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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 08 मई, 2019 07:01 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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लोकतंत्र को बचाने के नाम पर न्यायपालिका का एक ऐतिहासिक सफर जहां से शुरू हुआ था - लगता है घूम फिर कर एक बार फिर उसी मोड़ पर पहुंच गया है. करीब सवा साल पहले 12 जनवरी, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने एक प्रेस कांफ्रेंस कर न्यायपालिका से जुड़े सवालों के जरिये लोकतंत्र पर खतरे की आशंका जतायी थी. उन चार जजों में मौजूदा मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई भी विरोध की एक आवाज के रूप में शामिल थे. बाद में जब जस्टिस रंजन गोगोई मुख्य न्यायाधीश बने तो लोकतंत्र की सेहत को लेकर फिक्र थोड़ी कम हो गयी थी - क्योंकि चारों जजों में से एक जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने जस्टिस गोगोई की नियुक्ति को लेकर आशंका जतायी थी. तब तो लगा कि लोकतंत्र बाल बाल बच गया, लेकिन अब फिर से लगने लगा है लोकतंत्र अब भी खतरे से बाहर नहीं है.

ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश को यौन उत्पीड़न के आरोप में किसी जांच समिति के सामने पेश होना पड़ा है. वैसे तो जस्टिस रंजन गोगोई को क्लीन चिट मिल चुकी है - लेकिन अफसोस की बात ये है कि सवालों का सिलसिला खत्म होने की जगह बढ़ता ही जा रहा है. मुख्य न्यायाधीश को मिली क्लीन चिट का काफी विरोध हो रहा है - और सुप्रीम कोर्ट के बाहर विरोध प्रदर्शन हुए हैं. कई दर्जन महिला प्रदर्शनकारी हिरासत में भी लिये गये.

ऐसा क्यों लगता है कि सुप्रीम कोर्ट CJI के खिलाफ लगे यौन शोषण के मामले को और भी बेहतर तरीके से हैंडल कर सकता था - और शायद लोकतंत्र पर लटकते खतरे की नौबत भी अपनेआप जा चुकी होती?

सवाल क्यों उठ रहा है?

देर से मिला इंसाफ ही नहीं, हड़बड़ी वाला भी उसी गति को प्राप्त होता है. क्या यही वजह है कि मुख्य न्यायाधीश को क्लीन चिट देने को लेकर सवाल खड़ा किया जाने लगा है?

देश के संविधान के अनुसार विधायिका सर्वोपरि है, लेकिन ये न्यायपालिका ही है जो सिस्टम के खिलाफ भी आम इंसान को इंसाफ दिलाती है - और इतनी बड़ी ये जिम्मेदारी सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के नहीं देश के मुख्य न्यायाधीश पर होती है. न्यायपालिका आम इंसान के इंसाफ पाने की आखिरी उम्मीद होती है.

आखिर ये इस मुल्क की न्यायपालिका ही तो है जो आधी रात को अदालत लगा कर एक आतंकवादी को अपील का मौका मुहैया कराती है, तो सरेआम हमला करने वाले दुश्मन देश के दहशतगर्द मोहम्मद अजमल आमिर कसाब को भी फेयर ट्रायल का हर मौका बख्शती है.

फिर सुप्रीम कोर्ट की ही कर्मचारी रह चुकी एक महिला आखिर क्यों इंसाफ से नाउम्मीद हो जाती है?

वो महिला जो कभी उसी सु्प्रीम कोर्ट की कर्मचारी होती है और मामूली ही सही लेकिन इंसाफ मुहैया कराने में कभी एक किरदार रही होती है. बाकियों की बात छोड़ भी दें तो उस महिला की उम्मीदें क्यों टूटनी चाहिये?

cji justice ranjan gogoiलोकतंत्र बचाने की जिम्मेदारी भी तो है...

19 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट के 22 जजों के पास एक पत्र पहुंचा जिसमें बतौर जूनियर कोर्ट असिस्टेंट काम कर चुकी एक महिला ने अपनी आपबीती शेयर किया था. महिला का आरोप है कि जस्टिस गोगोई का विरोध करने के कारण उसकी पूरी जिंदगी ही बदल गयी. 35 साल की इस महिला ने यौन शोषण के अलावा ये भी आरोप लगाया कि एक दिन की छुट्टी लेने के चलते उसे नौकरी से निकाल दिया गया. दिल्ली पुलिस में कार्यरत उसके पति और देवर को सस्पेंड कर दिया गया और उसके उस रिश्तेदार को भी नौकरी से हटा दिया गया जिसे विवेकाधीन कोटे के तहत जस्टिस गोगोई ने ही नौकरी दिलवाई थी.

बकौल CJI जस्टिस रंजन गोगोई इसे 'न्यायपालिका को कमजोर करने की साजिश' मान भी लें तो क्या आरोप लगाने वाली महिला को निष्पक्ष सुनवाई का मौका नहीं मिलना चाहिये?

क्या कोई शख्स खुद ही अपने मामले में जज हो सकता है? बिलकुल नहीं. ये नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत है. ये सही है कि अपने ऊपर ऐसे इल्जाम सुन कर जस्टिस गोगोई को बहुत गुस्सा आया होगा. आरोपों को खारिज करने के तरीके में भी इस बात का एहसास हुआ.

क्या जस्टिस गोगोई से इससे कहीं ज्यादा की अपेक्षा नहीं होनी चाहिये? जस्टिस गोगोई का तो पूरा जीवन ही ऐसी बातें सुनते हुए गुजरा है. जब भी किसी पर आरोप लगता है तो वो इसी तरीके से आरोपों को बेबुनियाद और खुद को बेकसुर बताता है - लेकिन क्या जस्टिस गोगोई कभी किसी की ऐसी बात सुन कर मान लेंगे या अपने साथी जजों को भी इस बात की इजाजत देंगे?

यौन शोषण के आरोप के बाद जस्टिस गोगोई की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है. जज खुद भी तो एक इंसान ही होता है. व्यक्तिगत तौर पर जस्टिस गोगोई की प्रतिक्रिया स्वाभाविक लगती है, लेकिन बतौर जज बिलकुल अप्रत्याशित है.

निजी हैसियत से ऐसा रिएक्शन जस्टिस गोगोई के किसी सार्वजनिक बयान का हिस्सा हो सकता था. निजी हैसियत से ये रिएक्शन या बयान मामले की सुनवाई कर रही पीठ के सामने उचित होता, लेकिन जस्टिस गोगोई ने ये सब न्यायिक शक्तियों से लैस रहते किया है.

आखिर एमजे अकबर भी तो आरोपों को ऐसे ही खारिज कर रहे थे. एमजे अकबर ने भी अपने खिलाफ यौन शोषण के आरोपों को बकवास बताया था - लेकिन उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देना ही पड़ा. इस्तीफा देने की वजह राजनीतिक भी हो सकती है, लेकिन एक बड़ी वजह न्याय प्रक्रिया में अपने पद का प्रभाव न होने देना और ट्रायल में निजी हैसियत से सहयोग करना भी होता है. एमजे अकबर फिलहाल ट्रायल फेस कर रहे हैं और हाल ही में उनका बयान दर्ज किया गया है.

CJI के खिलाफ यौन शोषण के मामले में चीफ जस्टिस को क्या करना चाहिये था, किसी और मशवरा देने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि इसे न्यायपालिका भली भांति समझती है. क्या हुआ या क्या होना चाहिये या क्या नहीं होना चाहिये इससे भी किसी को कोई मतलब न है न होने की दरकार है. सर्वोच्च अदालत को जो उचित लगता है उसे करना चाहिये और किसी को ऐतराज भी नहीं हो सकता - लेकिन उसी वक्त ये भी तो सुनिश्चित होना चाहिये कि पीड़ित का पक्ष पूरी तरह सुना जाये और हर सूरत में इंसाफ मिले ही.

एक सवाल न्यायपालिका की आंतरिक समिति की रिपोर्ट को लेकर भी उठ रहा है. समिति ने रिपोर्ट की कॉपी चीफ जस्टिस को तो दी है, लेकिन आरोप लगाने वाली महिला को नहीं. रिपोर्ट की कॉपी चीफ जस्टिस को पार्टी होने के चलते दी गयी है या व्यवस्था के मुख्य गार्जियन होने के नाते, इससे भी किसी कोई गिला नहीं. मगर, पीड़ित को रिपोर्ट की कॉपी देने में सीनियर वकील इंदिरा जयसिंह के केस का हवाला दिया गया है - लेकिन वो तब का वायका जब RTI कानून लागू नहीं हुआ था.

judges press conferenceलोकतंत्र खतरे से बाहर क्यों नहीं आ रहा है?

पूर्व सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलू भी आंतरिक समिति की रिपोर्ट को सार्वजनिक किये जाने के पक्ष में हैं. पूर्व सूचना आयुक्त का कहना है कि जनहित में लोगों को ये जानने का अधिकार है - और अगर लगता है कि खासकर यौन उत्पीड़न की शिकायतों के विवरण सार्वजनिक नहीं किए जा सकते तो संपादित कर रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी चाहिए. इंदिरा जयसिंह ने भी कमेटी की रिपोर्ट को जनहित में सार्वजनिक करने की मांग की है.

समिति के इस रवैये पर सवाल उठानेवालों में सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व न्यायाधीशों के भी बयान मीडिया में आये हैं. उच्चतम न्यायालय के मौजूदा न्यायाधीश जस्टिस डीवी चंद्रचूड़ ने भी उस पर सवाल उठाये हैं.

एक बड़ा मौका यूं ही क्यों गवां दिया गया

ये मामला बेहद दुर्भाग्यपूर्ण रहा, लेकिन न्यायपालिका के लिए एक बेहतरीन मौका भी था. बेशक अपराधियों में न्यायपालिका को लेकर डर होना चाहिये, लेकिन आम लोगों में विश्वास के साथ साथ श्रद्धा भी होनी चाहिये. कोर्ट की अवमानना के डर से अक्सर चुप रह जाने वाले लोगों के मन में भी सवाल क्यों हैं?

अगर चीफ जस्टिस को इस बात का शक है कि ये सब एक साजिश के तहत हो रहा है तो इसकी जांच होनी चाहिये - और साजिश को बेनकाब कर साजिशकर्ताओं को सजा दी जानी चाहिये. भले ही वे कोई भी और कितने भी प्रभावशाली क्यों न हों? आखिर देश की खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों को भी कोर्ट में इसी मकसद से तलब किया गया था. सिर्फ ये बता कर कि ये आरोप बड़ी साजिश का हिस्सा है - आरोप लगाने वाली महिला को फेयर ट्रायल से महरूम किया जा सकता है क्या?

भारत की न्यायिक व्यवस्था इतने ऊंचे मानदंडों वाली है कि आतंकवादियों को भी निष्पक्ष न्याय हासिल करने का पूरा मौका देती है - लेकिन इस केस में इतनी हड़बड़ी क्यों नजर आ रही है? क्या सवाल उठाये जाने की मूल वजह यही नहीं है? चलिये एकबारगी मान लेते हैं कि आरोप लगाने वाली महिला किन्हीं साजिश रचने वालों का मोहरा है - तब भी तो उसे सुनवाई का निष्पक्ष मौका दिया जाना उसका संवैधानिक अधिकार है.

बेहतर तो ये होता कि लोकतंत्र और न्यायपालिका को बचाने की खातिर मीडिया के जरिये जनता की अदालत में आने वाले जस्टिस रंजन गोगोई कोई बेमिसाल कदम उठाये होते और पूरी दुनिया के सामने नजीर पेश करते - क्यों भारतीय न्यायपालिका दुनिया की सर्वोत्तम न्यायपालिका है?

सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के लाइव टेलीकास्ट का इससे बढ़िया मौका क्या हो सकता था? देश के मुख्य न्यायाधीश को तो इसी मामले से कोर्ट की कार्यवाही के सजीव प्रसारण के इंतजाम करने चाहिये थे. ये देखना कितना दिलचस्प होता कि कैसे न्यायपालिका का सबसे बड़ा ओहदेदार अदालत की पीठ के साथ वैसे ही पेश हो रहा है जैसे देश का कोई भी अदना सा आम आदमी.

फिर तो दुनिया में कोई भी शख्स ऐसा न होता जिसके मन में एक वाक्य नहीं गूंजता - 'योर ऑनर! तुसी ग्रेट हो. सबसे ग्रेट हो.'

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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