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Updated: 07 मई, 2021 03:26 PM
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चुनाव कोई भी हो, बीजेपी अगर अयोध्या, मथुरा और काशी (Ayodhya Mathura Kashi) में भी हार जाये - तो क्या समझा जाये? वो भी तब जबकि यूपी में बीजेपी की सबसे बड़ी चुनौती 2022 के विधानसभा चुनाव में एक साल से भी कम वक्त रह गया हो!

यूपी में पंचायत चुनाव (UP Panchayat Election) अव्वल तो 2020 के आखिर में ही हो जाने चाहिये थे, लेकिन कोविड 19 के चलते मामला टलता रहा. आखिर कब तक यूं ही टलता रहता? मामला अदालत पहुंचा. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पंचायत चुनाव कराने के आदेश के साथ ही डेडलाइन भी तय कर दी, लेकिन ये सब तो काफी बाद में हुआ. बीजेपी ने तो पंचायत चुनाव की तैयारियां पहले ही शुरू कर दी थी.

एक तरफ किसान आंदोलन जोर पकड़ रहा था, और दूसरी तरफ बीजेपी नेता पंचायत चुनावों को लेकर हरकत में आ चुके थे. राकेश टिकैत के आंसू निकलने के बाद के महापंचायतों में बीजेपी के विरोधी दलों की सक्रियता जो बढ़ गयी थी. जनवरी, 2021 में सूबे के छह क्षेत्रों के लिए बीजेपी ने कमेटियां बना ली थी. ऐसी हर कमेटी में यूपी सरकार के एक मंत्री और एक सीनियर नेता को शामिल किया गया था. सीनियर नेता को स्थानीय पदाधिकारियों के प्रभारी के तौर पर काम करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी.

और सारी तैयारियां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath), बीजेपी के यूपी प्रभारी राधामोहन सिंह और राष्ट्रीय महासचिव अरुण सिंह की निगरानी में हो रही थीं. ये नेता ही तैयारियों की कदम कदम पर समीक्षा भी कर रहे थे.

वैसे तो बीजेपी नेता अमित शाह एमसीडी चुनाव भी महत्वपूर्ण चुनावों की तरह लड़ते देखे गये थे, लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव के बाद जिस तरह से हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में पूरे लाव लश्कर के साथ उतरे, समझना मुश्किल नहीं था कि बीजेपी के लिए छोटे से छोटा चुनाव भी आम चुनाव से कम महत्वपूर्ण नहीं होता - और ये पंचायत चुनाव तो यूपी में ही हो रहे थे जहां से होकर ही अब तक प्रधानमंत्री पद का रास्ता गुजरता हुआ माना जाता रहा है.

यूपी के पंचायत चुनाव में बंगाल जैसा हाल क्यों?

उत्तर प्रदेश में पंचायत स्तर पर चुनावी खेल खत्म हो चुका है - ये बात अलग है कि पश्चिम बंगाल में 'खेला' जारी है. चुनाव नतीजों में प्रत्यक्ष तौर पर यूपी में भी बंगाल की ही तरह झटके खाने के बाद बीजेपी परोक्ष रूप से होने वाले जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुखों का नंबर बढ़ाने की येन केन प्रकारेण प्रयास कर रही है.

जैसे विधानसभा चुनावों की तुलना आम चुनाव से ठीक नहीं होती, पंचायत चुनावों का तो मतलब भी नहीं बनता, लेकिन दो फैक्टर ऐसे हैं जो अहमियत हद से ज्यादा बढ़ा देते हैं - एक, अगले ही साल यूपी में विधानसभा चुनाव होने हैं और दो, बीजेपी बूथ लेवल पर मजबूती को ही अपनी राजनीतिक ताकत मानती है.

क्या पंचायत चुनाव के नतीजे ये संकेत दे रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी बूथ लेवल पर कमजोर पड़ने लगी है?

पंचायत चुनावों में एक बड़ा फर्क और होता है - उम्मीदवारों को पार्टियों का समर्थन हासिल होता है, न कि वे विधानसभा और लोक सभा चुनावों की तरह राजनीतिक दलों के चुनाव निशान पर लड़े जाते हैं.

yogi adityanath, narendra modi, amit shahबंगाल की बात और हो सकती है, लेकिन यूपी पंचायत चुनाव के नतीजों में तो बीजेपी को कोरोना संकट और किसान आंदोलन पर फीडबैक ही समझना चाहिये!

फर्क ये भी होता है कि पंचायत स्तर पर ज्यादातर लोग व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर अपनों के बीच पहुंच रह कर ही वोट मांगते हैं. ऐसा नहीं कि सिर्फ चुनाव आने पर ही उम्मीदवार बड़े बुजुर्गों के पैर छूते हैं, बल्कि ये उनके रूटीन का हिस्सा होता है. शादी-ब्याह से लेकर जन्म-मरण सभी प्रयोजनों तक में.

एक दलील हो सकती है कि पंचायत चुनाव कोई उम्मीदवार अपने निजी संबंधों के आधार पर चुनाव जीतता है, लेकिन ये भी तो है कि वो किस राजनीतिक विचारधारा का समर्थक है. विचारधारा का समर्थक भी वो अपनी सोच के आधार पर है या राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति भर के लिए?

ऐसी स्थिति में ये समझना मुश्किल हो सकता है कि यूपी के पंचायत चुनाव में किस पार्टी को कितनी सीटें मिली हैं - बीजेपी के हिस्से में कितनी सीटें आयी हैं और बाकियों के समर्थन वाले कितने उम्मीदवार जीत कर आये हैं?

सभी राजनीतिक दलों के अपने अपने दावे हैं - बीजेपी के भी और समाजवादी पार्टी के भी. ऐसे ही बीएसपी, कांग्रेस, आरएलडी, आप और भीम आर्मी के भी. हालांकि, ये लगने लगा है कि केंद्र और राज्य की सत्ता में होने के बावजूद बीजेपी यूपी में समाजवादी पार्टी से पिछड़ गयी है.

बीजेपी की तरफ से जिला पंचायत सदस्य के चुनाव में 900 सीटें जीतने का दावा किया गया है - और इसे ऐसे समझा जा रहा है कि 3050 सीटों में से करीब 2000 बीजेपी हार गयी है - बीजेपी की ही तरह अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने जिला पंचायतों की 1000 सीटें जीतने का दावा किया है.

मायावती की बीएसपी का कहना है कि उसके समर्थन वाले 300 जिला पंचायत सदस्य चुनाव जीत कर आये हैं - और कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने 100 से कम सीटें जीतने के दावे किये हैं. जाहिर है बाकी सीटें, यानी सबसे ज्यादा सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत हासिल की है.

तकनीकी तौर पर निर्दलीय तो सभी हैं, लेकिन घोषित तौर पर जिन उम्मीदवारों को किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन हासिल नहीं था, वे निर्दलीय माने जा रहे हैं - लेकिन उसमें भी एक खास बात ये सामने आ रही है कि काफी निर्दलीय उम्मीदवार राजनीतिक दलों का समर्थन न मिलने पर बगावत करते हुए चुनाव लड़े और जीत गये हैं.

इंडियन एक्स्प्रेस के मुताबिक, अयोध्या में जिला पंचायत की 40 में से महज 8 सीटों पर बीजेपी को कामयाबी मिल पायी है. एक रिपोर्ट के अनुसार, वाराणसी की 40 जिला पंचायत सीटों में से सिर्फ 8 पर ही बीजेपी के समर्थन वाले उम्मीदवार चुनावी वैतरणी पार कर पाये हैं. अयोध्या और वाराणसी की ही तरफ मथुरा में भी बीजेपी को संयोग से 8 सीटें ही हासिल हो पायी हैं. अयोध्या और वाराणसी में तो पहले नंबर पर समाजवादी पार्टी नजर आ रही है, लेकिन मथुरा में बीएसपी ने बाजी मार ली है.

ये नतीजे भी तो बीजेपी को बंगाल चुनाव जैसे ही जख्मों का एहसास करा रहे होंगे - और ऐसी हालत में लगता तो नहीं कि 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के लिए सत्ता में वापसी आसान होने वाली है. पहले तो ऐसा लग रहा था जैसे यूपी में बीजेपी के सामने विपक्षी खेमे से कोई चुनौती है ही नहीं, लेकिन पंचायत चुनाव में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने जो अंगड़ाई दिखायी है, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ साथ बीएसपी नेता मायावती के लिए भी बहुत ही ज्यादा चिंता वाली बात है.

योगी के कामकाज पर जनता का फीडबैक नहीं तो क्या है?

जीत की बात और होती है, हार के बाद नये तर्क गढ़ने होते हैं. जैसे बंगाल के लिए नयी दलीलें रातों रात तैयार कर ली गयीं. भले ही बीजेपी नेता पंचायत चुनाव को मिशन 2022 के हिसाब से सेमीफाइनल न मानें. भले ही बीजेपी पंचायत चुनाव के नतीजों को अब कोरोना काल में योगी आदित्यनाथ के कामकाज पर जनमत संग्रह होने की बात खारिज कर दे, लेकिन जीत की हालत में तो ऐसी बातें सुनने को नहीं ही मिलतीं.

मान लेते हैं काशी और मथुरा विश्व हिंदू परिषद और RSS के एजेंडे में फिलहाल नहीं है, लेकिन अयोध्या के बारे में क्या कहेंगे?

ये ठीक है कि अयोध्या के राम मंदिर निर्माण की तरह काशी ऐसे किसी धार्मिक आंदोलन का केंद्र नहीं बना है, लेकिन वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र भी तो है. जितने जोर शोर से कोरोना काल में ही 5 अगस्त, 2020 को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन हुआ. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और देश के एक मात्र मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मौजूद रहे.

बाकी राजनीतिक दलों पर भी अयोध्या में भूमि पूजन के आयोजन का असर ऐसा रहा कि लगा जैसे देश हिंदू राष्ट्र तो पहले ही बन चुका है. धर्मनिरपेक्षता की राजनीति तो जैसे बीते दिनों की बात हो चली है - और तो और कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के भी ट्वीट आस्था और श्रद्धा से लबालब नजर आ रहे थे.

आखिर उसी अयोध्या में हुए पंचायत चुनाव में बीजेपी का ये हाल क्यों हुआ? मथुरा को छोड़ भी दें तो प्रधानमंत्री मोदी के इलाके बनारस में ये बीजेपी का इतना बुरा हाल क्यों हुआ?

ये बड़े ही ज्वलंत सवाल हैं जो फिलहाल बीजेपी में नीचे से लेकर ऊपर तक ब्लड प्रेशर बढ़ा रहे होंगे - क्योंकि योगी आदित्यनाथ तो मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही अयोध्या से लेकर मथुरा तक एक किये रहते हैं. अयोध्या में दिवाली मनाते हैं तो मथुरा में होली खेलते रहे हैं, लेकिन अखिलेश यादव दोनों ही जगह पांव पसारते नजर आ रहे हैं. गठबंधन टूटने के बावजूद बीएसपी भी पीछे पीछे लगी हुई है और बीजेपी तक को पछाड़ दे रही है - भले ही मायावती बीजेपी के लिए कांग्रेस से लड़ती रहती हों.

अयोध्या, काशी और मथुरा की ही तरह चित्रकूट तक में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा है. धर्म की राजनीति के जरिये केंद्र की सत्ता में पहुंचने के बाद ज्यादातर सर्वोच्च सरकारी पदों पर संघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं के काबिज होने के बावजूद बीजेपी को जमीनी स्तर पर हार मिल रही है.

योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर में विरोधियों की बराबरी में खड़े रहने के लिए बीजेपी को जूझना पड़ा है. डिप्टी सीएम केशव मौर्या के प्रभाव क्षेत्र वाले प्रयागराज और दिनेश शर्मा के लखनऊ में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने कड़ी शिकस्त दे डाली है.

कोरोना को लेकर अपनी ही सरकार के इंतजामों पर सवाल उठा चुके मोहनलालगंज के सांसद कौशल किशोर की बहू जिला पंचायत सदस्य का चुनाव हार गयी हैं. बलिया में बेल्थरा रोड के विधायक धनंजय कन्नौजिया की मां सूर्य कुमारी देवी भी चुनाव हार गयी हैं. मथुरा में बीजेपी के पूर्व विधायक प्रणतपाल सिंह के बेटे चुनाव हार गये हैं. योगी के कैबिनेट साथी रमापति शास्त्री के भतीजे ग्राम प्रधान तक नहीं बन सके हैं - जिस रायबरेली को कांग्रेस मुक्त बनाने में बीजेपी जी जान से जुटी है, जिला पंचायत अध्यक्ष रह चुकीं एमएलसी दिनेश प्रताप सिंह के भाई की पत्नी को भी शिकस्त झेलनी पड़ी है.

यूपी के पंचायत चुनावों पर किसान आंदोलन के असर को लेकर तो पहले से ही अंदाया लगाया जाने लगा था, लेकिन लगता है कोरोना संकट में लोगों की जरूरतों को हल्के में लेना योगी आदित्यनाथ को भारी पड़ रहा है. कोरोना वायरस की पहली लहर में योगी आदित्यनाथ जहां लोगों की नजर में हीरो बन चुके थे, दूसरी लहर में ऑक्सीजन, जरूरी दवाओं और अस्पताल में बेड के लिए चौतरफा हाहाकार और हर तरह बदइंतजामी के आलम से लोग काफी गुस्से में हैं - और बीजेपी को पंचायत चुनाव के नतीजों को लोगों के गुस्से का इजहार समझ लेना चाहिये.

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