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Updated: 27 जून, 2016 04:18 PM
सुशील कुमार
सुशील कुमार
  @sushil.aryan
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तू डाल डाल मैं पात पात! जी हां दिल्ली की सियासत को लेकर केन्द्र और दिल्ली सरकार के बीच इन दिनों कुछ इसी तरह का खेल चल रहा है. और इसमें पिस रही है दिल्ली की आम जनता. जो चाह कर भी मूकदर्शक बने रहने को विवश है. हर गुजरते दिन के साथ एक नया विवाद, एक नया आरोप. कभी दिल्ली के मुख्यमंत्री केन्द्र पर काम नहीं करने देने का आरोप लगाते हैं तो कभी एलजी के माध्यम से केन्द्र सरकार केजरीवाल पर निशाना साधने से नहीं चूकती.

ताजा मामला आप विधायक दिनेश मोहनिया की गिरफ्तारी और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के खिलाफ थाने में शिकायत के बाद उपजी गिरफ्तारी की परिस्थियों से जुड़ा है, जिसके बाद दिल्ली सरकार के विधायकों को 7 रेस कोर्स के पास सड़क पर उतर कर शक्ति परीक्षण करना पड़ा. सवाल ये है कि आखिर ये रास्ता कहां जाकर खत्म होता है, क्या संघीय ढांचे में केन्द्र और राज्यों के संबंध अब इसी तर्ज पर दिखाई पड़ेंगे ? क्योंकि हो कुछ इसी तरह रहा है.

लोकतंत्र में विचारों की विभिन्नता को तरजीह देने की वकालत की जाती है, लेकिन लग रहा है अब देश का लोकतांत्रिक ढांचा बिखरने के कगार पर पहुंच गया है. जहां व्यक्ति विशेष को प्रतिक की तरह समझा जाने लगा है. चाहें हम बात पीएम मोदी की करें या फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल की.

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एक तरफ नए विचारों की नई सरकार है जिसे बॉलीवुड फिल्म नायक के हीरो अनिल कपूर की तरह दिखना है, जो बस एक झटके में पूरी व्यवस्था को बदल देना चाहता है. वहीं दूसरी तरफ एक ऐसा शहंशाह है जो देश की समस्याओं को अपने हिसाब से आंकता है और अपने तरीके से उसके समाधान के लिए निकल पड़ता है. लेकिन विचारों का यही द्वंद अब दिल्ली पर भारी पड़ने लगा है.

सवाल न सिर्फ आम आदमी पार्टी के 67 विधायकों पर उठ रहे हैं बल्कि बीजेपी के उन 7 सांसदों की साख भी कमजोर होती दिख रही है, जिन्होंने दिल्ली की तकदीर बदलने की कसमे खाई थी. लेकिन ये कसमें अब हवा हवाई होती दिख रही हैं.

दिल्ली की जनता अपने नायक ( जनप्रतिनिधियों ) से पूछ रही है कि आखिर उनके अच्छे दिन कब आएंगे. कब उन्हें बिजली, पानी और मूलभूत सुविधाएं मिलेंगी? कब उन्हें महंगाई से निजात मिलेगी? और कब वे सारी झंझावतों से दूर चैन की नींद सो पाएंगे? ये सवाल इसलिए भी है क्योंकि पिछले 16 महीने से दिल्ली में जो चल रहा है उसे ठीक कतई नहीं कहा जा सकता.

कहां-कहां मतभेद...

मतभेद के मुद्दे एक नहीं बल्कि अनेकों हैं गिनने बैठेंगे तो शायद आप थक जाएंगे. ताजा मामला गृह मंत्रालय द्वारा दिल्ली के 14 बिलों को वापस लौटाने से जुड़ा है. गृह मंत्रालय ने दिल्ली के 14 बिलों को ये कहते हुए लौटा दिया है कि इन्हें पारित करने से पहले कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया. विधानसभा से विधेयक को पारित करने से पहले एलजी की अनुमति नहीं ली गई. गृह मंत्रालय का यहां तक कहना है कि बिल पास करना दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता ही नहीं है.

सवाल ये है कि जब विधेयक लाने का कानूनी अधिकार दिल्ली के पास नहीं है तो आखिर इन बिलों को विधानसभा से पारित कर केजरीवाल सरकार हितों का टकराव क्यों पैदा कर रही है? क्या कहीं इसके पीछे वजह दिल्ली सरकार और एलजी के संबंधों में खटास तो नहीं है.

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 केजरीवाल vs जंग का खामियाजा दिल्ली की जनता को भुगतना है..

कई मौके ऐसे भी आए जब दिल्ली सरकार के हर छोटे बड़े कामों में उपराज्यपाल नजीब जंग ने रोड़े अटकाने का काम किया. चुनी हुई सरकार के पास ये अधिकार होने चाहिए कि वे राज्य की जरुरतों के हिसाब से कुछ फैसले ले सकें. लेकिन ये फैसले संविधान के दायरे में होने चाहिए.

गृह मंत्रालय ने जिन 14 विधेयकों को वापस लौटाए हैं, उनमें मुख्यरूप से जनलोकपाल बिल, सिटिजन चार्टर बिल, न्यूनतम मजदूरी बिल, विधायकों की वेतन बढ़ोत्तरी से जुड़ा बिल, वर्किंग जर्नलिस्ट बिल, प्राइवेट स्कूलों में दाखिले में पारदर्शिता और फीस से जुड़ा बिल समेत कई अन्य विधेयक शामिल हैं.

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यही नहीं हाल ही में दिल्ली सरकार के 21 संसदीय सचिवों को ऑफिस ऑफ प्रॉफिट से बाहर रखने से संबंधित बिल को भी महामिहम राष्ट्रपति लौटा चुके हैं. इस बिल के वापस होने के बाद अब आप के 21 विधायकों की सदस्यता खतरे में पड़ गई है. तो फिर सवाल वही है कि आखिर रास्ता जाता कहां है. क्योंकि कानून भले ही इसकी इजाजत नहीं देता हो लेकिन न सिर्फ दिल्ली बल्कि कई राज्यों में संसदीय सचिव नियुक्त किए गए हैं. इनमें बीजेपी शासित प्रदेश भी शामिल हैं. जहां संसदीय सचिव बड़े शान से बने हुए हैं और शासन से कई तरह की सुविधाएं भी ले रहे हैं.

राज्यों में संसदीय सचिवों की स्थिति...

मणिपुर और पश्चिम बंगाल में संसदीय सचिवों की नियुक्ति को ऑफिस ऑफ प्रॉफिट से बाहर रखने के लिए कानून में संसोधन प्रस्ताव लाया गया. हालांकि बाद में दोनों सरकारों के फैसलों को अदालत में चुनौती दी गई. मणिपुर में कोर्ट ने इसे जायज ठहराया तो पश्चिम बंगाल हाईकोर्ट ने सरकार के फैसले को रद्द कर दिया.

इसी तरह पंजाब में 19 संसदीय सचिव हैं जिनकी नियुक्ति को लेकर अदालत में चुनौती दी गई है. वहीं हरियाणा में 4 संसदीय सचिव हैं, इसी तरह पुदुचेरी में 1, हिमाचल में 9, राजस्थान में 5 और गुजरात में 5 संसदीय सचिव हैं. तो वहीं कर्नाटक और तेलंगाना में क्रमश: 10 और 6 संसदीय सचिव हैं.

ये आंकड़े इसलिए बताना जरूरी है ताकि ये साफ हो सके कि दिल्ली एक मात्र ऐसा राज्य नहीं है जहां संसदीय सचिवों की नियुक्ति की गई हो. ये अलग बात है कि इतने बड़े पैमाने पर संसदीय सचिवों की नियुक्ति का ये पहला मामला है जहां विधानसभा के 70 में से 21 विधायक संसदीय सचिव बनाए गए हैं. हालांकि इस पर केजरीवाल सरकार की अपनी दलील है.

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तो सवाल फिर वही कि क्या ये हितो का टकराव नहीं है? क्या हम मान लें कि प्रतिकों की इस लड़ाई में केन्द्र या दिल्ली सरकार में से किसी की भी जीत हो, लेकिन हारना हर हाल में दिल्ली की जनता को है.

लेखक

सुशील कुमार सुशील कुमार @sushil.aryan

लेखक आज तक में पत्रकार हैं

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