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Updated: 20 मार्च, 2021 03:02 PM
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अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) दिल्ली विधानसभा चुनावों के पहले से ही केंद्र की मोदी सरकार के साथ टकराव का रास्ता छोड़ चुके थे. विधानसभा चुनावों में तो शाहीन बाग जैसे मुद्दों पर बीजेपी नेताओं के बार बार उकसाने पर भी केजरीवाल ने धैर्य बनाये रखा - और तब तक खामोश बने रहे जब तक चुनाव नतीजे नहीं आ गये.

चुनावों में हनुमान चालीसा पढ़ने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने नतीजे आने के बाद तो जीत का क्रेडिट भी हनुमान जी को ही दे डाला था. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अयोध्या में दिवाली मनाने जैसे ही अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में दीपोत्सव का कार्यक्रम कर अपने तरीके से लोगों को संदेश देने की भरपूर कोशिशें भी की.

देशभक्ति और भगवत-भक्ति वाली राजनीति की राह पर आगे बढ़ रहे अरविंद केजरीवाल को देख कर ऐसा लग रहा था कि वो बीजेपी के साथ टकराव का रास्ता हमेशा के लिए छोड़ कर हिंदुत्व की राजनीतिक राह अपनाने जा रहे हैं और इसी के चलते बीजेपी और मोदी के विरोध से परहेज कर रहे हैं.

अरविंद केजरीवाल राजनीति में यू-टर्न के लिए भी जाने जाते हैं. पहले राजनीति चमकाने के लिए विरोधियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा देते हैं और जब फंस जाते हैं तो फटाफट माफी मांग कर मामला खत्म भी कर लेते हैं. दिल्ली में उप राज्यपाल के साथ टकराव तो अरविंद केजरीवाल की राजनीति का पैदाइशी शगल है, एक खास मकसद से बीच में उसे होल्ड कर लिया था, लेकिन एक बार फिर वो यू-टर्न लेकर केंद्र सरकार से दो-दो हाथ करने लगे हैं.

केजरीवाल के केंद्र सरकार से ताजा टकराव की वजह भी थोड़ी खास है. दरअसल, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने लोकसभा में एक विधेयक (NCT Act Amendment) पेश किया है जो दिल्ली के LG यानी लेफ्टिनेंट गवर्नर को अभी के मुकाबले ज्यादा ताकतवर बना सकता है. मोदी सरकार (Modi Sarkar) के इस विधेयक पास हो जाने पर दिल्ली विधानसभा से पास किये जाने वाले कानूनों पर भी लागू होगा - और कैबिनेट के फैसले को लागू करने के लिए भी मुख्यमंत्री को उप राज्यपाल की मंजूरी का इंतजार करना पड़ सकता है. ऐसा होने की सूरत में दिल्ली के एलजी के विवेकाधिकार का दायरा भी बढ़ा हुआ होगा.

अब तक अरविंद केजरीवाल ने राजनीति के नाम पर जो कुछ हासिल किया है वो दिल्ली में ही है और अगर उनके अधिकार सीमित कर दिये गये तो आम आदमी पार्टी के सामने राजनीतिक अस्तित्व का संकट पैदा होने का खतरा मंडराने लगेगा. अरविंद केजरीवाल केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी नेतृत्व की राजनीतिक चाल समझ चुके हैं और यही वजह है कि वक्त रहते पूरी तरह अलर्ट भी हो गये हैं.

निश्चित तौर पर बीजेपी नेतृत्व दिल्ली को लेकर भी काफी सोच विचार कर ही रणनीति तैयार किया होगा, लेकिन लगता है जैसे बीजेपी की रणनीति में अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक स्टाइल को कोई अहमियत नहीं दी जा रही है.

बीजेपी नेतृत्व कहीं ऐसा तो नहीं कि अरविंद केजरीवाल को जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रीय नेताओं और पुडुचेरी की कांग्रेस समझने की भूल तो नहीं कर रहा है? ऐसे में जबकि 2022 में कई राज्यों में विधानसभाओं के साथ साथ MCD के चुनाव भी होने जा रहे हैं - बीजेपी भूल रही है कि वो अरविंद केजरीवाल को खुल कर विक्टिम कार्ड खेलने का मौका देने का जोखिम उठा रही है.

केजरीवाल को हल्के में रहा है बीजेपी नेतृत्व

अरविंद केजरीवाल एक बार फिर दिल्ली के लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं - 'वे परेशान कर रहे हैं और हम काम कर रहे हैं'. वे से अरविंद केजरीवाल का आशय बीजेपी नेतृत्व से है - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह.

ये बातें भी अरविंद केजरीवाल उसी जगह से कर रहे हैं जो उनका फेवरेट पॉलिटिकल स्पॉट है - जंतर मंतर. चूंकि जंतर मंतर विरोध की आवाजों को धारदार बनाने की ताकत देता है, इसलिए अरविंद केजरीवाल शुरू से ही उसका भरपूर फायदा उठाते रहे हैं. हालांकि, ऐसा हमेशा होना भी जरूरी नहीं होता. किसानों के समर्थन में कांग्रेस ने भी अपने सांसदों को जंतर मंतर पर धरने पर बिठा दिया, लेकिन फायदा तो कुछ दिखा नहीं.

आंदोलन से राजनीति में आने वाले के लिए ताकत का स्रोत हमेशा जंतर मंतर जैसे मंच ही होते हैं. राजनीति में रह कर लोगों के बीच जाकर आंदोलन की लौ जगाना भी काफी कारगर होता है, खास कर तब जब आवाज सत्ता पक्ष के खिलाफ उठायी जा रही हो.

अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी दोनों ही एक ही रास्ता अख्तियार कर रहे हैं. जरूरी भी तो नहीं है कि बीजेपी के लिए दोनों ही नेताओं से तकरार का नतीजा भी एक जैसा ही हासिल हो. दिल्ली और पंजाब का सेट-अप और लोगों का मिजाज ही नहीं, ऐसी कई चीजें हैं जो काफी अलग हैं.

NCT एक्ट में संशोधन के खिलाफ अभी तो केजरीवाल जंतर मंतर पहुंचे हैं और सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के फैसले की दुहाई दे रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तब तो बिलकुल मतलब नहीं रह जाता जब संसद में प्रस्ताव लाया जाये और मंजूरी भी मिल जाये. शाहबानो और एससी-एसटी एक्ट से लेकर कुछ हद तक जम्मू-कश्मीर के मामले में भी ऐसा ही हुआ है. 5 अगस्त, 2019 से पहले जम्मू-कश्मीर के नेता सोच रहे थे कि बीजेपी नेता या पार्टी समर्थक लोग सुप्रीम कोर्ट के जरिये धारा 370 और 35ए को खत्म कराने की कोशिश कर सकते हैं - लेकिन एक ही दिन में संसद में प्रस्ताव आया और देखते देखते सब कुछ बदल गया.

arvind kejriwal, amit shahकोरोना वायरस से जूझ रही दिल्ली को उबारने के मामले में अमित शाह, अरविंद केजरीवाल पर भारी पड़े थे, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं.

कोरोना वायरस के मामलों में बेतहाशा इजाफे को लेकर दिल्ली में बदइंतजामी होने लगी तो केंद्र सरकार को दखल देनी पड़ी थी. अमित शाह एक तरीके से पूरा कमांड ही अपने हाथ में ले चुके थे. अरविंद केजरीवाल की बातों से भी ऐसा ही लग रहा था. तब बीजेपी नेतृत्व अरविंद केजरीवाल पर भारी पड़ा था, लेकिन ये मामला अलग है. ये तो ऐसा भी है कि अरविंद केजरीवाल पलट कर वार भी कर सकते हैं.

अगर केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी नेतृत्व को लगता है कि वो दिल्ली में भी पुडुचेरी जैसा खेल कर लेंगे तो ये पॉलिटिकली करेक्ट नहीं होगा. पुडुचेरी में किरण बेदी की जगह नया उप राज्यपाल लाकर केंद्र ने जो संदेश देने की कोशिश की वो लोगों तक आधा अधूरा ही पहुंचा है. एक तबका ऐसा भी जो मानता है कि पुडुचेरी में भी बीजेपी ने कर्नाटक और मध्य प्रदेश की तरह अपने सबसे कारगर हथियार ऑपरेशन लोटस का इस्तेमाल किया और कांग्रेस के सत्ता से बेदखल कर दिया - वो भी विधानसभा चुनाव के ऐन पहले.

जंतर मंतर के जरिये अरविंद केजरीवाल केंद्र सरकार के प्रस्ताव को बीजेपी के ऑपरेशन लोटस जैसा समझाने की कोशिश कर रहे हैं. बीजेपी नेतृत्व की तरफ इशारा करते हुए अरविंद केजरीवाल समझाते हैं कि पूरे देश में ये लोग यही कर रहे हैं. कहते हैं, दिल्ली में आम आदमी पार्टी के विधायक बिक नहीं रहे तो ये कानून लाकर दिल्ली की सत्ता खत्म करना चाहते हैं. सूरत, कर्नाटक, दिल्ली में नगर निगम उपचुनाव में जीरो हासिल होने की वजह से दिक्कत हो रही है.

अगर बीजेपी दिल्ली को लेकर भी ऐसी ही किसी राजनीतिक रणनीति पर काम कर रही है तो वो अरविंद केजरीवाल को कुछ ज्यादा ही हल्के में ले रही है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी देख चुकी है कि उसके नेताओं की कोई भी पैंतरेबाजी काम नहीं आ सकी. बीजेपी को ये तो भूलना भी नहीं चाहिये.

अरविंद केजरीवाल फिर से पुराने मंत्र का जाप शुरू कर चुके हैं, 'ये चाहे जितनी शक्तियां छीन लें, हम काम करते रहेंगे.'

आपदा में अवसर तलाश लेंगे केजरीवाल

कांग्रेस मुक्त भारत की अपनी मुहिम में हद से ज्यादा कामयाब रही बीजेपी, दिल्ली को भी AAP कराने की स्थिति में हो सकती थी, लेकिन ऐसा तभी संभव था जब अरविंद केजरीवाल के सामने राजनीतिक संघर्ष और जनता के सपोर्ट हासिल करने के मौके नहीं होते. बीजेपी एक ही हथियार से कांग्रेस की तरह आम आदमी पार्टी का शिकार नहीं कर सकती. विधानसभा चुनावों में एक जैसे तौर तरीके अपनाने के नतीजे बीजेपी देख ही चुकी है.

अरविंद केजरीवाल किसी भी तरीके से बीजेपी के सामने राहुल गांधी जैसी चुनौती नहीं हैं. बीजेपी को राष्ट्रीय राजनीति में 2024 तक कोई खतरा नहीं है. राहुल गांधी से बीजेपी को खतरा इसलिए भी नहीं है क्योंकि उनका फोकस राष्ट्रीय राजनीति है. यूपी के पंचायत चुनावों को छोड़ दें तो कांग्रेस नेतृत्व को न तो ऐसे चुनावों में कोई दिलचस्पी दिखती है, न ही राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी. ये ठीक है कि राहुल गांधी तमिलनाडु और केरल में दिलचस्पी ले रहे हैं, लेकिन लड़ाई के मैदान पश्चिम बंगाल से निश्चित दूरी बनाकर चल रहे हैं.

कांग्रेस के उलट अरविंद केजरीवाल का पूरा फोकस देश में जगह जगह होने वाली क्षेत्रीय राजनीति पर है. खुद मोदी के खिलाफ चुनाव लड़कर भी अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी की ताकत आजमा चुके हैं. ऐसी सूरत में अरविंद केजरीवाल राज्यों में घुसपैठ कर पांव जमाने की कोशिश में हैं. ज्यादा दिलचस्पी गुजरात को लेकर है जहां छोटी सी उपलब्धि को भी अरविंद केजरीवाल बीजेपी नेतृत्व को शिकस्त देने जैसा महसूस करते हैं. हाल के चुनावी नतीजों से अरविंद केजरीवाल के जोश में इजाफा स्वाभाविक भी है.

ये तो जगजाहिर है कि अरविंद केजरीवाल राजनीति में विक्टिम कार्ड के माहिर खिलाड़ी हैं. जंतर मंतर से पूछने भी लगे हैं, दिल्ली को लेकर केंद्र सरकार का राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (संशोधन) विधेयक, 2021 अगर कानून बन जाएगा तो मुख्यमंत्री कहां जाएंगे?

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं - 'उस कानून में लिखा है कि दिल्ली सरकार का मतलब एलजी होगा... फिर हमारा मतलब क्या होगा - हमारे साथ धोखा हो गया है.'

फिर आरोप लगाते हैं कि दिल्ली में बीजेपी ने सरकार गिराने की कोशिश कर रही है, कहते हैं, 'ये लोग देश में सरकार गिराने के लिए जाने जाते हैं.'

याद दिला रहे हैं, 'दिल्ली में MCD में उनको जीरो सीट मिलीं... दिल्ली की जनता कह रही है कि हमको आम आदमी पार्टी चाहिये, लेकिन ये चोरी से दिल्ली में राज करना चाहते हैं... ये जनता का राज खत्म करना चाहते हैं'

लगे हाथ अरविंद केजरीवाल अपने राजनीतिक इरादे भी साफ कर देते हैं - अब उत्तर प्रदेश और गुजरात के लोग फ्री बिजली मांग रहे हैं... अगर वोट चाहिये तो तुम भी अच्छे काम करो... देश के साथ धोखा मत करो.'

विधेयक वापस लेने की मांग के साथ नया पैंतरा शुरू होता है. अरविंद केजरीवाल कहते हैं, 'अब चाहे हमें उनसे निवेदन करना पड़े और इसके लिए उनके चरणों में गिरना पड़े या उनके सामने हाथ जोड़ने पड़े... हम ये करेंगे.'

दिल्ली विधानसभा चुनावों में बीजेपी नेतृत्व ने अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं रखी थी. बीजेपी नेताओं का एक समूह तो अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी ही साबित करने में जुट गया था और उसका भी आप नेता ने बड़ी ही चालाकी से काउंटर किया. वोटिंग के ठीक पहले बोले, 'अगर मुझे आतंकवादी समझते हो तो बीजेपी को वोट दे देना.'

लाख कोशिशें आजमा कर भी बीजेपी पांच साल बाद भी पांच से ज्यादा सीटें नहीं जुटा सकी. 2015 में बीजेपी को तीन सीटें मिली थी और 2020 में कुल जमा आठ विधायक चुने जा सके.

आपको याद होगा दिल्ली विधानसभा चुनाव से करीब साल भर पहले अरविंद केजरीवाल के चुनावी वादों पर सवाल उठाये जाने लगे थे. जब 2019 के चुनाव में आम आदमी पार्टी को कांग्रेस ने पीछे छोड़ दिया तो अरविंद केजरीवाल अलर्ट भी हुए और एक्टिव भी. चुनावी वादों के तहत वाई-फाई और सीसीटीवी से लेकर बाकी कामों पर भी जोर दिया जाने लगा. कुछ तो पूरे हुए लेकिन कई आधे अधूरे ही रहे. वक्त भी तो नहीं था.

तब तक अरविंद केजरीवाल लोगों को यही समझाते रहे कि केंद्र सरकार उनको काम करने ही नहीं देती. अगर कुछ भी वो करने की कोशिश करते हैं तो दिल्ली के एलजी रोड़ा लगा देते हैं. अगर नया कानून बनता है तो अरविंद केजरीवाल को स्थायी बहाना मिल जाएगा.

फिर तो अरविंद केजरीवाल बीजेपी पर सारी बातों के लिए वैसे ही दोष मढ़ते रहेंगे जैसे दिल्ली में दंगे होने पर घर में बैठ गये थे - क्योंकि दिल्ली पुलिस की नाकामी तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के मत्थे मढ़ी जाती. ये तो ऐसा लग रहा है जैसे बीजेपी नेतृत्व अरविंद केजरीवाल के पर कतरने की कोशिश में उनको पांव फैलाने का ही मौका दे रहा है. आपदा में अवसर की तलाश अरविंद केजरीवाल काफी पहले कर चुके थे, बीजेपी नेतृत्व शायद इसे नजरअंदाज कर रहा है.

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