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Updated: 04 मार्च, 2020 01:11 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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तारीख 2 मार्च 2020 दिन सोमवार. होने को तो ये एक साधारण दिन और तारीख थी लेकिन इसे इसलिए भी याद रखा जाएगा क्योंकि इस दिन सुप्रीम कोर्ट में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसने बता दिया है कि जब बात सत्ता की होती है तो न्यायपालिका (Judiciary) भी बेबस हो जाती है. सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने दिल्ली हिंसा (Delhi Violence) को लेकर पीड़ितों की ओर से दायर याचिका (Petition) की सुनवाई की है. सुनवाई के दौरान जो बातें कोर्ट ने कहीं हैं उसने बता दिया है कि कोर्ट वाकई बेबस है. बता दें कि याचिका में कपिल मिश्रा (Kapil Mishra), अनुराग ठाकुर (Anurag Thakur), परवेश वर्मा (Pravesh Verma) और अन्य पर कथित तौर पर दिल्ली में दंगे (Delhi Riots) भड़काने के लिए भड़काऊ भाषण देने के मामले में एफ़आईआर दर्ज करने की मांग की गई थी. याचिका की सुनवाई करते हुए सीजेआई एसए बोबडे (CJI S A Bobde ) ने कहा कि 'कोर्ट भी शांति चाहता है मगर उसे पता है कि उसके काम करने की भी कुछ सीमाएं हैं. इसमें यह तथ्य भी है कि कोर्ट तभी आदेश दे सकता है, जब कोई घटना हो चुकी हो.

 S A Bobde, CJI, Delhi Riots, Supreme Court, Hate Speech  दिल्ली दंगों के सन्दर्भ में जो बातें कोर्ट में हुई हैं वो विचलित करने वाली हैं

कोर्ट में याचिका एक्टिविस्ट हर्ष मंडेर की तरफ से डाली गई थी. पेटीशन पर चर्चा करते हुए चीफ़ जस्टिस एसए बोबडे ने ये भी कहा कि, 'हमारा मतलब यह नहीं है कि लोगों को मरने देना चाहिए. हममें इस तरह का दबाव झेलने की क्षमता नहीं है. हम घटनाओं को होने से रोक नहीं सकते. हम पहले से कोई राहत नहीं दे सकते. हम एक तरह का दबाव महसूस करते हैं. हम कोई घटना हो जाने के बाद ही हालात से निपट सकते हैं, इस तरह का दबाव होता है हमारे ऊपर, हम इसका सामना नहीं कर सकते. साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि कोर्ट इस तरह की चीज़ें नहीं रोक सकती.

सुनवाई के दौरान देश की सर्वोच्च अदालत में तमाम बातें हुई हैं और उन बातों में जैसा रवैया देश के सीजेआई का रहा है कहीं न कहीं इस बात की अनुभूति हो जाती है कि जब बात 'ऊपरी दबाव' की होती है तो हमारा कोर्ट लाचार है. बातें क्योंकि दिल्ली दंगों के सन्दर्भ में हुई हैं बहस का मुद्दा नेताओं पर एफआईआर दर्ज करना रहा है तो इस स्थिति में हम चुनाव आयोग को नहीं भूल सकते.

दिल्ली में चुनाव हुए अभी ज्यादा समय नहीं बीता है और उस दौरान चुनाव आयोग की खूब आलोचना हुई थी. अब जबकि कोर्ट की तरफ से ये स्टेटमेंट आ गया है तो मिलता है कि इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट के मुकाबले चुनाव आयोग कहीं ज्यादा सशक्त है. हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि भले ही दो तीन दिन के लिए रहा हो, मगर चुनाव आयोग ने इतनी हिम्मत तो जुटाई कि विवादित बयान देने वाले नेताओं के प्रचार को दो तीन दिन बैन किया जा सके.

यानी जब जब बात विवादित बयान की आई तो चुनाव आयोग मजबूर नहीं था. भले ही उसके पास सीमित शक्तियां रही हों लेकिन उसने उन शक्तियों का इस्तेमाल किया और हमने प्रवेश वर्मा से लेकर  कपिल मिश्रा तक को चुनाव प्रचार के दौरान अपने अपने घरों में बैठा देखा.

बाकी बात हेट स्पीच की हुई है तो मिलता है कि देश की अदालतें इस मामले में तब तक गंभीर नहीं होंगी जब तक इस मामले में मौजूदा कानून को और शख्त नहीं किया जाता. बता दें कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जो कानून अभी मौजूद है उसमें तमाम खामियां हैं और कोई भी बड़ी ही आसानी के साथ इनको ठग कर आगे बढ़ सकता है.

मौजूदा वक़्त में इस कानून में दो धाराएं सेक्शन 153(A)  और सेक्शन 295(A) हैं यदि हम  सेक्शन 153(A) पर नजर डालें तो मिलता है कि धारा 153 ए का उद्देश्य उन व्यक्तियों को दंडित करना है, जो कि किसी विशेष समूह या वर्ग या धर्म के व्यक्ति के साथ, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि पर अभद्रता करते हैं. धर्म के संस्थापक या पैगंबर को लेकर अपशब्द कहते हैं. इस धारा के अंतर्गत तीन साल की सजा जुर्माने या फिर दोनों का प्रावधान है.

जबकि 295(A) में धार्मिक भावना को आहात करने पर बल दिया गया है. इस धारा के अंतर्गत कोई व्यक्ति यदि दोषी पाया जाता है तो उसे भी तीन साल की सजा मिल सकती है या फिर जुर्माना और सजा दोनों हो सकता है. दिलचस्प बात ये है कि व्यक्ति थोड़ा इधर उधर निकल कर इन दोनों ही धाराओं से बच सकता है जैसा कि हाल फिलहाल में देखने को मिला है.

बहरहाल अब देश के सीजेआई ने खुद कई मिथक तोड़ दिए हैं अब हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम चुनाव आयोग की आलोचना में अपनी ऊर्जा नष्ट करें. जैसी चुनाव आयोग की हैसियत है वो उस लिहाज से काम पूरी ईमानदारी के साथ कर रहा है.

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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