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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 20 जून, 2018 05:05 PM
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मोदी सरकार का मिशन कश्मीर पहले से ही तैयार था. तीन साल दो महीने पुराना गठबंधन तोड़ने के साथ ही बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार अपने मिशन कश्मीर में जुट गयी है.

पांच दिन बाद ही सही, रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण भी पुंछ जाकर औरंगजेब के घरवालों से मिल आयी हैं. रक्षा मंत्री के ऐन पहले आर्मी चीफ बिपिन रावत पहुंचे ही थे. जाने को तो पहले भी जाया जा सकता था, लेकिन महबूबा सरकार के रहते संभवतः सही संदेश देना मुमकिन न हो पा रहा होगा.

बीजेपी का पूरा रोड मैप तैयार है

बीजेपी के समर्थन वापसी की खबर सिर्फ उनके लिए चौंकाने वाली रही जो इस बेमेल रिश्ते को पक्का मान कर चल थे. या वे लोग जो राजनाथ सिंह के जम्मू-कश्मीर दौरे को ठीक से पढ़ नहीं पाये. या फिर वे जिन्हें बीजेपी की सूरजकुंड मीटिंग से कश्मीर पर चर्चा में कोई गंभीर बात समझ नहीं आयी. सच तो ये है कि बीजेपी ने जम्मू कश्मीर और उससे आगे 2019 के लिए पूरा रोड मैप तैयार करने के बाद ही महबूबा सरकार की बलि देने का फैसला किया. दरअसल, इसमें बीजेपी को फायदा ही फायदा है -

narendra modi, mehbooba muftiएक और अधूरा सफर...

1. बीजेपी की बड़ी परेशानी पाकिस्तान से बातचीत के साथ साथ अलगाववादियों और पत्थरबाजों ने निबटने के तौर तरीकों पर महबूबा मुफ्ती के साथ चल रहा मतभेद रहा. ये धीरे धीरे रोज रोज के मियां-बीवी के झगड़े का रूप लेता गया - और उसका आखिरी पड़ाव अलगाव ही बचा था. महबूबा से सियासी और गवर्नेंस का रिश्ता खत्म हो जाने के बाद अब बीजेपी की नीतियां बेधड़क रफ्तार भर सकती हैं. जाहिर है इसके चलते सुरक्षा बलों को भी फ्री हैंड मिलेगा और बीजेपी इसे चुनाव के दौरान पूरे देश में बतौर गौरव गाथा पेश कर सकेगी.

2. अगर जम्मू कश्मीर में सरकार नहीं बन पायी होती तो अब तक कई बार गवर्नर रूल एक्सटेंड करना पड़ा होता या फिर चुनाव कराना पड़ता. बीजेपी को मालूम था आगे के चुनावों में जीत का पुराना नंबर दोहराया नहीं जा सकता था, इसलिए खींचतान कर साझी सरकार को इतने दिन ढोती रही. जब जरूरत पूरी हो गयी, मामला खत्म कर दिया. जैसे एकतरफा सीजफायर रहा हो.

अब कम से कम बीजेपी को जम्मू-कश्मीर के खराब हालात का ठीकरा फोड़ने के लिए एक 'ऑब्जेक्ट' तो है. अगर खुद ही को सब कुछ करना पड़ा होता तो तय था कुछ भी ऐसा कुछ भी संभव न था - फिर पल्ला झाड़ने के लिए आखिर कौन होता? बीजेपी ने अपने हिसाब से पीडीपी के कंधे पर बंदूक रख पूरा फायदा उठाया और मतलब पूरा हो गया तो रास्ते से ही हटा दिया.

3. रिश्ता तोड़ने का मन तो लगता है बीजेपी ने रमजान सीजफायर से पहले ही बना लिया था. रमजान सीजफायर का प्रस्ताव तो महबूबा का रहा, लेकिन उसे भी सत्ताधारी बीजेपी ने ऐसे टूल के तौर पर इस्तेमाल किया जो पूरी तरह उसी के पक्ष में जाये. जम्मू, जहां बीजेपी पिछली बार जीती रही, से अंदर की खबरें अच्छी नहीं आ रही थीं. बताते हैं कि बीजेपी कार्यकर्ता और समर्थक ही नहीं, आरएसएस के लोग भी नीचे से ऊपर तक नाखुशी जाहिर करने लगे थे. बीजेपी को बस एक ऐसे मौके की तलाश रही जब सरकार से समर्थन वापस लेने का पूरा दोष सिर्फ उसी पर न आ गिरे. मौका माकूल देखते ही बीजेपी ने 'मन की बात' का सार्वजनिक तौर पर इजहार कर दिया.

अब तो खैर गवर्नर रूल को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मंजूरी मिल चुकी है - और प्रशासन में मदद के लिए सीनियर नौकरशाहों औ सलाहकारों की टीम भी लगभग तैयार ही बतायी जा रही है. केंद्र के वार्ताकार दिनेश्वर सिंह पहले ही से श्रीनगर में डेरा डाले हुए हैं. खास बात ये है कि खुद वोरा भी केंद्र सरकार के वार्ताकार रह चुके हैं.

आम चुनाव नजदीक न होता तो क्या महबूबा सरकार कुछ दिन और चल सकती थी?

'शायद!'

आमराय तो फिलहाल इसी के इर्द-गिर्द घूम-फिर रही है.

पीडीपी तो कहीं की न रही

बताते हैं महबूबा मुफ्ती अपने दफ्तर में थीं, जब राज्यपाल एनएन वोहरा का फोन उनके पास आया. वोहरा ने ही महबूबा को बीजेपी के समर्थन वापस लेने की बात बतायी.

mehbooba mufti...और बीजेपी ने सपोर्ट वापस ले लिया!

जम्‍मू-कश्‍मीर के पूर्व मुख्‍यमंत्री उमर अब्‍दुल्‍ला ने पूरे वाकये पर बेहद तल्ख टिप्पणी की है - 'वो फीता काट रही थीं और बीजेपी ने अंदर ही अंदर पैर ही काट दिये.'

The J&K state assembly should be dissolved immediately & fresh elections should take place as soon as appropriate. The former DCM has admitted that BJP can’t be trusted not to horsetrade for Govt formation.

तीन तलाक के मुद्दे पर बीजेपी मुस्लिम महिलाओं से बातचीत के बाद ही खुद को आगे बढ़ने की पक्षधर बताती है. सियासी फैसले लेने में उसके ये सिद्धांत आड़े नहीं आते. राम माधव ने कितने बेरहम होकर सीधे सपाट शब्दों में साफ कर दिया कि उसका स्थायी स्टैंड क्या होता है - 'तलाक... तलाक... तलाक!'

बड़े ही नाजुक सियासी रिश्ते के इस बेरहम खात्मे के बावजूद जो सबसे खूबसूरत बात दिखी वो रही - महबूबा मुफ्ती का बहुत ही शालीन जवाब. तहजीब के मामले में महबूबा कितनी मैच्योर हैं, उनके नपे तुले शब्दों में ही तलाशे जा सकते हैं - 'ये सब सिर्फ सत्ता के लिए लिए नहीं था.'

जम्मू और कश्मीर के लोगों को बताने के लिए महबूबा के पास वैसे तो बहुत कुछ नहीं था, फिर भी पीडीपी नेता ने अपने तरीके से अपना पक्ष रखा.

1. देखा जाय तो जो मुश्किल बीजेपी की जम्मू रीजन में रही, पीडीपी की रही तकरीबन वैसी ही स्थिति कश्मीर में हो चली थी. पहली बार इस बात का एहसास महबूबा मुफ्ती को अपने पिता और पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद हुआ. मुफ्ती के जनाजे में लोगों का कम तादाद में हिस्सा लेना महबूबा का काफी खल रहा था और खुद कुर्सी पर बैठने का फैसला करने में देर की बड़ी वजह यही रही.

अगर कार्यकाल पूरा कर लेने के बाद मुफ्ती, भले ही बीजेपी के साथ, चुनाव में उतरतीं तो बात और होती. ताजा और सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि अब वो किस मुंह से अपने वोटरों को फेस कर पाएंगी.

2. मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी विरासत संभाल रहीं महबूबा मुफ्ती लोगों को अब तक यही समझाती रहीं कि बीजेपी के साथ हाथ कश्मीर के हित में मिलाया गया है. अब तो महबूबा के पास बताने के लिए सिफर ही है. सिवा कुछ दिन तक सरकार चलाने के बताने लायक तो कई उपलब्धि है नहीं. बीजेपी के समर्थन वापस लेने के बाद महबूबा मुफ्ती बोलीं, "हमने 11 हजार नौजवानों के खिलाफ केस वापस करवाई. जोर जबर्दस्ती से जम्मू-कश्मीर में कोई पॉलिसी लागू नहीं होने दी. हमने यहां धारा 370 को महफूज रखा है."

3. न तो एजेंडा ऑफ अलाएंस का कुछ लागू हुआ, न पाकिस्तान से बात हुई और न ही कश्मीरी नौजवानों के लिए कोई ऐसी व्यवस्था बन पायी जिसका आगे भी फायदा नजर आये.

"तो गठबंधन किया किसलिए था?"

महबूबा के लिए सबसे तकलीफदेह बात यही है कि ऐसे किसी भी सवाल का उनके पास जवाब नहीं है - और किसी सियासी दल के लिए इससे बड़ा घाटे का सौदा क्या हो सकता है?

अपनी किस्मत के भरोसे फिर कश्मीर

जम्मू-कश्मीर में आठवीं बार गवर्नर रूल लागू हो चुका है. यही कश्मीर की किस्मत का सबसे कमजोर पक्ष है जो गुजरते वक्त के साथ फितरत का रूप हासिल करता जा रहा है.

ये ठीक है कि जिन साझा फैसलों की स्थिति में महबूबा बाधक बनती रही होंगी वो सब अब नहीं रहा. अब न तो सीजफायर की तारीख बढ़ाने के लिए काउंसिलिंग करनी पड़ेगी और न ही किसी दहशतगर्द के एनकाउंटर में मारे जाने के बाद केंद्र की मोदी सरकार को असहज करने वाली कोई बात सुननी पड़ेगी. बुरहान वानी के मारे जाने के बाद महबूबा के बयान का आशय कुछ ऐसा रहा कि उन्हें खबर होती तो वो वानी को बचाने की कोशिश जरूरत करतीं.

अब सेना और सुरक्षा बलों का ऑपरेशन भी बेधड़क चलता रहेगा और सेना के खिलाफ कोई एक्शन लेने से पहले राज्य की पुलिस भी दो बार सोचेगी, लेकिन वैसा तो बिलकुल ही नहीं कर पाएगी जैसा उसने लितुल गोगोई के साथ किया.

अब कठुआ रेप जैसी घटनाओं पर वैसी राजनीति भी नहीं होंगी कि सरकार का एक धड़ा पीड़ित के साथ खड़ा हो और दूसरा आरोपियों के साथ. संभव है शुजात बुखारी के हत्यारे जल्दी ही पकड़ लिये जायें - और औरंगजेब को मार डालने वाले देश के दुश्मनों से भी जल्द से जल्द बदला ले लिया जाये.

औरंगजेब की हत्या की जांच से जुड़े एक सीनियर अफसर ने इंडिया टुडे टीवी को बताया, "सैनिकों की हिफाजत के तमाम तरीके बने हुए हैं, खास तौर पर जो जम्मू कश्मीर से हैं. कहीं कोई चूक जरूर लगती है. हमारी जांच उसी पर फोकस हो रही है... स्वाभाविक तौर पर वो निशाने पर थे."

तो क्या औरंगजेब कैसे, किस रास्ते और कब छुट्टी जा रहे हैं, ये सब किसी तरह लीक हो गया? और अगर ऐसा हुआ तो ऐसा किसने किया होगा? अगर ऐसा कुछ नहीं हुआ होता तो औरंगजेब की जान बच सकती थी.

औरंगजेब के पिता ने केंद्र की मोदी सरकार को अल्टीमेटम देते हुए आतंकवादियों को मौत के घाट उतार कर बेटे की शहादत का बदला लेने की अपील की है.

उड़ी हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक हुई थी. सर्जिकल स्ट्राइक के लिए भेजी गयी टीम में मारे गये जवानों के साथियों को भी भेजा गया था ताकि उनके अंदर की बदले की आग कुछ शांत हो सके. औरंगजेब के घर पहले आर्मी चीफ और फिर रक्षा मंत्री के दौरे के बाद मोदी सरकार एक बार फिर वैसा ही बदले वाला संदेश देने की कोशिश कर रही है.

गठबंधन टूटने और सेना की कार्रवाई तेज होने से बीजेपी समर्थकों और मोदी के फैन जरूर खुश होंगे. खासकर वे जो इस बात में यकीन रखते हैं कि 'शठे शाठ्यम् समाचरेत' जैसा जवाब सिर्फ मोदी ही दे सकते हैं. वैसे ये बातें मोदी के मुंह से ही अक्सर सुनने को मिलती रहती हैं.

कश्मीर के नाम पर पाकिस्तान और सर्जिकल स्ट्राइक की बातों से मोदी समर्थकों की बांछें खिल उठती हैं - और अब इसका पूरा इंतजाम कर दिया गया है. अगर कुछ नहीं नजर आ रहा है तो ये कि आखिरकार जम्मू-कश्मीर के लोगों के हिस्से में क्या आया? क्या मोदी सरकार से आने वाले 'अच्छे दिनों' में वाजपेयी सरकार के फॉर्मूले - 'कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत' वाली लाइन पर थोड़ी सी भी उम्मीद का स्कोप लगता है? यही वो पक्ष है जिस पर कश्मीर की किस्मत और उसके भविष्य की इबारत लिखी हुई लगती है.

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