क्या ज्ञानवापी मस्जिद नहीं, मंदिर है? क्या कहता है इतिहास...
कई प्राचीनतम हिंदू और सनातन पवित्र धार्मिक पुस्तकों में वाराणसी में एक अविमुक्त क्षेत्र की बात कही गई हैं, जहां विश्वेश्वर महादेव के नाम से एक स्वयंभू ज्योतिर्लिंग था. 12 प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में अविमुक्तेश्वर महादेव या विश्वेश्वर महादेव का यह ज्योतिर्लिंग सर्वप्रमुख और सबसे ज्यादा पवित्र था.
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ज्ञानवापी में शिवलिंग प्राप्त होने के दावों के बाद अब एक बार फिर से हमें पुराणो और हिंदू धार्मिक ग्रन्थो में जा कर देखने की ज़रूरत है कि आखिर ज्ञानवापी का इतिहास और धार्मिक परंपरा क्या कहती है. पौराणिक ग्रंथों से पता चलता है कि ज्ञानवापी कुएँ का निर्माण स्वयं भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से किया था. पौराणिक काल से ही काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का इलाका अविमुक्त क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध रहा है. महाभारत में भी काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के पूरे क्षेत्र को 'अविमुक्त क्षेत्र' के नाम से पुकारा गया है. वर्तमान में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद भी अविमुक्त क्षेत्र का ही भाग रहा है. इस क्षेत्र में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद को मुक्त कराने के लिए सैकड़ों वर्षों से विश्व भर के हिंदू संघर्ष कर रहे हैं.
वाराणसी या काशी या आधुनिक बनारस में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद कभी हिंदुओं के लिए अविमुक्त क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध था और एक प्रमुख तीर्थ स्थल के रुप में जाना जाता था लेकिन 1669 में मुगल शासक औरंगजेब ने अविमुक्त क्षेत्र में स्थित विशेश्वर महादेव या अविमुक्तेश्वर महादेव के मंदिर का ध्वंस कर दिया और यहां पर मस्जिद का निर्माण कर दिया था. लेकिन मस्जिद निर्माण होने के बावजूद आज भी इसे क्यों संस्कृत नाम ज्ञानवापी के नाम से जाना जाता है, यह एक विचारणीय प्रश्न है?
ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर जैसे साक्ष्य मिले हैं कई बातों से पर्दा खुद ब खुद हट गया है
क्यों काशी कॉरिडोर पूर्णरुप से अविमुक्त क्षेत्र नहीं कहा जा सकता है?
ज्ञानवापी मस्जिद का रहस्य क्या है?
कई प्राचीनतम हिंदू और सनातन पवित्र धार्मिक पुस्तकों में वाराणसी में एक अविमुक्त क्षेत्र की बात कही गई हैं, जहां विश्वेश्वर महादेव के नाम से एक स्वयंभू ज्योतिर्लिंग था . 12 प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में अविमुक्तेश्वर महादेव या विश्वेश्वर महादेव का यह ज्योतिर्लिंग सर्वप्रमुख और सबसे ज्यादा पवित्र था. इस ज्योतिर्लिंग के पास ही एक कुआं था जिसे दिव्य और पवित्र माना जाता था कथाओं के अनुसार इस कुएं का जल गंगाजल से भी ज्यादा पवित्र था. इस कुएं के जल को पीने से ज्ञान की प्राप्ति होती थी.
संस्कृत भाषा के अनुसार ‘वापी’ का अर्थ कुआं होता है और इस कुएं के जल के ज्ञान की प्राप्ति होती है. इसलिए इसे ज्ञानवापी अर्थात ज्ञान का कुआं भी कहा जाता था. ऐसी मान्यता भी है कि ज्ञानवापी कुएं का पवित्र जल पीते ही मनुष्य के ह्रदय में तीन ज्योतिरुप लिंगों का आविर्भाव होता है और उससे मनुष्य की आत्मा शुद्ध हो जाती है.
महाभारत में ज्ञानवापी मस्जिद के कुएं का उल्लेख
तीर्थों के बारे में सबसे पहले उल्लेख महाभारत में मिलता है. इससे पूर्व के किसी भी ग्रंथ में किसी भी तीर्थ की महिमा नहीं बताई गई है. महाभारत के वन पर्व के अध्याय 84 में वाराणसी तीर्थ में वर्तमान काशी विश्वनाथ कॉरिडोर इलाके में स्थित ज्ञानवापी कुएं का जिक्र किसी अन्य नाम से किया गया है.
वन पर्व के तीर्थयात्रा पर्व के अध्यायों में प्रसंग है कि जब युधिष्ठिर और अन्य पांडव वनवास काट रहे थे, तब अर्जुन अस्त्र शस्त्रों की शिक्षा लेने के लिए स्वर्ग में वास कर रहे थे. के लौटने का इंतज़ार कर रहे थे. तब युधिष्ठिर ने अर्जुन के लौटने से पहले तीर्थयात्रा करने का संकल्प लिया .
युधिष्ठिर के इस विचार को जान कर देवर्षि नारद उनके पास आए और उन्होंने युधिष्ठिर को भीष्म और पुलत्स्य ऋषि के बीच का वो संवाद सुनाया जिसमें विभिन्न तीर्थों की महिमा गाई गई थी. देवर्षि नारद युधिष्ठिर को बताते हैं कि भीष्म के व्रत आदि से प्रसन्न होकर पुलस्त्य ऋषि ने भीष्म को विभिन्न तीर्थों की महिमा बताते हुए वाराणसी के अविमुक्त क्षेत्र की महिमा बताई –
ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वृषध्वजम्.
कपिलाह्रदे नरः स्नात्वा राजसूयमवाप्नुयात्...
अर्थः तदन्तर वाराणसी तीर्थ में जाकर भगवान शंकर की पूजा करे और कपिलाह्र्द में गोता लगाए . इससे मनुष्य को राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है .
अविमुक्त समासाद्य तीर्थसेवी कुरुद्वह .
दर्शनाद् देवदेवस्य मुच्यते ब्रह्म्हत्यया..
प्राणानुत्सृज्य तत्रैव मोक्षं प्राप्तोति मानवः.
अर्थः- कुरुश्रेष्ठ! अविमुक्त तीर्थ में जाकर तीर्थसेवी मनुष्य देवों के देव महादेव जी का दर्शनमात्र करके ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है. वहीं प्राण त्याग कर मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है.
यहां स्थित अविमुक्तेश्वर ज्योतिर्लिंग को आदिलिंग भी कहा जाता है और इसे अनंत काल से स्थापित माना जाता रहा है. ऐसी मान्यता है कि काशी विश्वनाथ कॉरिडोर इलाके में भगवान शिव और माता पार्वती अनादि काल से वास करते हैं. सभी ज्योतिर्लिंगों में इसे सबसे पहला स्थान प्राप्त था. लेकिन औरंगजेब की सेना ने इस स्वयंभू ज्योतिर्लिंग को नष्ट कर दिया और इस शिवलिंग को ज्ञानवापी कुएं के अंदर डाल दिया.
हिंदू ग्रंथों में ज्ञानवापी और काशी विश्वनाथ मंदिर
जाबाल उपनिषद में याज्ञवलक्य और अत्रि संवाद है . इस संवाद में अत्रि को याज्ञवलक्य अविमुक्तेश्वर क्षेत्र या वर्तमान काशी विश्वनाथ धाम, जहां ज्ञानवापी मस्जिद स्थित है, उसका महत्व बताते हैं. अत्रि अपने गुरु याज्ञवलक्य से पूछते हैं कि अव्यक्त और अनंत परमात्मा को कैसे प्राप्त किया जा सकता है. तब याज्ञवलक्य उन्हें अविमुक्तेश्वर क्षेत्र जाने की सलाह देते हैं और कहते हैं कि अव्यक्त और अनंत परमात्मा का स्वरुप वहीं प्रतिष्ठित है. यह वाराणसी में हैं और वहीं अविमुक्तेश्वर क्षेत्र में जाकर उस अनंत और अव्यक्त परमात्मा की उपासना की जा सकती है.
जाबाल उपनिषद् और स्कंद पुराण के अनुसार इसी अविमुक्तेश्वर क्षेत्र (जहां आज काशी विश्वनाथ कॉरिडोर और ज्ञानवापी मस्जिद है) में मनुष्यों के प्राण त्यागने के वक्त शिव उन मनुष्यों के कानों में तारक मंत्र देते हैं और मनुष्य इस मंत्र को सुन कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है. इन ग्रंथों के अलावा ब्रह्मवैवर्त पुराण, अग्निपुराण, मत्स्यपुराण आदि में ज्ञानवापी कुएं और अविमुक्तेश्वर क्षेत्र की चर्चा आई है .
अविमुक्त क्षेत्र में विश्वेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण
ऐसी मान्यता है कि वर्तमान काशी विश्वनाथ कॉरिडोर या अविमुक्त क्षेत्र में अनादि काल से भगवान शिव और माता पार्वती वास करते हैं. यहां स्थित ज्योतिर्लिंग(जिसे बाद में औरंगजेब ने नष्ट कर दिया) के चारो तरफ विशाल मंदिर का निर्माण सबसे पहले सतयुग में राजा हरिश्चंद्र ने करवाया था. राजा हरिश्चंद्र के बाद चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने इस मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार करवाया . यह मंदिर इसके बाद सैंकड़ो सालों तक बना रहा. इस मंदिर को ही बाद में अविमुक्तेश्वर महादेव मंदिर, विश्वेश्वर मंदिर के अलावा काशी विश्वनाथ मंदिर के नाम से भी पुकारा जाने लगा .
मुस्लिमों के द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा जाना
सबसे पहले 1194 में मोहम्मद गौरी के सैनिकों के द्वारा इस मंदिर पर हमला कर इसे लूटा गया और मंदिर को तोड़ा गया . इसे हालांकि दोबारा फिर से निर्मित किया गया . लेकिन जौनपुर के शर्की सुल्तानों जिन्होंने जौनपुर के ही अटाला देवी के मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बना दिया गया था, उन्होंने ही एक बार फिर काशी विश्वनाथ मंदिर पर हमला किया और इसे तोड़ दिया . जिस सुल्तान ने विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा उसका नाम सुल्तान महमूद था.
अकबर के शासन काल में उनके वित्तमंत्री राजा टोडरमल ने फिर से विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निमाण किया . जब शाहजहां आगरा की गद्दी पर बादशाह बना तो उसके कुछ काल बाद 1632 ईसवी में फिर से विश्वनाथ मंदिर पर हमला करने के लिए अपनी सेना भेजी . लेकिन काशी के हिंदुओं के विरोध की वजह से काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने में मुगल सफल नहीं हो सके .
18 अप्रैल 1669 में औरंगजेब ने अपनी सेना काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने के लिए भेजी . 2 सितंबर 1669 को काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने की घटना घटी . इस बाबत औरंगजेब ने जो आदेश जारी किया था उसकी मूलप्रति आज भी कोलकाता के एशियाटिक सोसाइटी के लाइब्रेरी में रखी हुई है.
काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण
औरंगजेब की सेना के द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा गया . लेकिन जैसे ही मुगल सल्तनत कमजोर होने लगा और मराठों की शक्ति बढ़ने लगी वैसे ही इस महान मंदिर के पुनर्निर्माण की कोशिशें फिर से होने लगीं. मराठा शासक दत्ताजी सिंधिया और मल्हावराव होल्कर ने अपने शासनकालों में एक बार फिर काशी विश्वनाथ मंदिर को फिर से बनवाने की कोशिश की, लेकिन ये दोनों ही सफल नहीं हो सके.
आखिर में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1777- 1780 के बीच काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया . हालांकि मंदिर आज भी अपने मूल स्थान पर पूरी तरह से स्थापित नहीं है और अविमुक्त क्षेत्र में ज्ञानवापी के साथ आज भी मस्जिद स्थित है. हालाँकि काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण भव्य और दिव्य है लेकिन आज भी ज्ञानवापी मस्जिद के लिए हिंदुओं का संघर्ष जारी है . बिना ज्ञानवापी मस्जिद की प्राप्ति के काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का कार्य अभी बाकी है.
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