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Updated: 25 जुलाई, 2020 10:14 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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कांग्रेस के भीतर बदलाव की तेज बयार बह रही है. राजस्थान में जो कुछ नजर आ रहा है वो कुछ हद तक उस आग का धुआं है जो अंदर धधक रही है. उत्तर प्रदेश के बाद कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों में उस बदलाव की झलक भी देखने को मिल चुकी है. दरअसल, 10 अगस्त को सोनिया गांधी का कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष (Congress President) के तौर पर कार्यकाल खत्म हो रहा है. आखिरी उपाय तो उसके बाद भी यही है कि जब तक संभव है CWC के जरिये अंतरिम अध्यक्ष का कार्यकाल बढ़ा दिया जाये - लेकिन अगर संभव हो तो बाकी विकल्प भी तलाश लिये जायें.

राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने को राजी न होने की सूरत में संदीप दीक्षित जैसे नेता तो कह ही चुके हैं कि कांग्रेस में कम से कम आधा दर्जन लोग हैं जो पार्टी की कमान संभाल सकते हैं और अपनी नेतृत्व क्षमता से उसे ऊपर भी ले जा सकते हैं. संदीप दीक्षित के बयान पर शशि थरूर का कहना रहा कि वो अधिकांश कांग्रेस नेताओं के मन की बात रही. मन की बात व्यक्त करने के तरीके भी अपने अपने हिसाब से अलग होते हैं. कपिल सिब्बल अंग्रेजी में कविता लिखते हैं, लिहाजा वैसे ही शब्दों में अपने भाव प्रकट करते हैं. राजस्थान मामले की सुनवाई के दौरान ही कपिल सिब्बल का कहना रहा - 'अब तो दर्द सहने की आदत पड़ चुकी है'. सचिन पायलट की बगावत के बाद भी कपिल सिब्बल का अंदाज ऐसा ही रहा - हम कब जागेंगे, जब घोड़े अस्तबल से निकल जाएंगे?

सोनिया गांधी के कार्यकाल की तारीख नजदीक आने के साथ ही राहुल गांधी को फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की मांग जोर पकड़ने लगी है - ध्यान देने वाली बात ये भी है कि राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की सबसे जोरदार डिमांड कोई और नहीं बल्कि अशोक गेहलोत (Sonia Gandhi) की तरह से हो रही है. मीटिंग का मुद्दा कुछ भी अशोक गेहलोत अपनी ये मांग मौका देखते पेश कर ही देते हैं. अशोक गेहलोत को इसमें फायदा भी साफ साफ नजर आ रहा है. आखिर सचिन पायलट को राजस्थान कांग्रेस में ठिकाने लगाने में गांधी परिवार से करीबी ही तो सबसे ज्यादा काम आयी है.

सबसे खास बात, राहुल गांधी की हालिया सक्रियता भी तो कुछ ऐसे ही इशारे कर रही है, जैसे वो फिर से कमान संभालने की तैयारी कर रहे हों - राहुल गांधी के नये वीडियो (Rahul Gandhi Videos) यूं ही तफरीह के लिए तो बनाये नहीं जा रहे होंगे. हैं कि नहीं?

पैकेजिंग बदलने से कुछ नहीं होता

जो बात अशोक गेहलोत, सचिन पायलट के लिए कह रहे हैं, देखा जाये तो वो राहुल गांधी पर कहीं ज्यादा लागू होता है - 'अच्छी अंग्रेजी बोलने से कुछ नहीं होता.'

राहुल गांधी के नये वीडियो भी आने शुरू हो चुके हैं और सभी अंग्रेजी में हैं. सब-टाइटल जरूर हिंदी में है. अब अगर राहुल गांधी केरल के वायनाड से सांसद बनने के बाद दक्षिण भारत पर फोकस कर रहे हैं तो बात और है, वरना हिंदी पट्टी के लोगों के लिए तो ये अजीब बात है. किसी भारतीय नेता के अंग्रेजी भाषण का हिंदी अनुवाद स्क्रीन पर पढ़ना. टेक्स्ट-डबिंग का तरीका डॉक्युमेंट्री और फिल्मों में काफी पहले से इस्तेमाल होता आ रहा है, लेकिन वो तरीका राजनीति में भी कारगर हो सकता है, ऐसा जरूरी तो नहीं. वो भी तब जब राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टक्कर देनी हो, जिनकी वाक्पटुता का लोहा दुनिया के बड़े से बड़े नेता मानते हैं.

rahul gandhi, sonia gandhi10 अगस्त के बाद कांग्रेस कौन सी राह पकड़ेगी?

सुना जा रहा है कि राहुल गांधी के वीडियो बनाने के लिए शूटिंग से लेकर पोस्ट-प्रोडक्शन तक सारे काम के लिए प्रोफेशनल हायर किये गये हैं. सूत्रों के हवाले से खबर आयी है कि राहुल गांधी के ऐसे 200-250 वीडियो तमाम मुद्दों पर आ सकते हैं. राहुल गांधी ने पहले ही ट्वीट कर बता भी दिया था कि वो महसूस कर रहे हैं कि मीडिया और अन्य लोग चीजों को ठीक से पेश नहीं कर रहे हैं, इसलिए वो खुद इतिहास और करंट अफेयर को लेकर सोशल मीडिया पर वीडियो पोस्ट करेंगे. अच्छी बात है, वीडियो आने भी लगे हैं - लेकिन ये तो समझ में नहीं ही आ रहा है कि अंग्रेजी में ज्ञान देकर राहुल गांधी किस ऑडिएंस को संबोधित करना चाहते हैं? जब ममता बनर्जी जैसी नेता मानते हों कि राष्ट्रीय स्तर पर वे इसलिए पिछड़ जाते हैं क्योंकि उनको अच्छी हिंदी नहीं आती. ये बात अलग है कि अशोक गेहलोत, प्रधानमंत्री मोदी को लेकर राहुल गांधी के 'डंडा मार' बयान में भी व्यंजना और व्यंग्य को हिंदी भाषा के माध्यम से समझा की कोशिश करने में पीछे नहीं रहते, लेकिन ऐसा वो कितनी बार कर सकते हैं. अगर राहुल गांधी चाहते हैं कि वो अंग्रेजी में ही वीडियो बनायें कोई बात नहीं, बेहतर तो ये होता कि वही बातें वो हिंदी में भी बोल देते - आखिर अंग्रेजी भाषण भी तो कोई और ही तैयार करता होगा. ये बात भी वो खुद ही एक बार शेयर कर चुके हैं, किसी करीबी सूत्र ने नहीं.

अपने ताजातरीन वीडियो में राहुल गांधी कहते हैं - 'बड़े स्तर पर सोचने से ही भारत की रक्षा की जा सकती है... सीमा विवाद भी है और हमें इसका समाधान भी करना है, लेकिन हमें अपना तरीका बदलना होगा. हमें अपनी सोच बदलनी होगी, इस जगह हम दोराहे पर खड़े हैं. अगर हम एक तरफ जाते हैं तो हम बड़ी भूमिका में आएंगे और अगर दूसरी तरफ चले गए हम अप्रासंगिक हो जाएंगे... मैं देख रहा हूं एक बड़ा मौका गंवाया जा रहा है. क्यों? क्योंकि हम दूर की नहीं सोच रहे. क्योंकि हम बड़े स्तर पर नहीं सोच रहे - और क्योंकि हम अपना आंतरिक संतुलन बिगाड़ रहे हैं. हम आपस में लड़ रहे हैं.'

सवाल है कि आपस में क्यों लड़ रहे हैं? अगर अनजाने में आपस में लड़ रहे होते तो बात और होती. जब पता है कि आपस में लड़ रहे हैं तो ऐसा क्यों है? और आपस में लड़ने का क्या मतलब है? आपस में लड़ना कैसे कहें, जब एक तरफ अकेली कांग्रेस है और दूसरी तरफ सरकार के साथ ज्यादातर विपक्षी दल हैं - कम से कम चीन के मुद्दे पर तो अब तक यही देखने को मिला है.

राहुल गांधी समझाते हैं - 'अगर आप उनसे निपटने के लिए मजबूत स्थिति में हैं तभी आप काम कर पाएंगे. उनसे वो हासिल कर पाएंगे, जो आपको चाहिए और ये वाकई किया जा सकता है, लेकिन अगर उन्होंने कमजोरी पकड़ ली, तो फिर गड़बड़ है. पहली बात आप बगैर स्पष्ट दृष्टिकोण के चीन से नहीं निपट सकते और मैं केवल राष्ट्रीय दृष्टिकोण की बात नहीं कर रहा. मेरा मतलब अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से है.'

ये तो ज्ञान की बातें हुईं - तत्व की बात इसमें कहां है? जब ये सब बताया जा रहा है तो ये कौन बताएगा कि करना क्या है? उपाय क्या है? ये तो कोई प्रोडक्ट बेचने की मार्केटिंग स्टाइल जैसा है. प्रोडक्ट खरीदो तो मालूम होगा - राजनीति में कोई ऐसी जोखिम क्यों उठाये - और कितनी बार उठाता रहे?

राहुल गांधी ने अपने वीडियो का फॉर्मैट बदल दिया है, लेकिन कंटेंट पुराना ही है. आखिर किसी को पुरानी चीजों में कितनी दिलचस्पी होगी और क्यों?

अगर सचिन पायलट की ही तरह राहुल गांधी पर भी टिप्पणी करने की स्थिति में अशोक गेहलोत होते यही कहते - अच्छी पैकेजिंग से कुछ नहीं होता!

बदलाव का ये होगा पैमाना

राहुल गांधी की तरफ से वीडियो सीरीज की तरह ट्विटर पर कोई घोषणा तो नहीं की गयी है, लेकिन सुनने में आ रहा है कि वो अपना पॉडकास्ट भी शुरू करने जा रहे हैं. राहुल गांधी के पॉडकास्ट को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रेडियो पर मन की बात के समानांतर समझा जा सकता है और उनकी बातों को काउंटर करने का जरिया भी - लेकिन वीडियो देखने को बाद कोई खास उम्मीद तो नहीं जग रही है.

सचिन पायलट का केस भी कांग्रेस के अंदरूनी झगड़े की वही फसल है जो राहुल गांधी ने काफी पहले बोयी थी. पंजाब से शुरू हुई ये कहानी हरियाणा में अशोक तंवर और मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया से होते हुए राजस्थान पहुंची है. कांग्रेस में जगह जगह अब जो बदलाव किये जा रहे हैं, वे भी पुराने जैसे विवादों की नयी पैकेजिंग ही लगती है.

गुजरात कांग्रेस की कमान अमित चावड़ा को भरत सिंह सोलंकी के इस्तीफे के बाद सौंपी गयी थी. जब गुजरात में हुए राज्य सभा चुनाव के नतीजे आये तो चर्चा रही कि वरिष्ठों की नाराजगी का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा है - अब हार्दिक पटेल को गुजरात प्रदेश कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया गया है. यूपी में तो जितिन प्रसाद जैसे कुछ नेताओं को छोड़ कर कोई खास दावेदार नहीं था, लेकिन अजय कुमार लल्लू को पीसीसी अध्यक्ष बना कर कांग्रेस ने एक तरीके से मैसेज देने की कोशिश की है. अजय कुमार लल्लू जब से कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये हैं तब से या तो जेल में रहे हैं या सड़कों पर संघर्ष करते और पुलिस हिरासत में.

गुजरात में हार्दिक पटेल और कर्नाटक में डीके शिवकुमार को भी आगे लाने के पीछे उनका सड़कों पर सक्रिय और भीड़ जुटाने में सक्षम होना ही लगता है. जिस वक्त पी. चिदंबरम को सीबीआई ने गिरफ्तार किया था, कुछ दिन बाद ही ईडी ने डीके शिवकुमार को भी हिरासत में ले लिया था - विरोध प्रदर्शन में डीके शिवकुमार के पक्ष में ज्यादा कांग्रेस कार्यकर्ता खड़े नजर आये थे.

माना जा रहा है कि कांग्रेस में संभावित फेरबदल का पैमाना भी यही हो सकता है जिसमें लड़ाई के मोर्चे पर अजय कुमार लल्लू, हार्दिक पटेल और डीके शिवकुमार जैसे नेताओं को आगे करने की रणनीति होगी. अब अगर कुछ नेता आगे किये जाएंगे तो जाहिर ऐसे बहुतेरे होंगे जो दरकिनार भी किये जा सकते हैं.

बदलाव के दौर में भी नपेंगे तो वही नेता जिनकी इम्युनिटी कमजोर होगी, वरना 'अस्तबल से घोड़े...' वाले ट्वीट के साथ जगाने की कोशिश में कांग्रेस नेतृत्व को नाराज तो कपिल सिब्बल ने भी किया ही होगा - लेकिन उनको कोई क्यों छुएगा. फिर कांग्रेस के मुकदमे कौन लड़ेगा?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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