाथ और साक्षी महाराज को भी मात देते नजर आए. हिंदू चेहरे की बात करें तो बीजेपी पहले विनय कटियार को भी कमान थमा चुकी है. उनके साथ कॉम्बो ऑफर ये रहता है कि वो पिछड़े वर्ग से आते हैं.

राम शंकर कठेरिया की बात करें तो वो पश्चिम यूपी से हैं और संगठन के आदमी माने जाते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनका प्रभाव है और वो लगातार चुनाव जीतते आए हैं. नये दौर में कठेरिया का कद लगातार बढ़ते भी देखा गया है. पहले उन्हें बीजेपी का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया और उसके बाद केंद्र में मंत्री.

आगरा यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रह चुके कठेरिया बीजेपी और आरएसएस के साथ अच्छे रैपो के अलावा दलित समुदाय से होने के कारण मायावती को अच्छी टक्कर दे सकते हैं. महेश शर्मा के मुकाबले यहीं पर वो बीस पड़ते हैं.

चर्चाएं फाइनल कॉल तो नहीं होती लेकिन संभावित आग के धुएं का संकेत तो दे ही देती हैं. ऐसी चर्चा तो कठेरिया की सीनियर स्मृति ईरानी को लेकर भी है. स्मृति का ताबड़तोड़ अमेठी दौरा और राहुल गांधी के प्रति मोर्चा संभाले रखना इन चर्चाओं को बल भी देता है. क्या पता कल बीजेपी को यूपी के लिए सबसे सुटेबल चेहरा भी उन्हीं में दिखने लगे. वैसे बाहर से आकर अमेठी लोक सभा सीट पर ईरानी जिस तरह राहुल गांधी को चुनौती दी थी वो मामूली नहीं थी. कई बीजेपी नेताओं को मलाल रहता है कि ठीक से मैनेज किया जाता तो सीट निकाली भी जा सकती थी. ख्याल बुरा नहीं था. ऐसे ग्लैमरस नामों के अलावा कुछ गुमनाम नेता भी चर्चाओं का हिस्सा हैं. कट्टर हिंदूवादी छविधारी पिछड़े वर्ग की नेता साध्वी निरंजन ज्योति, लखनऊ के मेयर और पार्टी उपाध्यक्ष दिनेश शर्मा, प्रदेश महामंत्री स्वतंत्र देव सिंह, प्रकाश पाल, अनुपमा जायसवाल, धर्मपाल सिंह लोधी, केशव प्रसाद मौर्य जैसे नामों का जिक्र चलता रहा है.

वैसे ऐसी चर्चाएं तब खत्म हो जाती हैं जब मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेयी का जिक्र आता है. अखिलेश सरकार पर करारा प्रहार और समाजवादी पार्टी के मुस्लिम फेस आजम खान के साथ उनकी जबानी जंग भी खासी चर्चित रही है. लोक सभा चुनाव से अगर मोदी लहर को माइनस कर दें तो जीत का सेहरा थोड़ी देर के लिए ही सही सिर पर रखने के हकदार तो वो भी बनते हैं.

यूपी में बीजेपी की कमान किसे सौंपी जा रही है, इससे एजेंडे का आधा हिस्सा साफ हो जाएगा. बचा हुआ हिस्सा असम चुनाव के नतीजे तय करेंगे.

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