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Updated: 20 जनवरी, 2017 08:12 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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बाप-बेटे की सरकार देखी. बाप-बेटे की सियासत देखी - अब यूपी की आगे की राजनीति देखिये. गठबंधन पर पहले नेताजी फैसला लेने वाले थे, अब अखिलेश लेंगे. तब भी नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव और अखिलेश मिल कर फैसले लेते - अब भी लेंगे.

समाजवादी पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन खटाई में पड़ता दिख रहा है, लेकिन ये सस्पेंस बढ़ाने वाले ट्रेलर जैसा भी लगता है. गठबंधन सिर्फ कांग्रेस की मजबूरी नहीं, समाजवादी पार्टी की भी जरूरत है.

संकट जरूर, संभावना बरकरार

समाजवादी पार्टी को गठबंधन की दरकार उसी स्थिति में नहीं होगी जब उसे यकीन हो कि वो अकेले दम पर बहुमत हासिल कर सकती है. निश्चित रूप से ऐसी किसी संभावना पर यकीन करना बहुत मुश्किल है.

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मुलायम में बिना टायर-ट्यूब बदले समाजवादी साइकल को तमाम गड्ढों से हिचकोले खाते उसकी लाल रंग वाली लेन में जरूर पहुंचा दिया है, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि आगे गड्ढे नहीं मिलेंगे.

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गठबंधन 2019 के लिए...

मुलायम ने अखिलेश को एंटी-इंकम्बेंसी के गड्ढे से उबार दिया है. पार्टी पर शिवपाल की दावेदारी और हिस्सेदारी से भी पार करा दिया - लेकिन क्या उन गड्ढों से भी बैठे बैठ पार करा पाएंगे जो बचे हुए हैं?

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गठबंधन 2017 के लिए...

बाकी गड्ढों पर तो पैचवर्क भी संभव है लेकिन अगर मुस्लिम वोट बैंक खिसका तो क्या होगा? कांग्रेस के पास दूसरा विकल्प मायावती हैं जो मुस्लिम वोटों के लिए तमाम तरकीबें लगा रखी हैं.

समाजवादी पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती मुस्लिम वोटों का बंटवारा रोकना भी है जिसके लिए बीजेपी की ओर से तमाम सियासी जुगत लगाए जा रहे हैं. इनमें से भी कई गड्ढे मुलायम और अखिलेश पार कर चुके हैं. कुछ बाकी हैं और उन्हीं की बदौलत गठबंधन की उम्मीद खत्म होती नहीं दिख रही.

ताकि 2019 में 2014 न दोहराये

नतीजे जो भी हों, लेकिन 2019 राहुल गांधी को मछली की आंख की तरह दिख रहे हैं. यूपी विधानसभा चुनाव भी उनके लिए बिहार या दूसरे चुनावों जितना मायने रखता है. 2016 की तरह 2017 में भी कई राज्यों में चुनाव हो रहे हैं लेकिन राहुल के लिए वे ऐसे पड़ाव हैं जिन्हें 2019 की मंजिल के लिए कुर्बान किये जा सकते हैं.

2014 में दोनों पार्टियों को कुनबे के हिसाब से सीटें मिली थीं. यूपी से कांग्रेस को दो सीटें मिली थीं, जबकि मुलायम सिंह यादव को छह.

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वैसे तो मुलायम सिंह के लिए भी 2019 का चुनाव काफी मायने रखता है लेकिन उतना तो कतई नहीं जितना राहुल गांधी के लिए. तीन साल बाद भी यूपी में कांग्रेस की हालत यही है कि उसे गठबंधन में सिर्फ 100 सीटें मिल जाए तो कार्यकर्ता दुनिया मिल जाने जैसे जश्न मनाने लगें.

कई बार ऐसा लगता है कि समाजवादी पार्टी को गठबंधन की जरा भी परवाह नहीं. कुछ दिन पहले कांग्रेस की ओर से भी ऐसे ही संकेत दिये जा रहे थे जब बार बार अखिलेश यादव गठबंधन की बात करते. तमिलनाडु में जयललिता ने पिछले ही साल कई पार्टियों से गठबंधन किया और उनके उम्मीदवार खुद के नहीं बल्कि एआईएडीएमके के निशान पर चुनाव लड़े. यूपी में भी ऐसे ही प्रयोगों के संकेत मिल रहे हैं. वैसे कांग्रेस के लिए लास्ट ऑप्शन मायावती तो हैं ही. भले ही चुनाव अघोषित गठबंधन के साथ लड़ा जाए.

अखिलेश का उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करते जाना महज लिफाफा है, मजमून नहीं. गठबंधन के उस संभावित खत को अखिलेश ने तो बस ऊपर से बांचने की कोशिश की है - लिखने वालों में प्रियंका गांधी तक की भूमिका की संभावना जताई गई है. शर्त बस इतनी है कि प्रशांत किशोर ने जो नींव रखी उस पर कोई इमारत खड़ी हो जाए और उस पर भूकंप का असर न हो.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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