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Updated: 30 जुलाई, 2017 06:50 PM
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शिवसेना ने भी मान लिया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने विपक्ष से प्रधानमंत्री का चेहरा छीन लिया है. हालांकि, 'सामना' में लिखे संपादकीय में शिवसेना का कहना है कि राजनीति में नैतिकता और आदर्शों का कोई मतलब नहीं रह गया है. संपादकीय में लिखा है, "अमित शाह ने पहले कहा था कि अगर नीतीश कुमार की जीत होती है तो पाकिस्तान में जश्न मनाया जाएगा, तो पाकिस्तान अब जश्न मना रहा है.’’ जब शिवसेना भी ये मान कर चल रही है तो बीजेपी अपने विरोधियों की परवाह भला क्यों करे? और शिवसेना की भी क्यों? बीजेपी को मालूम है कि चाहे विरोधी हों या शिवसेना जैसे सहयोगी, अगर उसके हाथ लाठी लग गयी है तो भैंस भी लालू की ओर नहीं देखने वाली. ये शायद मौजूदा राजनीति की नजीर है जिसमें सामना में ऐसे संपादकीय भी छपते रहते हैं - और शिवसेना के नुमाइंदे थक हार कर वही करते हैं जो मोदी-शाह मन भाये.

तो बीजेपी सिल्वर जुबली मनाना चाहती है!

भुवनेश्वर में बीजेपी कार्यकारिणी के दौरान अमित शाह ने माना था कि अभी बीजेपी का स्वर्णिम काल नहीं आया है. तब शाह ने कहा था, "2014 में जब हम जीते तो कहा गया कि बीजेपी चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुकी है, 2017 में भी यही कहा गया, लेकिन बीजेपी का चरमोत्कर्ष आना बाकी है." शाह ने लोगों को भी मैसेज देने की कोशिश की कि बीजेपी का स्वर्णिम काल बीजेपी के स्वर्णिम काल से जुड़ा है और कार्यकर्ताओं को चरमोत्कर्ष का मतलब समझाया - 'हमारी कल्पना है कि देश के हर प्रदेश में हमारी सरकार हो.'

शाह ने ये भी समझाने की कोशिश की कि 2019 तो सिर्फ अंगड़ाई है, "2019 में फिर हमें नरेंद्र मोदी जी को पीएम बनाना है. पंचायत से पार्लियामेंट तक बीजेपी होनी चाहिए."

narendra modi, amit shahबड़ा सोचो...

शाह ने अपने इरादे तो तभी जाहिर कर दिये थे - अब सरेराह हाथ लगती कामयाबियों के बूते मंजिल भी आगे बढ़ाते जा रहे हैं. मोदी सरकार के बजट भाषण को याद करें तो ऐसी कई योजनाएं बताई गयी जिनके पूरे होने की डेडलाइन 2020 या 2022 बताई गयी. एक बार एक कार्यक्रम में एक युवक ने मोदी से प्रधानमंत्री बनने की तरकीब पूछी तो उनका कहना था कि 2014 तक तो कोई स्कोप नहीं है - उसके आगे वो चाहे तो प्लान कर ले. लेकिन ये सब भी अंगड़ाइयों का ही हिस्सा लगता है. शाह का इरादा तो कुछ ज्यादा ही बड़ा करने का है.

यूपी दौरे पर पहुंचे शाह बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं को समझा रहे हैं कि जिन तबकों को वे दूसरों का वोट बैंक मान कर चल रहे हैं उनके बीच अपनी पैठ बढ़ायें. ऐसे काम करें कि उनके बीच बीजेपी की साख बढ़े. इस बात की परवाह करने की जरूरत नहीं कि कोई अपने नाम के साथ यादव लिखता है या फिर उसे दलित समुदाय समझ कर किसी और के हिस्से का मान लिया जाता है.

योगी सरकार के मंत्रियों से मुलाकात में शाह ने बड़े आराम से अपने मन की बात कह दी, "पांच साल नहीं बल्कि सरकार सिल्वर जुबली मना सकें, ये सोच कर काम करें." मीडिया में आई खबरों से पता चलता है कि शाह ने ये भी साफ कर दिया कि 'विपक्ष को कोई मौका न दें' और 'जिसे ये काम ज्यादा लगे, वो छुट्टी ले सकता है.'

फिर विपक्ष क्या करे?

चाहे तो टाइमपास! इसके अलावा भला और क्या कहा जा सकता है? जब विपक्ष को कारवां गुजर जाने के बाद ही फैसले लेने है तो उसकी किस्मत के गुबार से कोई कैसे बचा सकता है?

जब राहुल गांधी को तीन महीने से पता है कि बिहार में गठबंधन सरकार के खिलाफ साजिश चल रही है, फिर भी वो हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. क्या उन्हें नहीं पता कि डूबती जहाज को बचाने के लिए मदद के हाथ बढ़ाने पर पहुंच भी जायें इस बात की गारंटी नहीं होती.

अप्रैल, 2016 में बीजेडी नेता भर्तृहरि महताब का एक बयान कभी पुराना नहीं पड़ता. महताब ने कहा था, "कांग्रेस उपाध्यक्ष विश्वविद्यालयों में जा रहे हैं और फोटो खिंचवाने के मौके का पूरा लुत्फ उठा रहे हैं. वो किस तरीके का वोट बैंक तैयार कर रहे हैं? क्या वो 2024 के बारे में सोच रहे हैं?

साल भर से ज्यादा वक्त गुजर चुका है और महताब की बात ऐसी लगती है जैसे अभी अभी कहा हो. इतना ही नहीं, नीतीश कुमार को लेकर तो जो उन्होंने कहा था उसे तो अमली जामा भी पहना दिया गया.

बीजेपी से नीतीश के हाथ मिलाने से पहले देखा गया कि वो 2019 के लोक सभा चुनाव के लिए मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत मोर्चा खड़ा करना चाहते हैं. तब महताब ने नीतीश की इस कोशिश 'भ्रूण की अवस्था' में बताया था.

लालू के ट्वीट से तो अब ये भी साबित हो गया कि बीजेडी नेता महताब का ऑब्जर्वेशन कितना सटीक रहा.

ध्यान रहे, चीख चीख कर बोले गये 'खून की दलाली', 'कायर' और 'मनोरोगी' जैसे कीवर्ड मीडिया में सुर्खियां बन सकते हैं, सोशल मीडिया पर सबसे ऊपर ट्रेंड कर सकते हैं. ऐसी बातों से खुद को चर्चा में तो बनाये रखा जा सकता है, लेकिन कभी किसी सार्थक और सकारात्मक नतीजे की अपेक्षा नहीं की जा सकती. ऐसी सारी हरकत और कवायद राजनीति में टाइमपास से ज्यादा नहीं होते. ये बात जितनी जल्द समझ में आ जाये बेहतर है.

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