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Updated: 06 मार्च, 2020 12:21 PM
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मध्‍यप्रदेश में कांग्रेस के दस कथित बागी विधायकों में से छह लौट आए हैं. इन लौटे हुए विधायकों का कहना है कि वे अपने निजी काम से गए थे. उनके इस 'आने-जाने' से भाजपा का कोई लेना-देना नहीं है. वे इस कांग्रेस के भीतर की लड़ाई ही बता रहे हैं. कांग्रेस के ये विधायक ही नहीं, बल्कि कमलनाथ सरकार (Kamalnath govt) के मंत्री भी इसी ओर इशारा कर रहे हैं. और ये सभी उंगलियां दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) की ओर उठ रही हैं. यानी मध्‍यप्रदेश में कांग्रेस की राजनीति के चाणक्‍य कहे जाने वाले दिग्विजय सिंह अपनी ही चाल में फंसते नजर आ रहे हैं. कमलनाथ सरकार के जिस तख्‍तापलट का केंद्र भाजपा को बताया जा रहा था, उसका सिरा‍ दिग्विजय सिंह तक आता दिख रहा है. तो सवाल यही उठता है कि ऐसा करने की दिग्विजय को जरूरत क्‍या थी? क्‍या सिर्फ राज्‍य सभा टिकट के लिए?

1993 से 2003 तक मध्‍यप्रदेश में मुख्‍यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह को उमा भारती ने सिर्फ सत्‍ता से बुरी तरह बेदखल किया था. 230 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस 38 सीट तक सिमट गई थी. दिग्विजय सिंह ने आनन-फानन में दस साल के चुनावी राजनीति से सन्‍यास की घोषणा कर दी थी. लेकिन, छह महीने बाद कांग्रेस के नेतृत्‍व में यूपीए सरकार केंद्र में काबिज हुई और साथ ही राहुल गांधी की राजनीति में एंट्री हुई. दिग्विजय को मुख्‍यधारा में वापसी का यहां एक दरवाजा नजर आया. फिर एक दौर आया जब दिग्विजय सिंह को राहुल गांधी के फ्रेंड-फिलॉस्फर और गाइड सभी भूमिकाओं में पूरा हक हासिल हुआ. ये अलग बात है कि राहुल गांधी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपना गुरु बता चुके हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में राजनीतिक साम-दाम-दंड की फील्ड ट्रेनिंग तो उन्‍हें दिग्विजय सिंह ने ही दी थी - अब ट्रेनिंग का कितना फायदा हुआ या नुकसान ये तो बहस का अलग ही मुद्दा हो सकता है.

ये तभी की बातें हैं जब दिग्विजय सिंह कई राज्यों के प्रभारी महासचिव भी हुआ करते रहे - लेकिन 2017 में गोवा में कांग्रेस की सरकार बनवाने में चूक जाने के चलते दिग्विजय सिंह पार्टी में ही विरोधियों के निशाने पर आ गये और फिर उन्हें हाशिये पर कर दिया गया.

कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति से बेदखल किए गए दिग्विजय सिंह को तब दोबारा अपना राज्य मध्‍यप्रदेश नजर आने लगा. ये 2018 के आखिर में होने वाले मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव थे. उन्‍होंने राज्‍य की सक्रिय राजनीति वहीं से शुरू की, जहां से छोड़ी थी. वे संन्यासी के रूप में लोगों के बीच भ्रम फैलाते हुए एक गैर-राजनीतिक यात्रा पर निकले- नर्मदा परिक्रमा. दिग्विजय सिंह की नर्मदा पदयात्रा भी कड़ी मशक्कत वाले किसी रियाज से कम नहीं बल्कि बढ़ कर थी. जब मध्य प्रदेश में चुनाव की तारीख नजदीक हुई तब तक दिग्विजय सिंह वैसे ही ताकतवर हो चुके थे जैसे कोई पहलवान महीनों तक घंटों रियाज करता है और पूरी ऊर्जा के साथ अखाड़े में उतरता है. नर्मदा परिक्रमा के जरिये दिग्विजय सिंह ने अपने लोगों से संपर्क किया और अपने समर्थकों को भरोसा दिलाया कि उनकी दुनिया अभी खत्म नहीं हुई है.

तमाम कोशिशों के बावजूद दिग्विजय सिंह उस हैसियत में तो नहीं आ सके कि मुख्यमंत्री पद के दावेदार बन सकें, लेकिन इतनी ताकत तो जुटा ही चुके थे कि कांग्रेस के सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री उनके मन का बन सके. बड़ी होशियारी से उन्‍होंने कमलनाथ और ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया को आमने-सामने कर दिया. चुनाव से पहले से लेकर चुनाव बाद तक दिग्विजय सिंह परदे के पीछे बड़ी भूमिका निभाते रहे. कमलनाथ के लिए जहां भी मुश्किलें खड़ी होतीं, सुलझाने के लिए मौके पर दिग्विजय सिंह ही पहुंच जाते. सबकुछ ठीक चल रहा था. दिग्विजय सिंह कमलनाथ और उनकी सरकार के लिए लगातार संकटमोचक बने रहे. लेकिन, कांग्रेस विधायकों की बगावत ने मामला थोड़ा पेंचीदा बना दिया है. इस बार इतना ही हुआ है कि संकट का ताना बाना खड़ा करने से लेकर उसे खत्म करने तक सारी चीजें उनके ही इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही हैं.

दिग्विजय सिंह का राज्यसभा का कार्यकाल खत्म हो रहा है - भोपाल से चुनाव हार गये वरना ऐसी कोई जरूरत भी शायद नहीं पड़ती. उन्‍हें इस बात की टीस भी रहती ही होगी कि उनके तमाम राजनीतिक कौशल के बावजूद वे अपने घर में बैठे हैं, और कल की राजनीति में आई साध्‍वी प्रज्ञा संसद में. दिग्विजय सिंह की लड़ाई अपनी कश्‍मकश से ज्‍यादा पार्टी की अंतरकलह से रही. मध्‍यप्रदेश का राजमुकुट पाने की लड़ाई हार चुके ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया अब फ्रंट फुट पर थे. दिग्विजय की तरह वे भी लोकसभा का चुनाव हारे हुए हैं. ऐसे में राज्‍य सभा के टिकट की लड़ाई महाराजा (सिंधिया) और राजा (दिग्विजय सिंह) के बीच ठन गई. सिंधिया ने राज्‍यसभा चुनाव को लेकर दोहरा जाल बिछाया. वे एक्टिव हुए और प्रियंका गांधी वाड्रा का मध्य प्रदेश से राज्य सभा के लिए नाम चलने लगा. ऐसे में दिग्विजय का भी अलर्ट हो जाना स्वाभाविक था. राजनीति में एक त्याग चौतरफा तिरस्कार का कारण बन जाता है. दिग्विजय सिंह ने बड़ी मेहनत से खुद को मुख्यधारा की राजनीति में दोबारा प्रासंगिक बनाया है और भला वो ये सब यूं ही कैसे जाया होने देते.

दिग्विजय सिंह वैसे भी कभी हार नहीं मानते. अपने खिलाफ तमाम चर्चाओं के बावजूद दिग्विजय सिंह दावे के साथ कह रहे हैं कि कांग्रेस विधायकों को बेंगलुरू ले जाने के लिए बीजेपी ने दो चार्टर्ड प्लेन का इंतजाम किया था. कांग्रेस विधायकों के फोन तक बीजेपी नेताओं ने छीन लिये थे. लेकिन, वापस लौटे कांग्रेस विधायकों ने तो सारा खेल ही बिगाड़ दिया. कमलनाथ सरकार और कांग्रेस के अलग-अलग तबकों से दिग्विजय सिंह पर निशाना साधा गया. वस्तुस्थिति ये है कि दिग्विजय सिंह के पक्ष में कांग्रेस नहीं बल्कि बातें बीजेपी की तरफ से ही आ रही हैं. बीजेपी नेता नरोत्तम मिश्रा ने दावा किया है कि कांग्रेस के 15-20 विधायक उनके संपर्क में हैं. कांग्रेस के जो विधायक हाथ से फिसलते नजर आ रहे थे वे नरोत्तम मिश्रा के साथ ही थे - वे दो विधायक भी जो दिग्विजय सिंह के करीबी बताये जा रहे हैं.

अब दिग्विजय सिंह के सामने दोहरा संकट है. कमलनाथ सरकार को संकट से उबारना, और खुद को संकट से बचाए रखना. मुख्‍यधारा में बने रहने की चुनौती तो है ही. जरा भी फिसले और गए.

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