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Updated: 07 दिसम्बर, 2017 03:04 PM
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न तो खाली कुर्सियां चुनावों में हार का इशारा करती हैं और न ही रैलियों में जुटी भीड़ जीत का सबूत होती है. चुनावों में बार बार ये बात साबित हो चुकी है.

गुजरात में इन दिनों हार्दिक पटेल की रैलियों में जुट रही भीड़ की खूब चर्चा हो रही है. दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों से खाली पड़ी कुर्सियों की खबरें आ रही हैं.

ये सही है कि हार्दिक पटेल की चुनौती से बीजेपी को कदम कदम पर मुश्किल हो रही है. क्या हार्दिक पटेल रैलियों में जुटी भीड़ को वोटों में भी तब्दील कर पाएंगे?

मोदी बनाम हार्दिक की रैली

27 नवंबर को सौराष्ट्र के जसदण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली हुई थी. इस रैली में कुर्सियों के खाली पड़ी होने की खबर आई और वीडियो भी वायरल हुआ. न्‍यूज वेबसाइट द क्विंट कॉम ने खुफिया विभाग की रिपोर्ट के हवाले से दावा किया कि 12 हजार कुर्सियां मंगायी गयी थीं लेकिन 800 खाली रह गयीं. खबर में रिपोर्ट लिखने वाले पत्रकार की आंखोंदेखी का भी जिक्र था कि मोदी का भाषण शुरू होने से ठीक पहले एक बड़ा हिस्सा उन्हें खाली दिखा था. इस रैली में पांच विधानसभाओं - जसदण, चोटिला, राजकोट-देहात, जूनागढ़ और गधादा, के उम्मीदवार भी मौजूद थे. एक कांग्रेस नेता की ओर से भी ऐसा ही एक वीडियो ट्विटर पर शेयर किया गया.

बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट में भी हार्दिक पटेल और प्रधानमंत्री मोदी की रैली की तुलना की गयी है. हफ्ते भर के अंतर पर दोनों की रैली राजकोट में हुई थी जहां से गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी आते हैं. दोनों ही रैलियों में मौजूद स्थानीय पत्रकार कीर्तिसिंह जाला बीबीसी को बताते हैं, ''तीन दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी की राजकोट में रैली हुई थी, जो मुख्यमंत्री विजय रूपानी का गृह जिला है. लेकिन रैली में उतने लोग नहीं आए जितने पिछले हफ्ते हार्दिक पटेल की रैली में पहुंचे थे.''

बीबीसी ने सूरत के एक पत्रकार के हवाले से बताया है कि किस तरह हार्दिक की सूरत रैली में सड़क पर किसी के खड़े होने की जगह नहीं थी जबकि मोदी की भरूच रैली में कुर्सियां खाली पड़ी थीं.

modi rallyदाहोद में मोदी की रैली में पहुंचे लोग

भारी भीड़ को हार्दिक की लोकप्रियता और कम भीड़ को बीजेपी के प्रति पाटीदारों की नाराजगी से जोड़ा जा रहा है. बीबीसी को इन स्थानीय पत्रकारों ने बताया कि हार्दिक की रैली में आने वाले अपने खर्च पर आ रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री की रैली के लिए बीजेपी को व्यवस्था करनी पड़ती है.

अब सवाल ये है कि क्या हार्दिक की रैलियों में जुटने वाली भीड़ वोट भी उसी हिसाब से डालेगी?

मायावती और केशुभाई मिसाल हैं

यूपी विधानसभा चुनाव में मायावती की शायद ही कोई रैली रही जिसमें भीड़ न जुटी हो, लेकिन नतीजे आये तो उन्हें महज 19 सीटें मिली थीं. 2012 के विधान सभा में भी मायावती की रैलियों में लोगों की भीड़ का वैसा ही आलम देखा गया, लेकिन नतीजे आये तो उम्मीदों पर पानी फिर चुका था. अभी अभी हुए निकाय चुनाव में तो मायावती वोट मांगने भी नहीं गयीं और बीजेपी से छिटक कर उनकी झोली में सीधे सीधे मेयर की दो दो सीटें आ टपकीं. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस बस देखते रहे.

मायावती की रैलियों में जुटने वाली भीड़ और उन्हें मिले वोट हार्दिक के लिए नजीर हो सकते हैं. वैसे हार्दिक पटेल की रैलियों की भीड़ की तुलना 2012 के गुजरात विधानसभा में केशुभाई पटेल की रैलियों से भी की जा सकती है. जो चुनौती बीजेपी को अभी हार्दिक पटेल से मिल रही है, 2012 में वैसा ही चैलेंज केशुभाई पटेल की ओर से मिला था. तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे मोदी को मजबूरन पटेल समुदाय से काफी उम्मीदवार खड़े करने पड़े थे. केशुभाई पटेल ने तब अपनी अलग पार्टी भी बना ली थी. केशुभाई की रैलियों में भी लोग खूब जुटे लेकिन नतीजे आये तो उनके अलावा सिर्फ एक विधायक जीत पाया. केशुभाई की गुजरात परिवर्तन पार्टी को महज दो सीटों से संतोष और बाद में बीजेपी में विलय करना पड़ा.

hardik rallyहार्दिक की जसदण रैली में भीड़

अगर केशुभाई और हार्दिक की तुलना करें तो दोनों में कई तरह के फर्क हैं. केशुभाई गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके थे और अपने दम पर अपनी बात कह रहे थे. हार्दिक पटेल लोगों के बीच बातें तो कई मुद्दों पर कर रहे हैं लेकिन सामने दो ही एजेंडा आ पाता है - एक पाटीदारों को आरक्षण और दूसरा 'बीजेपी हराओ'. हार्दिक अपनी ओर से कुछ कहने की स्थिति में भी नहीं हैं क्योंकि वो खुद कांग्रेस का सपोर्ट कर रहे हैं. कांग्रेस भी उन्हें ऐसे ट्रीट कर रही है कि चंद सीटों के लिए हार्दिक को जद्दोजहद करनी पड़ रही है.

ये जरूर है कि हार्दिक पटेल अपनी रैलियों में ऐसी बातें कर रहे हैं जो लोगों को अच्छी लग रही हैं. वो किसानों की बात कर रहे हैं. वो रोजगार की कमी की बात कर रहे हैं. वो पाटीदारों के लिए आरक्षण की बातें कर रहे हैं. दूसरी ओर, मोदी के भाषण में लगातार राहुल गांधी और कांग्रेस की बातें होती हैं. मीडिया रिपोर्ट से ये भी मालूम होता है कि लोग जितना गुजरात बीजेपी के नेताओं से नाराज हैं उतना मोदी से नहीं. मीडिया से बातचीत में कई लोग तो यहां तक कह रहे थे कि वो 2019 में तो मोदी को ही वोट देंगे, इस बार बीजेपी को देंगे ये जरूरी नहीं है.

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