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Updated: 24 सितम्बर, 2021 09:04 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मांझी का काम होता है, मुसीबतों की वैतरणी पार करा देना - और यही उससे सबसे बड़ी उम्मीद होती है. जीवन के सफर में भी और बाकी मुश्किलों के दौर में भी. जैसे जीवन में कई आयाम देखने को मिलते हैं, राजनीति में भी ऐसे कई रूप देखने को मिलते हैं.

बिहार में ऐसे ही ही एक मांझी हैं - पूरा नाम जीतनराम मांझी है. अब तो उनकी भूमिका बदल चुकी है, लेकिन हम उनके पहले वाले रोल को याद करना चाहते हैं और फिलहाल पंजाब कांग्रेस के प्रसंग में.

एक दौर रहा जब जीतनराम मांझी का राजनीतिक अवतार भी तमिलनाडु के ओ. पनीरसेल्वम जैसा लगता था. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी को पनीरसेल्वम की तरह इस्तेमाल करना चाहा था, लेकिन ज्यादा दिन नहीं लगे और वो नीतीश कुमार के जी का जंजाल बन गये. बड़ी मुश्किल से नीतीश कुमार को मांझी के प्रभाव से निजात मिली थी. वैसे वक्त का पहिया घूमता रहा और एक दिन वो भी आया जब मांझी को फिर से नीतीश कुमार की शरण लेनी पड़ी. अब तो मांझी पूरी तरह नीतीश कुमार की शरण में स्थापित हो चुके हैं - और अपने अलग राजनीतिक दल और अस्तित्व के बावजूद वो जेडीयू के बाकी प्रवक्ताओं की तरह नीतीश कुमार के राजनीतिक विरोध की भड़ास को जब तब रिलीज करते रहते हैं.

पंजाब में मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी (Charanjit Singh Channi) को भी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने मांझी की तरह ही लॉन्च किया है. सोनिया गांधी हर हाल में कैप्टन अमरिंदर सिंह से छुटकारा पाना चाहती थीं. 2017 के चुनावों से पहले भी सोनिया गांधी को मजबूरी में राहुल गांधी के खिलाफ जाकर कैप्टन की बात माननी पड़ी थी.

नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) के लिए कैप्टन अमरिंदर सिंह ही राह का रोड़ा बने हुए थे और चरणजीत सिंह चन्नी के सामने आने के बाद नवजोत सिंह सिद्धू के लिए रास्ता साफ हो सका. ऐसा नहीं कि ये सब सिर्फ नवजोत सिंह सिद्धू के लिए ही किया गया, बल्कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा भी चाहते थे कि ऐसा ही कुछ हो.

कैप्टन को हटाने में एक डर ये भी था कि कहीं चुनावों में सत्ता से हाथ न धोना पड़े. चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने के बाद अब कांग्रेस नेतृत्व को निश्चित तौर पर पक्की उम्मीद होगी कि सिद्धू और कैप्टन के झगड़े के चलते सत्ता में लौटने की आस जो दूर होती चली जा रही थी, वो थोड़ी कम दूर नजर आ रही होगी.

जैसे 2017 के चुनावों में प्रशांत किशोर कांग्रेस की सरकार बनाने के मकसद से कैप्टन अमरिंदर सिंह को सलाह दे रहे थे, अघोषित तौर पर लगता है इस बार कैप्टन को छोड़ कर राहुल गांधी के लिए काम शुरू कर चुके हैं. चूंकि ऐसी कोई औपचारिक घोषणा नहीं की गयी है, इसलिए हो सकता है ऐसा वास्तव में नहीं भी हुआ हो, लेकिन गांधी परिवार के हालिया फैसले तो ऐसे ही लगते हैं जैसे उनके पीछे प्रशांत किशोर का ही दिमाग चल रहा हो. ये भी हो सकता है कि राहुल गांधी के सलाहकारों की टीम प्रशांत किशोर की रणनीतियों की वैसे ही कॉपी करने की कोशिश कर रही हो जैसे राहुल गांधी भी कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कभी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कॉपी करते हुए नजर आते हैं.

कैप्टन अमरिंदर सिंह का काफी सोच समझ कर सकारात्मक प्रतिक्रिया ही देना बता रहा है कि चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाये जाने का कांग्रेस नेतृत्व का फैसला बेहतरीन है - लेकिन तस्वीर के दूसरे पहलू पर नजर डालें तो चुनाव नतीजे आने के बाद ये दांव उलटा भी पड़ सकता है.

'दर्शानी घोड़ा' तो चन्नी भी नहीं हैं

चरणचीत सिंह चन्नी भी जीतनराम मांझी की तरह दलित समुदाय से ही आते हैं. पंजाब में उनकी बिरादरी रामदसिया सिख के नाम से पहचानी जाती है. पंजाब से उत्तर प्रदेश पहुंच कर दलित राजनीति को नया कलेवर देने वाले कांशीराम भी रामदसिया सिख ही रहे, लेकिन दलितों की पंजाब में 32 फीसदी आबादी के बावजूद सत्ता की सीढ़ी तक पहुंच पाने का स्कोप नहीं नजर आया था - लंबे अरसे बाद सही कांग्रेस ने पंजाब में बीएसपी के संस्थापक कांशीराम के सपने को पूरा तो कर ही दिया है. हालांकि, बीएसपी नेता मायावती इसे कांग्रेस का चुनावी हथकंडा ही बता रही हैं.

navjot singh sidhu, charanjit singh channi, sonia Gandhi, rahul gandhiमजबूत हथियार पकड़ ढीली पड़ जाने पर बैकफायर भी करता है

पंजाब की चुनावी राजनीति में बीजेपी की दलित मुख्यमंत्री की पहल और बीएसपी के साथ गठबंधन करने वाले अकाली दल नेता सुखबीर सिंह बादल की सत्ता में आने पर दलित डिप्टी सीएम बनाने की घोषणा के बीच देखा जाये तो कांग्रेस की तरफ से ये मास्टरस्ट्रोक ही लगता है, लेकिन क्या वो मकसद भी पूरा हो पाएगा जिसके लिए इतने पापड़ बेले जा रहे हैं - फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यही है.

मायावती के रिएक्शन की अपनी राजनीतक वजह हो सकती है, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ने जो सोच कर चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया है, जरूरी नहीं कि वो हकीकत भी बन पाये.

पहला फीडबैक तो हरीश रावत के एक बयान पर रिएक्शन से ही मिल चुका है. बवाल इस हद तक हो गया कि कांग्रेस प्रवक्ता को मीडिया के सामने आकर पार्टी का स्टैंड साफ करना पड़ा है.

हरीश रावत ने मीडिया के सवाल जवाब के बीच बोल दिया था कि कांग्रेस पंजाब में पीसीसी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी. हरीश रावत ने कहा था, ‘मुख्यमंत्री चन्नी और उनके कैबिनेट सहयोगी पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी जिसके अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू हैं - और वो बहुत लोकप्रिय हैं.’

फिर सवाल खड़ा हो गया कि चरणजीत सिंह चन्नी को क्या वास्तव में दर्शानी घोड़ा बनाया गया है - क्योंकि सिद्धू तो अपने बारे में पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि उनको ऐसे रूप में तो कतई न देखने की कोशिश की जाये, वरना, ईंट से ईंट खड़काते देर नहीं लगने वाली. जिस हिसाब से कांग्रेस नेतृत्व सिद्धू के सरेआम ललकारने के बाद भी सब उनके मनमाफिक कर रहा है, ये बात साबित भी हो जाती है.

फर्ज कीजिये मांझी की तरह चन्नी भी फैल गये

एक बात तो समझने में मुश्किल नहीं होनी चाहिये - चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब कांग्रेस के प्रधान नवजोत सिंह सिद्धू भी वैसे ही चवन्नी समझने की भूल कर चुके हैं जैसे एक दौर में नीतीश कुमार के मन में भी जीतनराम मांझी को लेकर कोई अवधारणा रही होगी, जो गलत साबित होने में भी देर नहीं लगी थी.

बरसों बाद भी नवजोत सिंह सिद्धू की राजनीति पर क्रिकेट हावी रहता है. पहला प्यार जो है और पहले प्यार का हाल ऐसा ही होता है. जिस दिन पंजाब कांग्रेस के प्रधान के तौर पर सिद्धू की ताजपोशी हो रही थी, सिद्धू के हाव-भाव वैसे ही देखने को मिले थे जैसे वो राजनीति नहीं बल्कि क्रिकेट की पिच पर फिर से उतर गये हों और हरीश रावत को भी ऐसा ही लगा था जब उनके आलाकमान को ललकारने की बात हुई तो बोले, सिद्धू अक्सर चौके की जगह छक्का जड़ देते हैं.

क्रिकेट की भाषा में समझना चाहें तो कैप्टन को किनारे करने के लिए सिद्धू को एक नाइट वाचमैन की ही जरूरत थी - और राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के जिद पकड़ लेने के बाद सोनिया गांधी को भी ऐसी ही तलाश रही होगी - लेकिन क्या सिद्धू से लेकर सोनिया गांधी तक चाहकर भी चन्नी को हल्के में ले पाएंगे?

अब ये समझने की जरूरत तो नहीं ही होनी चाहिये कि चरणजीत सिंह चन्नी कांग्रेस की पहली पसंद तो नहीं ही थे. सुनील जाखड़ की नाराजगी ही बता रही है कि पंजाब के मुख्यमंत्री पद के पहले दावेदार तो वही थे. हो सकता है सिद्धू के लिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाये जाते वक्त नाराजगी को टालने के लिए कोई बड़ा आश्वासन भी मिला हो. सच तो ये भी है कि सुनील जाखड़ बाद में सुखजिंदर सिंह रंधावा से पिछड़ गये.

वैसे भी चन्नी से पहले गांधी परिवार की करीब अंबिका सोनी का नाम भी यूं ही नहीं उछला था. कैप्टन की जगह मुख्यमंत्री पद के लिए अंबिका सोनी के नाम पर विचार ही कांग्रेस की रणनीति को साफ कर देता है - चुनाव बाद सत्ता में लौटने तक कांग्रेस को एक ऐसा चेहरा चाहिये था जिसके नाम पर आम राय बन सके. अंबिका सोनी को भी पहली बार में ही असलियत समझ में आ गयी होगी, लिहाजा सेहत के बहाने पचड़े से दूर रहने का इंतजाम कर लिया.

जब अंबिका सोनी ने अस्थायी तौर पर मुख्यमंत्री बनने का मामला समझ कर इंकार कर दिया तो उनकी जगह चरणजीत सिंह चन्नी को लाना पड़ा. चन्नी तो पहले से ही इंतजार में बैठे हुए थे. वो बीजेपी के दलित मुख्यमंत्री के प्रस्ताव के आते ही विधायकों के साथ मीटिंग करने लगे थे और साथियों के साथ कांग्रेस की तरफ से भी अगले दलित मुख्यमंत्री की मांग शुरू कर चुके थे.

कैप्टन सिद्धू विवाद के बीच पहली बार थोड़ी शांति की झलक मिली थी तो बताया गया कि आलाकमान ने बागियों की डिमांड के मुताबिक तत्कालीन मुख्यमंत्री को 18 काम सौंपे थे. बाद में कैप्टन की तरफ से दावा किया गया है कि साढ़े चार साल में 88 फीसदी काम कर चुके हैं, बस 18 फीसदी बचे हैं.

ये तो मान कर चलना होगा कि चन्नी सरकार कैप्टन से छूटे अधूरे वादों को कार्यकाल के बचे हिस्से में पूरे करेगी. अगर चन्नी भी वे वादे पूरे कर पाने में नाकाम रहे तब तो कोई बात ही नहीं, लेकिन जिन कामों को लेकर कैप्टन पर अधूरे छोड़ने के आरोप लगे हैं - अगर चन्नी सरकार ने पूरे कर दिये तो क्या होगा?

कम से कम चुनाव तक तो कांग्रेस का हर कार्यकर्ता और नेता एक दलित को मुख्यमंत्री बनाने से लेकर पिछली सरकार के सारे वादे पूरे करने का ढिंढोरा तो पीटता ही रहेगा. वैसी सूरत में जब सत्ता विरोधी लहर भी कांग्रेस नेतृत्व के तमाम हालिया उपायों से खत्म हो चुकी होगी, चुनावी राह भी आसान होगी ही.

नीतीश कुमार ने तो जैसे तैसे मांझी को वक्त रहते हटा लिया था, लेकिन चुनाव जीत कर आने के बाद चन्नी के साथ वैसा करना सोनिया गांधी के लिए काफी मुश्किल होगा. नवजोत सिंह सिद्धू ने भी चन्नी को मांझी जैसा ही कमजोर समझ कर ही सपोर्ट किया है, लेकिन मांझी की तरह ही दलित होने के बावजूद चन्नी चुनावों में जीत की स्थिति में भारी पड़ सकते हैं.

और अगर वाकई ऐसी कोई नौबत आयी तब तो कैप्टन के मुकाबले चन्नी की बगावत से मुकाबला गांधी परिवार के लिए बेहद मुश्किल होगा. कैप्टन पर उम्र का भी असर रहा, लेकिन चन्नी राहुल गांधी से सिर्फ सात साल ही बड़े हैं, अभी युवा ही कहे जाएंगे. साथ ही, चन्नी के नाम के साथ पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री होने का तमगा लगा जुड़ा हुआ है - मतलब ये है कि सोनिया गांधी को ही नहीं, बल्कि सिद्धू को भी चन्नी को महज एक दर्शानी घोड़ा समझने की भूल करना बहुत भारी पड़ सकता है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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