New

होम -> सियासत

 |  4-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 19 मार्च, 2018 10:03 PM
आईचौक
आईचौक
  @iChowk
  • Total Shares

'चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात' ये कहावत तो आपने सुनी ही होगी, लेकिन इस कहावत को और भी प्रासंगिक बनाने का काम किया है हाल ही में आई अंतराष्ट्रीय स्तर पर विख्यात मीडिया कंपनी ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट ने. अभी तो उपचुनाव में मिली जीत के जश्न का ठीक से हैंगओवर भी नहीं उतरा होगा कि इस रिपोर्ट ने विपक्षी पार्टियों के माथे पर एक नई शिकन पैदा कर दी. इस रिपोर्ट के मुताबिक, नरेंद्र मोदी की सरकार का 2024 तक कोई 'बाल भी बांका' नहीं कर सकता और इसके बाद भी उनके बने रहने की संभावनाओं के बारे में भी सकारात्मक बातें ही कही गई हैं. तो क्या विपक्ष का ये धूम-धड़ाका और उत्साह के समंदर में गोते लगाना फ़िज़ूल है? एक बार इस रिपोर्ट की प्रासंगिकता को समझने की ज़रूरत है.

मोदी सरकार, भाजपा, राहुल गांधी, कांग्रेस, नरेंद्र मोदी

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब तमाम क्षेत्रीय पार्टियां एक बैनर के तले इकट्ठा हो रही हैं. बस अंतर इतना है कि पहले कांग्रेस के ख़िलाफ़ होती थीं, आज भारतीय जनता पार्टी के विरोध में खड़ी हो रही हैं. जब भी इनकी राजनीतिक हिस्सेदारी की मलाई को मुख्य केंद्रीय पार्टी छीन ले जाती है तब अचानक से इनको देश की संस्कृति और सामाजिक ताने-बाने पर एक खतरा महसूस होने लगता है और कल तक आपस में सिर-फुटव्वल करने वाले नेता भी एक मंच पर आकर गले मिलते हैं और मीडिया को विक्ट्री साइन दिखाते हुए मिठाई भी खाते हैं. यह भारतीय लोकतंत्र की एक शाश्वत सच्चाई है जिसका अनुपालन हर दौर के नेताओं ने किया है.

'एक अनार सौ बीमार'

राजनीतिक रसातल के मुहाने पर खड़ी कांग्रेस पार्टी आज इतनी असहाय हो गई है कि क्षेत्रीय पार्टियों के बिना उसके अस्तित्व की गुंजाइश दिखती ही नहीं. तभी तो बिहार और उत्तर प्रदेश के उपचुनाव के नतीजों पर सबसे ज़्यादा कांग्रेस के नेता ही इठलाते नज़र आए. उसके पहले ही कांग्रेस की राजमाता ने दिल्ली में 20 से ज्यादा दलों का सम्मलेन बुलाया और नरेंद्र मोदी से 2014 का बदला लेने की कसम खाई गई. लेकिन फिलहाल ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट ने तो विपक्ष के गोलमेज सम्मलेन को सिरे से ख़ारिज कर दिया है.

आख़िर ऐसा क्या है नरेंद्र मोदी में, जो जनता अभी भी उन पर दाव लगाना चाहती है. ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि वो हमेशा 'एक्टिव मोड' में नज़र आते हैं. परिश्रम की पराकष्ठा करते हैं और ये बात उनके विरोधी भी मानते हैं. हमेशा राष्ट्रवाद के रथ पर सवार रहते हैं और अपने जटिल फैसलों को भी राष्ट्रवाद से जोड़कर उसे राष्ट्रीय पर्व घोषित करने की क्षमता नरेंद्र मोदी के भीतर कूट-कूट के भरी हुई है. लगता है भावनात्मक लहरों पे सवार देश की जनता एक बार फिर से नमो चालीसा का ही पाठ करना पसंद करेगी, ऐसा ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट कह रही है.

एक निष्कर्ष ये भी निकलता है कि लोगों को महागठबंधन की नीयत और सफलता पर घनघोर शंका है. हो भी क्यों न, एक से बढ़कर एक तीस मार खान जो भरे पड़े हैं. अधिकांश नेताओं के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला चल रहा है, जगन मोहन रेड्डी जैसे भ्रष्टाचार के नियमित उपभोक्ता से लेकर लालू यादव तक जो कि भ्रष्टाचार के कई आरोपों में सज़ा सुनाए जाने के बावजूद अभी भी सामाजिक क्रांति के मसीहा होने का दावा कर रहे हैं. मोदी को हराने के लिए इन लोगों को अपनी विचारधारा को खूटी पर टांगने में कोई संकोच नहीं है. कांग्रेस के राजनीतिक चरित्र का इतिहास भी इस मामले में दागदार ही रहा है. 1996 से लेकर 1998 तक का सारा खेल तो आपको याद ही होगा.

ऐसे आज कल लोग बोलते हैं कि राहुल गांधी का पुर्नजन्म हुआ है, एक महारानी के घर में धरती-पुत्र पैदा हुआ है. अब देखना होगा कि ये पुत्र अपनी विरासत को बचाने के लिए अपनी तरकश से कौन सा तीर निकालता है. नए ज़माने का लड़का 'संयुक्त परिवार' को क्या चला पाएगा? इसी प्रश्न के साथ मैं आपको छोड़े जाता हूं. ऐसे एक बात तो है: दुल्हन एक है और दूल्हों की भरमार लगी है ज़ाहिर सी बात है, ग़दर मचना तय है.

कंटेंट- विकास कुमार (इंटर्न, इंडिया टुडे रिसर्च टीम)

ये भी पढ़ें-

दल-बदलू नेता 2019 लोकसभा चुनाव में कितने कारगर होंगे?

'वक्त है बदलाव का', मगर कांग्रेस के पैर क्यों जमे हुए हैं?

विपक्ष के गठबंधन कितनी बड़ी चुनौती है मोदी के लिए...

लेखक

आईचौक आईचौक @ichowk

इंडिया टुडे ग्रुप का ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय