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Updated: 08 नवम्बर, 2021 04:31 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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बिहार में अप्रैल, 2016 से शराबबंदी लागू है. नीतीश कुमार के महागठबंधन के नेता रहते 2015 की चुनावी जीत में शराबबंदी की अहम भूमिका रही. तब से नीतीश कुमार अब तक तीन बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं - फिर भी बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू करने को लेकर सवाल खड़े होते रहे हैं.

कभी कोड वर्ड से शराब बिकने की बातें सामने आती हैं, तो कभी चूहों तक पर दोष मढ़ दिया जाता है. जिन इलाकों में जहरीली शराब से मौतें हुई हैं, वहां की महिलाओं ने मीडिया को बताया है कि शराबबंदी जैसा तो कभी उनको महसूस ही नहीं हुआ - 'जैसे बरसों पहले मिलता था, वैसे ही अब भी मिल रहा था.'

सिर्फ चार दिन में जहरीली शराब से हुई चालीस मौतों (Bihar Spurious Liquor Death) के बाद बिहार के बेतिया, गोपालगंज और समस्तीपुर के कई गांवों में मातम पसरा हुआ है. परिवार उजड़ चुके हैं. ज्यादातर तो दैनिक मजदूरी करने वाले बताये जाते हैं, लेकिन कई नौकरी-पेशा परिवारों के लोग भी पीड़ितों में शामिल हैं.

ताज्जुब की बात तो ये है कि बिहार में शराब की खपत महाराष्ट्र से भी ज्यादा है, जबकि महाराष्ट्र में बिहार की तरह शराबबंदी भी नहीं लागू है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक, महाराष्ट्र के शहरी क्षेत्र के 13 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्र के 14.7 फीसदी लोग शराब का सेवन करते हैं. बिहार में 15.5 फीसदी पुरुष शराब पीते हैं, जबकि महाराष्ट्र में ऐसे लोग 13.9 ही हैं.

मेडिकल कंडीशन या जरूरतों को छोड़ दें तो शराब हमेशा ही मौतों की वजह बनती है, लेकिन मिलावट के कारण अक्सर देशी शराब ही जहरीली हो जाती है और तात्कालिक तौर पर जानलेवा साबित होती है. देशी के अलावा जो शराब हैं वे लिवर की ऐसी बीमारियां देती हैं जो एक समय के बाद मौत का कारण बनती हैं.

असल में देशी या कच्ची शराब मिलावट के कारण ही मौत की वजह बन जाती है. माना जाता है कि मिलावटी देशी शराब ज्यादा नशीली होती है - और ये मिलावट ही है जो देशी शराब को जहरीली बना देती है. बिहार का ताजा मामला भी ऐसा ही लगता है, हालांकि, ये कोई पहली बार नहीं हुआ है और ऐसा सिर्फ बिहार में ही नहीं होता.

जहरीली शराब से मौतों को प्रशासनिक अमला तकनीकी तौर पर शराबबंदी से अलग करके पेश करता है - और बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही नहीं, शराबबंदी की समीक्षा की मांग करने वाले बिहार बीजेपी अध्यक्ष संजय जायसवाल भी यही बताने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इससे वो सवाल खत्म नहीं हो जाता जो शराबबंदी के फायदे के तौर पर समझाये जाते हैं.

शराबबंदी के फायदे समझाते वक्त नीतीश कुमार (Nitish Kumar) भी कहा करते थे कि शराब के चलते परिवार बर्बाद हो जाते हैं और महिलाओं को उसकी पीड़ा झेलनी पड़ती है, लेकिन क्या शराब पीने से ही परिवार बर्बाद होते हैं - जहरीली शराब से मौतें होने पर नहीं?

कानून व्यवस्था के नजरिये से हत्या से भी संगीन जुर्म संगठित अपराध होते हैं - और जहरीली शराब का मामला भी वैसा ही है. लोगों ने खुद बना कर नहीं, बल्कि ये शराब खरीद कर पी है - और शराब बेचने वाला कारोबारी फरार है. एक गांव से आई मीडिया रिपोर्ट बताती है कि तमाम झुग्गी और कच्चे मकानों के बीच फरार कारोबारी का ही एक पक्का मकान नजर आत है जहां बड़े से लोहे के गेट पर ताला लगा हुआ है.

Nitish Kumar, victim familyबिहार में शराबबंदी के बावजूद जहरीली शराब से मौतें नीतीश कुमार सरकार पर ही सवालिया निशान हैं

आखिर ये सब कैसे चल रहा था? जिन महिलाओं का वोट हासिल करने के लिए नीतीश कुमार ने शराबबंदी का चुनावी वादा निभाया और लागू किये भी पांच साल होने जा रहे हैं - वे महिलाएं ही कभी क्यों नहीं महसूस कर पायीं कि उनके इलाके में भी शराबबंदी कानून लागू है?

कहां नीतीश कुमार 2016 में पूरे देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से शराबबंदी लागू किये जाने की घोषणा करने की मांग कर रहे थे - और कहां उनकी ही सरकार के रहते बिहार में नीतीश कुमार उस पर ठीक से अमल नहीं कर पा रहे हैं! आखिर ये किस लेवल पर चूक हो रही है जो बेकाबू हो चुका है? विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) तो सवाल उठा ही रहे हैं, सरकार में सहयोगी पार्टी बीजेपी नेता भी शराबबंदी की समीक्षा की मांग कर रहे हैं.

निर्दोष कैसे हो सकते हैं नीतीश कुमार?

नीतीश कुमार ने भले ही बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू करने का पूरा क्रेडिट हासिल किया हो, लेकिन जहरीली शराब से होने वाली मौतें नहीं रोक पा रहे हैं - और जब भी जवाबदेही की बात आती है, वो दूसरों के ही सिर पर ठीकरा फोड़ कर खुद को निर्दोष साबित करने में जुट जाते हैं.

जहरीली शराब से बड़ी संख्या में लोगों की मौत के सवाल पर नीतीश कुमार बिना लाग लपेट के कह जाते हैं - 'जहरीली शराब पीने वाले मौत के लिए खुद जिम्मेदार हैं... गलत काम कीजिएगा तो ये नौबत आएगी ही!'

नीतीश कुमार को मालूम होना चाहिये कि मुख्यमंत्री का काम इस तरीके से लोगों के पाप-पुण्य का हिसाब किताब नहीं होता. जिन लोगों की मौत हुई है, वे कोई खुद जहरीली शराब बनाने के बाद पीकर आत्महत्या नहीं किये हैं - वे शराब खरीद कर पीये और उनकी मौत हो गयी.

लोगों की मौत पर नीतीश कुमार की टिप्पणी जान लीजिये, 'हम बार-बार कहते रहते हैं... आज नहीं, जब भी हुआ... जब तुम पियोगे गड़बड़ चीज, तो इसी तरह से न होगा... लोगों को एक बार फिर से बताना पड़ेगा कि ये बहुत गंदी चीज है.'

बेशक लोगों को बताना पड़ेगा. बार बार बताना पड़ेगा, लेकिन कोई ऐसी शराब बना कर न बेच सके - ये सबसे पहले सुनिश्चित करना होगा क्योंकि सरकार ही ये काम है.

ये नीतीश कुमार ही हैं जिनका 2012 में नीतीश ने कहा था, 'अगर आप पीना चाहते हैं तो पीजिये और टैक्स पे कीजिये... मुझे क्या? इससे फंड इकट्ठा होगा और उससे छात्राओं के लिए मुफ्त साइकिल की स्कीम जारी रहेगी.'

तभी तो नीतीश कुमार की ही सरकार रही जब 2005 से 2015 के बीच बिहार में पंचायत स्तर तक शराब की दुकानें खुल गयीं - और उनकी संख्या दो गुनी हो गयी थी. शराबबंदी से पहले बिहार में शराब की करीब छह हजार दुकानें थीं और इससे राज्य सरकार करीब डेढ़ हजार करोड़ रुपये की राजस्व वसूली करती थी. 1 अप्रैल, 2016 को बिहार देश का ऐसा पांचवां राज्य बन गया जहां शराब के सेवन और जमा करने पर प्रतिबंध लग गई.

26 नवंबर, 2015 को मद्यनिषेध दिवस के मौके पर नीतीश का भाषण चल रहा था, 'हम लोगों ने 1977-78 में भी शराब पर पाबंदी लगाने का प्रयास किया था, लेकिन उस समय ये नहीं हो पाया... शराब के कारण महिलाएं दूसरों से कहीं अधिक पीड़ित हैं... '

ये उन दिनों की ही बात है जब नीतीश का कहना रहा, 'बिहार में पूर्ण शराबबंदी होगी... उन राज्यों की तरह नहीं जहां पूर्ण शराबबंदी है, लेकिन - शराब की होम डिलीवरी होती है.'

ये नीतीश कुमार का गुजरात को लेकर कटाक्ष था और निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रहे क्योंकि वो गुजरात से ही आते हैं और दिल्ली पहुंचने से पहले राज्य के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. तभी 2017 के यूपी चुनावों के मद्देनजर नीतीश कुमार जगह जगह रैलियां भी कर रहे थे - और हर रैली में प्रधानमंत्री मोदी को ताना मारते थे कि वो पूरे देश में शराबबंदी क्यों नहीं लागू करने की पहल करते. तब, दरअसल, नीतीश कुमार की नजर भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ही रही.

नीतीश कुमार ने ट्विटर पर बिहार में शराबबंदी की समीक्षा बैठक की तस्वीरें शेयर की है, लेकिन कहा है कि छठ पर्व के बाद वो पूरे मामले पर गंभीर रुख अपनाएंगे. बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव अक्सर आरोप लगाते रहे हैं कि बिहार में शराब की होम डिलीवरी हो रही है. तेजस्वी का इल्जाम रहा है कि धंधे में न सिर्फ शराब माफिया बल्कि पुलिस-प्रशासन और कुछ राजनेता भी शामिल हैं.

बिहार सरकार में नीतीश कुमार की सहयोगी बीजेपी नेता संजय जायसवाल तो अपने संसदीय क्षेत्र पूर्वी चंपारण स्थिति भयावह बता रहे हैं - हैरानी तो तब होती है जब वो कहते हैं, 'वहां पुलिस-प्रशासन के सहयोग से शराब का काम चल रहा है.'

बिहार बीजेपी अध्यक्ष संजय जायसवाल प्रेस कांफ्रेंस करके कहते हैं, 'निश्चित रूप से इस नीति की समीक्षा करने की आवश्यकता है... इस घटना को केवल शराबबंदी से जोड़ना सही नहीं होगा, लेकिन जहां प्रशासन की भूमिका संदिग्ध है वहां बिहार सरकार को इस बारे में सोचने की जरूरत है.'

शराबबंदी लागू होने से कोई राज्य शराब-मुक्त नहीं होता!

बिहार में शराबबंदी लागू होने के दो साल बाद ही एक खबर ने सबको चौंका दिया था - शराब चूहे गटक गये. दरअसल, 2018 में कैमूर में जब्त कर रखे गये 11 हजार बोतल शराब के बारे में पुलिस ने कोर्ट को बताया कि चूहों ने शराब की बोतलें खराब कर दीं. ऐसे ही नौ हजार लीटर शराब के एक अलग मामले में भी शराब खत्म होने का सारा दोष चूहों के मत्थे ही मढ़ दिया गया.

ये पीने और पिलाने का मामला भी बिलकुल अलग होता है. पूरे प्रकरण में हर किरदार फायदा उठाने की कोशिश करता है, लेकिन आखिरकार घाटे में पीने वाला ही लगता है. सरकारें भी चाहे जैसे कानून बनायें और लागू करें, पिछले दरवाजे से शराब परोसने का स्कोप हमेशा ही रहता है.

बिहार में ही ही जो परिवार जहरीली शराब के ताजा शिकार हुए हैं, महिलाओं का कहना है कि कभी उनको लगा ही नहीं कि कोई नया कानून बना है या शराबबंदी लागू है. जैसे पहले होता आया था, वैसे ही अब तक चलता रहा - लेकिन ऐसा क्यों होता है?

एकबारगी तो यही समझ में आता है कि जिसने जहरीली शराब बेची है वो या तो चोरी छिपे ये काम करता होगा या फिर उसके पास लाइसेंस किसी और काम के लिए होगा और वो उसी की आड़ में स्थानीय पुलिस और प्रशासन को झांसा देकर या फिर रिश्वत देकर अपना धंधा चला रहा था - तस्वीर तो तभी साफ हो पाएगी जब नीतीश कुमार अपने कहे मुताबिक सख्ती से जांच कराएंगे और वो रिपोर्ट सार्वजनिक तौर पर या सूत्रों के जरिये मीडिया में आ पाएगी.

शराबबंदी नहीं होने की सूरत में भी सरकार का मद्यनिषेध विभाग लोगों को शराब न पीने के लिए जागरूक करता है और आबकारी विभाग शराब की बिक्री से टैक्स वसूलता है राजस्व बढ़ाया जा सके - और कोरोना संकट के बीच तो सबने देखा ही कि किस तरह से सबसे पहले शराब की ही दुकाने खोली गयीं और सोशल डिस्टैंसिंग मजाक बन कर रह गया.

लेकिन शराबबंदी लागू होने की स्थिति में भी कोई भी राज्य शराब मुक्त नहीं हो जाता. शराबबंदी की सूरत में परमिट शराब खरीदने के लिए परमिट की जरूरत होती है. शराब की परमिट के लिए सबसे पहले तो एक मेडिकल सर्टिफिकेट की दरकार होती है. सर्टिफिकेट जारी करने वाला डॉक्टर भी कम से कम एमडी होना चाहिये.

मेडिकल परीक्षण के बाद डॉक्टर सलाह देता है कि व्यक्ति विशेष की दिमागी और शारीरिक हालत ऐसी है कि उसके लिए शराब पीना बेहद जरूरी है. मेडिकल सर्टिफिकेट के साथ साथ आवेदक को अपना इनकम टैक्स रिटर्न या ऐसे दस्तावेज भी दाखिल करने होते हैं जिनसे साबित हो कि वो शराब पीने की हैसियत में है भी या नहीं. अगर वो शख्स सरकारी कर्मचारी है तो उसे अपने डिपाप्टमेंट हेड से NOC लेकर जमा करना होता है तभी परमिट मिलती है - लेकिन सभी के लिए अलग अलग कोटा भी पहले से ही तय कर दिया जाता है.

अगर कोई व्यक्ति उस राज्य का निवासी नहीं है जहां शराबबंदी लागू है तो उसके लिए हफ्ते भर का अस्थाई परमिट का इंतजाम होता है, जिसके लिए ट्रेन या फ्लाइट का टिकट और निवास प्रमाण पत्र पेश करना होता है - ऐसे ही सड़क के रास्ते सफर करने वालों के लिए चुंगी पर टैक्स चुकाने की रसीद देनी होती है.

ये सब एक स्टैंडर्ड प्रैक्टिस है और अलग अलग राज्यों में अलग तरीके से लागू किया जाता है - बिहार की असली तस्वीर तो शराबबंदी की समीक्षा के बाद ही सामने आ सकेगी.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

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