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Updated: 11 मार्च, 2017 12:34 PM
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अखिलेश यादव कांग्रेस का हाथ साइकिल के हैंडल पर लगाने में तो कामयाब रहे लेकिन 300 सीटें क्या 100 के भी लाले पड़ गये. दो सौ से ज्यादा रैलियों और राहुल के साथ चार चार रोड शो जिसमें आखिर में डिंपल भी शामिल हुईं - काम न आया.

जिसे अखिलेश यादव 'काम' बताते रहे उसे लोग 'कारनामा' मान कर बैठ गये थे - और मौका लगते ही बटन दबा कर मन की बात कह दी.

यूपी को नहीं पसंद आया साथ

यूपी चुनाव के पहले दो चरणों में मुस्लिम मतदाताओं का रुख समाजवादी गठबंधन की तरफ समझा गया, लेकिन धीरे धीरे ये बीएसपी की तरफ शिफ्ट होता गया, ऐसा माना गया. अखिलेश ने पिता की मौलाना वाली इमेज से आगे बढ़ने की कोशिश की ताकि सवर्ण और दूसरी गैर यादव पिछड़ी जातियों के साथ साथ ईबीसी यानी अति पिछड़े वर्ग के लोगों में पैठ बनायी जा सके - लेकिन न माया मिली न राम. वैसे देखें तो अखिलेश ने अपनी ओर से कोई रणनीतिक चूक की गुंजाइश नहीं छोड़ी थी, लेकिन कामयाबी और नाकामी की परिभाषा तो जीत और हार से ही तय होती है.

अखिलेश को बड़े नुकसान की वजह यादवों के खिलाफ गैर यादव ओबीसी का एकजुट होना रहा जिसे रिवर्स पोलराइजेशन के तौर पर समझा जा सकता है. विकल्प के तौर पर उनके सामने कांग्रेस जरूर रही लेकिन अखिलेश का साथ होने के कारण वो तबका भी बीजेपी की ओर मुड़ गया. मायावती की ओर तो उसे जाना भी नहीं था. केशव मौर्या से लेकर स्वामी प्रसाद मौर्या तक सारे इंतजाम बीजेपी ने पहले से ही कर रखे थे.

'काम' नहीं 'कारनामा' बोल गया

चुनाव में अखिलेश की हालत कई बार महाभारत के अभिमन्यु जैसी भी दिखी. वो चौतरफा घिरे हुए थे. चारों दिशाओं में उन्हें चाचा शिवपाल, बुआ मायावती, लगातार निजी हमले कर रही बीजेपी और उसके साथ ही एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर से भी जूझना था.

जब तक अखिलेश ने चाचा शिवपाल को किनारे लगाया तब तक एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर भी काफी हद तक नरम पड़ चुका था. मायावती की चुनौती को तो उन्हें फेस करनी ही थी, रही बाद बीजेपी और मोदी के हमलों की तो अखिलेश उसे बेहतर तरीके से काउंटर कर सकते थे.

up-election-results-_031117120009.jpgउफ, ये 300 सीढ़ियां...

मोदी ने अखिलेश पर भी तकरीबन वैसे ही निजी हमले किये जैसे बिहार चुनाव में नीतीश कुमार के मामले में उनका रवैया रहा. ऐसा भी नहीं कि अखिलेश ने मोदी के हमलों का जवाब नहीं दिया.

बल्कि मोदी और शाह के हमलों का जवाब देने में पत्नी डिंपल तो उनसे भी दो कदम आगे नजर आईं. शाह ने कसाब की एक परिभाषा दी तो फौरन ही डिंपल ने नयी परिभाषा गढ़ दी. डिंपल की बात में रचनात्मकता भी थी और रुख सकारात्मक रहा.

अगर अखिलेश और नीतीश की तुलना करें तो दिन भर प्रधानमंत्री जो भी मुख्यमंत्री पर आरोप लगाते उसका बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर जवाब दिया जाता. नीतीश कुमार की कोशिश होती सबूतों के साथ आने और आरोपों को झूठा साबित करने की. इसमें नीतीश के जवाब के आगे आरोप कई बार हल्के भी लगते रहे.

अखिलेश ने ऐसा कुछ नहीं किया जिसकी बहुत सी वजहें हो सकती हैं. अखिलेश यादव का #काम-बोलता-है कैंपेन भी गुजरते वक्त के साथ अपनी धार खोता नजर आया. जब प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को समझाया कि 'काम नहीं, कारनामा बोलता है' तो भी अखिलेश की टीम धारणा नहीं बदल सकी. 'यूपी के लड़के' और 'बाहरी...' जैसे स्लोगन तो औंधे मुहं ही गिर पड़े.

अखिलेश के मुस्लिम विरोधी मानने का मुलायम सिंह यादव का शक तो सही साबित न हो सका लेकिन चुनाव प्रचार से उनका दूर रहना समाजवादी पार्टी के लिए बहुत महंगा साबित हुआ. पहले तो मुलायम ने विपक्षी दलों के साथ महागठबंधन पर खूब जोर दिया, लेकिन कांग्रेस के साथ अखिलेश का हाथ मिलाना उन्हें बिलकुल नहीं भाया.

अतीक अहमद से लेकर अंसारी बंधुओं तक, आपराधिक छवि के लोगों से दूरी बनाने और अच्छी इमेज के साथ चुनाव मैदान में उतर कर हाइवे, एक्सप्रेस-वे और मेट्रो का अखिलेश ने खूब प्रचार किया, लेकिन लोगों ने उतनी दिलचस्पी नहीं दिखाई. गैर-जाटव दलित और कुछ ओबीसी जातियों का समर्थन अखिलेश के समाजवादी गठबंधन को मिल सकता था, लेकिन लगता है मुस्लिम वोटों के साथ साथ उनकी भी मायावती में ज्यादा दिलचस्पी पैदा हो गयी.

एग्जिट पोल आने पर अखिलेश यादव ने संकेत दिये थे कि बीजेपी को रोकने के लिए उन्हें हाथी से हाथ मिलाने में भी परहेज नहीं. उन्हें क्या पता हाथी तो वास्तव में पत्थर वाले निकले.

खैर, अखिलेश उतने भी घाटे में नहीं रहे. सत्ता भले ही हाथ से फिसल गयी, लेकिन सुल्तान तो वो बन ही गये. तो क्या समाजवादी परिवार में झगड़ा न होता तो कहानी कुछ और होती - अखिलेश को इस सवाल का जवाब भी ढूंढना होगा.

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